Saturday, December 31, 2011

उत्तर प्रदेश में परिसीमन से बढ़ी प्रत्याशियों की परेशानी

परिसीमन के बाद हो रहे पहले विधानसभा चुनाव के चलते उत्तर प्रदेश की कई पार्टियों के दिग्गजों की सियासी कर्मभूमि बदल गई है। जिससे इस बार उन्हें दूसरे निर्वाचन क्षेत्रों की ओर रुख करना पड़ा है। परिसीमन की वजह से विधान सभा क्षेत्रों के भूगोल में हुए बदलाव से सभी दलों की परेशानियां बढ़ गयी हैं। कई निवर्तमान विधायकों को जहां अपनी पुरानी सीटों को छोड़कर किसी नये क्षेत्र की शरण में जाना पड़ा है वहीं कई की सीट ही समाप्त हो गयी हैं। इसके साथ नवसृजित विधान सभा सीटों में वोटों के समीकरणों में भी भारी उलटफेर हुआ है। वोटों के जातीय समीकरण बदलने से भी प्रत्याशियों की परेशानी बढ़ी हुई है।
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही अब तक देवरिया की कसया सीट से अपनी किस्मत आजमाते रहे हैं लेकिन नए परिसीमन में उनके पुराने निर्वाचन क्षेत्र का वजूद ही समाप्त हो गया है। भाजपा ने शाही को जिले की नई सीट पथरदेवा से मैदान में उतारा है। नई सीट पर नए जातीय समीकरण ने शाही की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। ठीक इसी प्रकार कांग्रेस के दिग्गज नेता अम्मार रिजवी परम्परागत रूप से सीतापुर की महमूदाबाद सीट के बजाय नई विधानसभा सीट सेवता से ताल ठोंक रहे हैं। विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर चार बार विधानसभा और एक बार विधान परिषद का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। परिसीमन में उनकी आजमगढ़ की लालगंज सीट सुरक्षित हो गई है। वह अपने लिए नया ठिकाना ढूंढ रहे हैं। दीदारगंज सीट से उनके चुनाव लडऩे की सम्भावना जताई जा रही है।

कुछ ऐसा ही हाल पांच बार विधायक और तीन बार सांसद रहे मित्रसेन यादव का है। फैजाबाद की मिल्कीपुर सीट से उन्होंने अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था। वह इस सीट से पहली बार विधायक चुने गए थे। विधानसभा के लिए हमेशा वह इसी सीट से लड़े। वह दो बार इस सीट से हारे भी लेकिन सीट नहीं बदली। पर इस बार उनको मिल्कीपुर को अलविदा कहना पड़ गया क्योंकि यह सीट आरक्षित हो गई है। मजबूरन उन्हें बीकापुर सीट का रुख करना पड़ा है।
बसपा के कई मंत्रियों को भी परिसीमन की वजह से अपना इलाका बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा है। संसदीय कार्य, वित्त, चिकित्सा, शिक्षा आदि महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे लालजी वर्मा अम्बेडकरनगर की टांडा सीट से चुने जाते रहे हैं लेकिन पांचवी बार विधानसभा में पहुंचने के लिए उन्हें नई सीट की दरकार है। परिसीमन में उनकी सीट भी बदल गई है।
ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय हाथरस से चुनाव लड़ते रहे हैं लेकिन इस बार परिसीमन में उनकी सीट सुरक्षित हो गई है, इसलिए वह नया ठिकाना तलाश रहे हैं। गोरखपुर की पनियारा विधानसभा सीट वन मंत्री फतेहबहादुर सिंह की परम्परागत सीट रही है। यहां से उनके पिता स्वर्गीय वीर बहादुर सिंह भी चुनाव लड़ते थे। परिसीमन में पनियारा विधानसभा सीट का भूगोल बदल जाने के कारण अब वह कैम्पियरगंज से चुनाव लडऩे को तैयार हैं। नगर विकास मत्री नकुल दुबे की महोना विधानसभा सीट का परिसीमन में वजूद समाप्त हो गया है इसलिए वह इस बार बक्शी का तालाब से किस्मत आजमाएंगे।
इन प्रमुख मंत्रियों के अलावा समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अशोक वाजपेयी अब पिहानी सीट की बजाय हरदोई की सवायजपुर सीट से, विधानसभा में पार्टी के मुख्य सचेतक अम्बिका चौधरी कोपाचीट के स्थान पर फेफना से और प्रदेश के महासचिव एवं पूर्व मंत्री ओमप्रकाश सिंह दिलदारनगर की बजाय अब जमानिया सीट से अपनी किस्मत आजमाएंगे।

