Monday, November 21, 2011

विभाजन के दांव की हकीकत


‘दिल्ली का दिल’ और सियासी ताकत की पचहान रखने वाले उत्तर प्रदे का चार टुकड़ों में बांटने का प्रस्ताव वाकई बसपा प्रमुख व मुख्यमंत्री मायावती का सियासी धमाका है। 75 जिलों और 18 मंडलों की करीब बीस करोड़ आबादी पूर्वांचल, बंुदेलखड, अवध और पष्चिमांचल के सियासी खानों में बंटेगी। थोड़ी खुषी, थोड़े गम के तर्ज पर वृहत्तर उत्तरप्रदेष के बरअक्स यह सियासी दहषत है। अगर ऐसा हुआ तो ‘दिल्ली की राह लखनऊ होकर गुजरती है’ जैसी उक्तियां बेमतलब हो जायेगी। विभाजन के वे सारे तर्क तब बेमानी होंगे जब जनाकांक्षाओं पर जननायक खरे नहीं उतरेंगे। बतौर उदाहरण उत्तराखंड और झारखंड सामने हैं।
गौर करने लायक यह भी होगा कि पूर्वांचल का पड़ोसी बिहार भी चार टुकड़ों में बंटे इन राज्यों से आबादी और क्षेत्रफल में दोगुना होगा। विभाजित राज्यों के जिम्मे मोटे तौर 15 से 20 जिले और 3 से 5 मंडलें आयेंगे। 20 करोड़ आबादी भी 4 से 6 करोड़ में विभाजित होगी। भौगोलिक विभाजन संसाधनों के नए संकट पैदा करेंगे। जल, जमीन और जंगल के साथ ही उद्योग-धंधे, बिजली,कल-कारखाने,खान-खनिज की विषमता भी पैदा होगी। भौतिक संसाधन जुटाने का नया बखेड़ा खड़ा होगा। राजधानी प्रक्षेत्र की आपाधापी और आग्रह-दुराग्रह भी सामने आयेगा। सियासी फसाद और वर्चस्व की जंग में जनाकांक्षाएं पीछे छुटेंगी।
बिहार की सीमा से सटे 24 जिलों को अलग पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग होती रही हैं। इनमें अमूमन वे जिले षामिल हैं जहां पूर्वी या भोजपुरी बोली जाती है। मसलन वाराणसी, गोरखपुर, आजमगढ़,देवरिया और बस्ती आदि जिले होंगे। राजधानी को लेकर वाराणसी और गोरखपुर में सियासी टकराव संभावित है। इसी प्रकार बंुदेलखंड में झांसी, महोबा, बांदा, हमीरपुर, ललितपुर और जालौन आदि जिलों के साथ 3 मंडल आयेंगे। देवीपाटन, फैजाबाद, इलाहाबाद,लखनऊ और कानपुर मंडल अवध प्रदेष के अन्तर्गत होंगे। आगरा, अलीगढ़, मेरठ और सहारनपुर का इलाका पष्चिमांचल यानी हरित प्रदेष के अंग हांेगे।
राजनीतिक नफे-नुकसान का आकलन षुरू हो चुका है। सियासत की चाल में कमोबेष सभी राजनीतिक पार्टियां उलझ सी गयी हैं। विभाजन के प्रस्ताव के समर्थन और विरोध का सियासी नाटक जारी है। बसपा की कोषिष जहां विभाजन के विरोधियों को विकासरोधी करार देने की है वहीं सपा और भाजपा इसे चुनावी स्टंट करार देकर मायावती की नीति और नीयत पर ही सवाल उठा रही हैं। मायावती भी अच्छी तरह इस बात से वाकिफ है कि कैबिनेट या विधान सभा में प्रस्ताव पास कर देने मात्र से ही राज्य का विभाजन और पुनर्गठन नहीं हो जायेगा। विधान सभा से प्रस्ताव पारित होने की कोई संवैधानिक बाध्यता भी नहीं है। इसमें असली खेल तो केन्द्र सरकार का है। इसके बावजूद केन्द्र पर दबाव बनाने के बहाने ऐन चुनाव के मौके पर मायावती ने जिस षातिराना अंदाज में एक ऐसा मुद्दा उछाल दिया है जो सभी के लिए परेषानी का सबब है। फिलवक्त सभी दलों की कोषिष इस दांव के काट तैयार करने की है। ऐन चुनाव में भले ही मायावती के इस षगूफे की हवा निकल जाए और भ्रष्टाचार,अपराध,महंगाई जैसे मुद्दे हाबी हो जाए, मगर चुनाव और चुनाव के बाद भी अलग राज्य को लेकर राजनीति गरमाती रहेगी।

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