Monday, August 22, 2011

काश! लोकपाल पर मन की सुनते मनमोहन

 सितंबर 2004 में लोकायुक्त और उपलोकायुक्तों के आठवें अखिल भारतीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने लोकपाल की खुलकर वकालत की थी। देहरादून में हुए इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री के शब्द थे-'मुझे यह कहने या कबूलने में कोई दिक्कत नहीं है कि केंद्र में लोकपाल जैसी संस्था की कमी राज्यों में लोकायुक्तों के कामकाज पर गलत असर डाल रही है। ऐसे में अब लोकपाल पहले की तुलना में कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है। हमें बिना समय गंवाए अब इसके लिए कोशिश करनी चाहिए।'  मनमोहन सिंह का ही यह भाषण अंश है -'मोटे तौर पर इस बात पर सहमति है कि यह एक बहुसदस्यीय और अ‌र्द्ध-न्यायिक संस्था हो। साथ ही इस मुद्दे पर भी ज्यादातर रजामंदी है कि लोकसेवक, जनता के प्रति जवाबदेह सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री समेत प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्वाचित लोग लोकपाल के दायरे में लाए जाएं।' फिर ऐसा क्या हो गया की एकबारगी वे अपनी ही तमाम बातों से पलट रहे हैं....कंही भ्रष्टाचारियों का दबाव तो उनपर नहीं है......
वैसे प्रधानमंत्री अप्रैल में अन्ना के आंदोलन के बाद भी खुद को लोकपाल के दायरे में लाने की हिमायत कर चुके हैं। लेकिन सरकार में अपने सहयोगियों के दबाव में मनमोहन को सामूहिक फैसले के आगे अपनी राय को दरकिनार करना पड़ा। नतीजतन सरकार की ओर से जो विधेयक संसद में पेश किया गया वो प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखता है। इसने जन लोकपाल के समर्थन और सरकार की ओर से पेश विधेयक के खिलाफ नाराजगी को फैलाने में ही मदद की। संप्रग सरकार की कमान संभालते ही प्रधानमंत्री लोकपाल पर अपने ही शब्द अमल में लाते तो शायद उनकी सरकार आज जन आक्रोश का सामना न कर रही होती। पहली पारी की शुरुआत में लोकपाल संप्रग के न्यूनतम साझा कार्यक्रम का हिस्सा था। इतना ही नहीं मनमोहन 2004 में प्रधानमंत्री पद और सांसदों को दायरे में लाने वाले एक मजबूत लोकपाल को वक्त की जरूरत करार दे चुके थे। यह बात और है कि अप्रैल 2011 में अन्ना के आंदोलन से पहले तक टीम मनमोहन इस मोर्चे पर प्रगति का कोई तमगा नहीं जुटा पाई। काश लोकपाल पर अपनी मन की सुनते मनमोहन तो शायद आज उनकी सरकार की ऐसी फजीहत भी नहीं होती और उनकी खुद की छवि भी कुछ हद तक बची रहती...

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