प्रदेश अध्यक्षों की भी होगी अग्निपरीक्षा


सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के साथ-साथ उनके प्रदेश अध्यक्षों की भी अग्निपरीक्षा होगी। उनके सामने अपने दल को बढ़त दिलाने और दलीय प्रत्याशियों की जीत के लिए चुनाव प्रचार करने के साथ-साथ खुद का चुनावी मैदान जीतने की भी चुनौती है।
पिछले कुछ सालों की राजनीति में यह पहला मौका है जब समाजवादी पार्टी को छोड़ कर अन्य सभी राजनीतिक दलों के प्रदेश अध्यक्ष चुनाव मैदान में ताल ठोकेंगे। विधानसभा चुनाव में केवल उनके दल की ही नहीं बल्कि उनकी लोकप्रियता की भी मतदाताओं की कसौटी पर परीक्षा होगी। दल को अगर चुनावी कामयाबी मिलती है तो पार्टी पर उनकी पकड़ और मजबूत होगी,वरना चुनाव बाद उन्हें अपने ही दल में विरोध का सामना करना भी पड़ सकता है।
कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी जहां लखनऊ कैंट सीट से चुनाव लड़ रही हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही देवरिया की पथरदेवा सीट से इस बार अपनी किस्मत अजमा रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी  के प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य कुशीनगर की पडरौना सीट से व राष्ट्रीय लोक दल के प्रदेश अध्यक्ष बाबा हरदेव सिंह आगरा की एत्मादपुर सीट से जबकि पीस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अब्दुल मन्नान बलरामपुर की उतरौला सीट से चुनावी मैदान में होंगे।
समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। वह कन्नौज से सांसद हैं। सपा पदाधिकारियों का कहना है कि वह विधानसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशियों को जीत दिलाकर सपा की सरकार बनाने के महत्वाकांक्षी अभियान में लगे हैं। वह भले ही खुद चुनाव नहीं लड़ रहे हैं मगर अपने प्रत्याशियों को जीताने की गुरुत्तर जिम्मेवारी उनके कंधों पर हैं। दूसरी ओर बिहार में सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में स्थापित जनता दल युनाइटेड की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष सुरेश निरंजन भैया का बुंदेलखंड की किसी सीट से और इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष कालीचरण सोनकर का इलाहाबाद जनपद की किसी सीट से चुनाव लडऩा लगभग तय बताया जा रहा है।
राजनीतिक दलों के प्रदेश अध्यक्षों ने चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद जहां अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में अपनी धमक बढ़ा दी वहीं सूबे के अलग-अलग क्षेत्रों में अपने दलीय प्रत्याशियों के पक्ष में चुनाव प्रचार भी शुरू कर दिया है। सात चरणों मेंं होने वाले चुनाव के मद्ïदेनजर कमोबेश सभी दलों के प्रदेश अध्यक्षों ने अपने-अपने क्षेत्रों के साथ ही अन्य क्षेत्रोंं के लिए भी अपने कार्यक्रम को अंतिम रूप देना शुरू कर दिया हैं। इसके अलावा प्रदेश अध्यक्षों को अपने राष्टï्रीय नेताओं के कार्यक्रमों और चुनावी सभाओं की सफलता की जिम्मेवारी का भी निर्वाह करना पड़ेगा। बड़े दलों के प्रदेश अध्यक्षों को थोड़ी सहुलियत भी है कि उनके यहां स्टार प्रचारकों की भरमार है, मगर छोटे दलों की दुशवारियां कुछ अलग तरह की है।
ऐसे मेंं यह माना जा रहा है कि सभी दलों केप्रदेश अध्यक्षों को दोहरी जिम्मेवारी का निर्वाह करना पड़ेगा। एक ओर जहां उन्हें अपने क्षेत्र के मतदाताओं को समय देना होगा वहीं पूरे प्रदेश के चुनाव पर भी उन्हें नजर रखनी होगी।

Wednesday, December 28, 2011

पश्चिम में बसपा पस्त,सपा मस्त

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समूचे रूहेलखंड में इस बार बसपा की मुश्किलें बढ़ी हुई हैं। राज्य विधानसभा चुनाव के पहले चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रूहेलखंड की 60 सीटों पर आगामी चार फरवरी को मतदान होगा। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में अव्वल रही सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी और नम्बर दो पर रही समाजवादी पार्टी ने आगामी चुनाव के लिये बाकायदा प्रचार और जनसंपर्क शुरू कर दिया है जबकि भारतीय जनता पार्टी,जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस-राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन ने भी कमर कस ली है। बसपा जो पिछले चुनाव में इस क्षेत्र में अव्वल रही थी,इस बार उसके लिए स्थितियां यहां काफी बदल गयी है। परिसीमन की वजह से क्षेत्रों के नये स्वरूप के साथ ही कांग्रेस-रालोद के गठबंधन की वजह से भी वोटों के समीकरण बदले हैं। सपा की सक्रियता और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के अभियान की वजह से वोट बैंकों के नए सिरे से बनने-बिगडऩे की संभावना व्यक्त की जा रही है। बदले चुनावी समीकरण की वजह से कई सीटों पर जहां मुकाबले रोचक होने का अनुमान है वहीं चुनाव परिणाम भी पिछले चुनाव से अलग होने की संभावना जतायी जा रही है। माना जा रहा है कि पिछले चुनाव में रूहेलखंड से 27 सीटें जीतने वाली बसपा की राह आसान नहीं है और उसको इस बार खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। वहीं सपा के हौसलें बुलंद हैं।
बसपा और सपा ने राज्य विधानसभा के आगामी चुनाव के पहले चरण की अधिसंख्य सीटों के लिये अपने उम्मीदवारों के नाम घोषित कर दिये हैं। घोषित प्रत्याशी ऊहापोह और टिकट रहने-कटने की तमाम आशंकाओं के बावजूद अपनी सक्रियता बरकरार रखे हुए हैं। वहीं दूसरी ओर भाजपा को 32 और कांग्रेस-रालोद गठबंधन को 30 सीटों पर अभी अपनी उम्मीदवारी तय करनी है। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस के संभावित उम्मीदवारों की धमाचौकड़ी क्षेत्र में जरूर शुरू है,मगर सपा, बसपा की तुलना में उनका चुनाव प्रचार अभियान जोर नहीं पकड़ पाया है। प्रदेश की अन्य क्षेत्रीय और छोटी पार्टियां भी इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए बेताब है। उनके नेताओं और प्रत्याशियों की बैठकें और प्रचार अभियान भी जारी है। कई क्षेत्रीय दल मजबूत और दमखम वाले प्रत्याशियों की तलाश में जुटे हैं ताकि मैदान में उनकी उपस्थिति दर्ज हो।
वर्ष 2007 के चुनाव में इन नौ जिलों में से मुरादाबाद मंडल के बिजनौर जिले के तहत आने वाली सभी सात सीटों पर बसपा ने जीत हासिल की थी। केन्द्रीय मंत्री चौधरी अजित ङ्क्षसह की अगुवाई वाले राष्ट्रीय लोकदल को तब इन नौ जिलों में एक भी सीट नहीं मिली थी। इस बार भले ही वे कांग्रेस से गलबहिया कर चुनाव मैदान में उतरे हैं, मगर उनके दल के पक्ष में क्षेत्र में कोई माहौल बनता नहीं दिख रहा है। इस बार भी रालोद इन क्षेत्रों में सिफर ही रहे तो कोई आश्चर्य नहीं। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी के अभियान के बावजूद पश्चिमी प्रदेश के इन इलाकों में कांग्रेस की हवा बनती नहीं दिख रही है। पिछड़ों और मुसलमानों के गठजोड़ से सपा के हौसले इस बार इन क्षेत्रों में बुलंद दिख रहे हैं। भाजपा प्रत्याशियों को लेकर बनी असमंजस की स्थिति से भाजपा को नुकसान हो रहा है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले चरण में बरेली और  मुरादाबाद मंडलों तथा लखनऊ  मंडल के लखीमपुर खीरी जिले की 26-26 एवं लखनऊ  मंडल के लखीमपुर खीरी जिले की आठ सीटों के लिए मतदान होगा। नये परिसीमन से पहले वर्ष 2007 में हुये उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान बरेली मंडल के तहत आने वाले बदायूं, शाहजहांपुर, बरेली और पीलीभीत तथा मुरादाबाद मंडल के तहत आने वाले रामपुर,मुरादाबाद, जे.पी.नगर और बिजनौर जिले तथा लखनउ मंडल के लखीमपुर खीरी समेत नौ जिलों में राज्य विधानसभा की 57 सीटें थीं, इनमें से बसपा को 27, सपा को 17, भाजपा  को 09, डी.पी.यादव के राष्ट्रीय परिवर्तन दल को दो तथा कांग्रेस एवं अन्य को एक एक सीट मिली थी। नए परिसीमन के बाद बिजनौर,जेपीनगर,रामपुर और लखीमपुर में एक-एक सीट बढ़ी है जबकि दूसरी ओर शाहजहांपुर में एक सीट कम हुई है।

Monday, December 26, 2011

पूर्वांचल में होगी बसपा की असली अग्निपरीक्षा

चुनाव की घोषणा के साथ ही पूर्वी उत्तर प्रदेश का राजनीतिक तापमान चढऩे लगा है। आंकड़ों के लिहाज से पूर्वी उत्तर प्रदेश का पिछला चुनाव परिणाम बसपा में पक्षा में था। यहां की कुल 177 सीटों में से 97 सीटों पर बसपा ने तब कब्जा जमाया था। हाल की राजनीतिक स्थितियों और बनते-बिगड़ते चुनावी समीकरणों में अगर बसपा अपनी विगत की स्थिति को बरकरार नहीं रखती है तो सबसे ज्यादा नुकसान भी उसे पूर्वांचल में ही उठाना पड़ सकता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि पूर्वांचल में ही इस बार बसपा की कड़ी अग्निपरीक्षा होने वाली है।
राज्य बंटवारे का दांव चल कर बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस क्षेत्र की दीर्घ लम्बित मांग को हवा देने की कोशिश जरूर की मगर इस चुनाव में उन्हें इसका कितना लाभ मिल पायेगा, यह कहना अभी कठिन है। मुख्यमंत्री मायावती द्वारा पूर्वांचल सहित चार अलग राज्य बनाने और उत्तर प्रदेश के विभाजन का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा गया था। केन्द्र सरकार ने प्रस्ताव पर कुछ सवाल उठाये हैं मगर इस प्रस्ताव से पैदा हुयी राजनीतिक आग की आंच से सभी राजनीतिक दल प्रभावित हैं। लोकमंच के नेता तो इसे अपनी आरम्भिक जीत बता कर श्रेय लेने की होड़ में जुट गए हैं और उनकी योजना है कि विधान सभा चुनाव में पूर्वांचल विरोधियों की करारी पराजय हो। अमर ङ्क्षसह ने इस मुद्दे को पूर्वांचल के विकास से जोड़ कर यह कहना शुरू कर दिया है कि बिजली पूर्वी उत्तर प्रदेश पैदा करे और रोशनी बादलपुर और सैफई में हो। पूर्वांचल की उपेक्षा अब बर्दाश्त नहीं की जायेगी।
उल्लेखनीय है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिध्दार्थनगर जिले के इटावा विधान सभा के कांग्रेसी विधायक ईश्वर चन्द शुक्ला ने सबसे पहले पूर्वांचल को अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव विधान सभा में बहस के लिए पेश किया था मगर कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा राज्य सरकार के उत्तर प्रदेश विभाजन के प्रस्ताव को लौटा देने के बाद कांग्रेस के हाथ से यह मुद्ïदा निकल गया। वैसे कांग्रेस फिलवक्त इस मुद्ïदे न तो विरोध और न समर्थन की रणनीति अख्तियार की हुई है। बसपा सुप्रीमो इस मुद्ïदे को इस चुनाव में पूरी तरह कैश करना चाहती थीं मगर केन्द्र के रवैये से उनकी मंशा पूरी होती नहीं दिख रही है। इस अंचल के छोटे राजनीतिक दल पीस पार्टी,उलेमा कौंसिल और अमर ङ्क्षसह के नेतृत्व वाली लोकमंच के अलावा भारत समाज पार्टी जैसे दलों की ओर से पूर्वांचल के विकास और वर्तमान सरकार में होती रही उपेक्षा को मुद्ïदा बना कर उछालने से बड़े दलों के समक्ष परेशानी पैदा हो सकती है।
यदि वर्ष 2007 में हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव को आधार बनाया जाय तो पूर्वांचल की 177 सीटों में से बसपा को 97 सीटे मिली थी यानि बसपा को पूरे प्रदेश से मिली कुल 206 सीटों में 47 प्रतिशत हिस्सेदारी पूर्वांचल की थी। पूर्वांचलवासियों के बीच एक चर्चा यह भी है कि पूर्वांचल से मिली इतनी बड़ी सफलता के बावजूद बसपा सुप्रीमो यहां के विकास को लेकर उदासीन बनी रहीं और एक तरह से यहां के लोग उपेक्षित ही रहे।
यह भी दीगर है कि वर्तमान चुनाव में बसपा अपनी 97 सीट में से एक भी सीट खोना नहीं चाहेगी। वर्ष 2007 के चुनाव में पूर्वांचल में  सपा 44, भाजपा 19 और कांग्रेस को मात्र सात सीटें प्राप्त हुई थीं। इस तरह बसपा अगर पूर्वांचलवासियों को अपने पक्ष में करने में सफल नहीं हो पाती है तो सर्वाधिक नुकसान भी उसे ही उठाना पड़ेगा।
वर्ष 2002 के चुनाव में भी बसपा को इतनी कामयाबी नहीं मिली थीं जितनी इस क्षेत्र में वर्ष 2007 में मिली।       उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव वर्ष 2002 में बसपा को कुल 98 सीटें ही मिली थी और सपा को 143 सीटें मिली थी जबकि भाजपा को 88 और कांग्रेस को कुल 25 सीटें मिली थीं। पूर्वांचल के मुद्दे पर इस अंचल की 177 सीटों पर आरम्भिक रूप से बसपा को ज्यादा जूझना होगा। यह अलग बात है कि यह पहला अवसर है जब सत्ता में रहते हुए बसपा चुनाव मैदान में होगी और उसे सत्ता विरोधी लहर का सामना करना होगा। इसके साथ ही सर्वाधिक विधायक जीता कर देने वाले पूर्वांचल की उपेक्षा और विकासहीनता के सवाल भी होंगे।

Friday, December 23, 2011

मुसलमानों के साथ छल कर रही हैं मायावती

ऑल इंडिया मुस्लिम फोरम के संस्थापक व विधिवेत्ता डा. नेहालुद्दीन अहमद का मानना है कि पिछड़े मुसलमानों के आरक्षण को लेकर केन्द्र सरकार के साथ ही उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी छल कर रही हैं। उन्होंने  कहा कि कांग्रेस और बसपा प्रमुख मायावती की ओर से आगामी चुनाव के मद्ïदेनजर लाभ लेने के लिए पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने के नाम पर राजनीतिक बाजीगरी की जा रही है। इससे मुसलमानों को सचेत रहने की जरूरत है। भाजपा के संग बार-बार गठजोड़ करने वाली मायावती भरोसे लायक नहीं है। पिछड़े मुसलमानों की पीड़ा को सबसे पहले ऑल इंडिया मुस्लिम फोरम ने ही 1994 में उठाया था। तब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ही थीं। फोरम की मांग पर सहमति जताते हुए उन्होंने लखनऊ में हुई अपनी एक रैली में मुस्लिमों को आरक्षण देने की घोषणा भी कर दी। मगर बाद में अपनी ही घोषणा से भाजपा के दबाव पर पलटी मार गयी। तब फोरम ने मुख्यमंत्री मायावती के होर्डिंग और पोस्टरों को कालिख पोतना शुरू किया। फोरम के आंदोलन से घबड़ा कर मायावती ने दमनात्मक कार्रवाई शुरू की और उनके सहित फोरम के अन्य नेताओंं को गिरफï्तार करवा लिया। मगर बाद में जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मुस्लिम फोरम द्वारा सुझाये फार्मूला को स्वीकार किया और पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण लागू किया। उसके बाद प्रदेश में पिछड़े मुसलमानों को सरकारी सेवाओं में 7 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलने लगा,जिसे बाद में आबादी के आधार पर बढ़ा कर 8.44 फीसदी किया गया।

उन्होंने कहा कि उस समय उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी के आधार पर मुस्लिम फोरम की मांग थी कि पिछड़ों के लिए मंडल कमीशन के आधार पर निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण में से 8.44 प्रतिशत पिछड़े मुसलमानों के लिए तय किया जाए। इस मांग को लेकर 17 अक्तूबर 1994 को ऑल इंडिया मुस्लिम फोरम ने लखनऊ में एक कन्वेंशन का आयोजन भी किया था जिसमें उस समय के कई प्रमुख मुस्लिम नेताओं मसलन पश्चिम बंगाल के मंत्री कलीमुद्ïदीन,पर्सनल लॉ बोर्ड के मुजाहिदुल इस्लाम कासमी,अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एम आर खुसरो तथा पत्रकार कुलदीप नैय्यर आदि ने भाग लिया। डा. नेहालुद्दीन के अनुसार तब वहां जुटे अधिसंख्य लोगों ने पिछड़े मुसलमानोंं के लिए आरक्षण का विरोध किया था। मगर बाद में 1997 में फोरम की इस मांग को पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने जहां अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया वहीं सीपीएम के अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने उत्तर प्रदेश में इसका समर्थन किया।
डा. नेहालुद्ïदीन ने कहा कि दक्षिण के कई राज्यों में पिछड़े मुसलमानों की आबादी के आधार पर अलग-अलग प्रतिशत में आरक्षण के प्रावधान किए गए है। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल और बिहार में भी नीतीश कुमार की सरकार ने कोटा विथ इन कोटा के तहत ही पांच प्रतिशत आरक्षण पिछड़े मुसलमानों को दिया गया है। इन राज्यों में पिछड़े मुसलमानों को इसका लाभ भी मिल रहा है।
फिलवक्त केन्द्र सरकार द्वारा पिछड़ों के लिए निर्धारित कोटा के अन्तर्गत ही अल्पसंख्यकों के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान से संबंधित कैबिनेट से पास प्रस्ताव  को डा. नेहालुद्दीन ने मुस्लिमों के साथ धोखा बताया। उन्होंने कहा कि आगामी महीनों में देश के पांच राज्यों मेंं होने वाले विधान सभा चुनावों मेंं लाभ लेने की मंशा से की गयी यह कार्रवाई है। पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण की जगह अल्पसंख्यकोंं के लिए किए जा रहे इस प्रावधान से मुसलमानों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। मुसलमान एक बार फिर ठगे जा रहे हैं। ठीक इसी तरह पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण का कोटा बढ़ाने की मांग कर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी चुनावी चाल चल रही हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि यह संविधान संशोधन के बिना संभव नहीं है। ऐसी मांग कर वह एक बार फिर प्रदेश के मुसलमानों को भ्रमित करना चाह रही है। मगर मुसलमानों को सचेत रहने की जरूरत है। किसी झांसे में आने की जगह उन्हें आगामी चुनाव में अपने मतों का प्रयोग सोच समझ कर करना चाहिए,ताकि ऐसी सरकार यहां बने जो उनके हितों का ख्याल रखे।

HE BAHMAN...:

CHAURAHA:

CHAURAHA

CHAURAHA

Thursday, December 22, 2011

सत्ता के उन्माद में फला-फूला भ्रष्टाचार

बीमारू प्रदेश की सूची में शामिल उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने का नारा भी कभी उछाला गया था। राजनीतिक दलों ने इस नारे केआधार पर जनता को गोलबंद करने का प्रयास  किया। अविकास और पिछड़ेपन से परेशान देश की सबसे बड़ी आबादी वाले इस प्रदेश में तब बदलाव और विकास की छटपटाहट देखी गयी। मगर जातीय राजनीति के भड़काऊ नारे में सब कुछ उलझ कर रह गया। दलित चेतना के उभार के बाद सर्वजन के लुभावने नारे के साथ बहुमत की सरकार बनाने वाली माया सरकार से प्रारंभिक दिनों में उम्मीदें तो जगी मगर सत्ता रूपी हाथी की मदमस्त चाल ने शुरुआती दिनों से ही जनता की उम्मीदों और भरोसे को कुचलना शुरू कर दिया। घोटालों और वित्तीय अनियमितताओं के भंवर में विकास के सपने दम तोडऩे लगे। तब सत्ता के उन्माद में ही भ्रष्टïाचार फलने-फूलने लगा जो अब चुनावी मौके पर सरकार के गले की हड्ïडी बन गया है,जिसे निगलना या उगलना मुख्यमंत्री मायावती के लिए आसान नहीं है।
ऐसे में यही कहा जा सकता है कि सत्ता के गुरूर में उत्तर प्रदेश की चिंता न तो जनता के भरोसे को जीत कर सत्तासीन हुई बसपा प्रमुख मायावती को रही और न ही उनके हुक्मरानों को। जनता को इसका अहसास थोड़े दिन बाद ही हो गया मगर जनता के वोट से चुने गये नेताओं पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। सत्ता से बेदखल हुई मुख्य प्रतिपक्षी दल की भूमिका निबाह रही सपा जनता के इन्हीं सवालों को लेकर जब सड़कों पर उतरी तो उसे कोरा राजनीति बताते हुए कुचलने का प्रयास किया गया। मगर राजनीति के इस धींगामुश्ती में प्रदेश हर क्षेत्र में लगातार पिछड़ता चला गया। उत्तर प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचारमुक्त शासन के दावे की कलई नियंत्रक महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में ही परत दर परत खुल गयी थी। बाद के दिनों में भ्रष्टïाचार के किस्से सरेआम हुए तो लोकायुक्त और कोर्ट की सक्रियता भी सामने आयीं। शुरू में ही सीएजी का आरोप था कि मायावती सरकार ने भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किए है जिससे कि राजस्व हानि पर अंकुश लगाया जा सके। इसके साथ ही तब सीएजी ने सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर भी उंगली उठाई थी। दरअसल तब चेतने का समय था। मगर राजनीति के भूलभुलैया में सीएजी की रिपोर्ट और उसके जरिए उठाये गए मुद्ïदों को दबा दिया गया।  सीएजी ने मुख्यमंत्री के चहेते स्मारक स्थलों के खर्च में अनियमितता से सरकारी खजाने को करोड़ों रुपये की चपत लगने का भी खुलासा किया था। बाद के दिनों में उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसे स्मारकों और पार्कों पर की गयी फिजूलखर्जी पर टिप्पणी की थी।
विपक्षी राजनीतिक दलों ने सीएजी की रिपोर्ट पर मुहर लगाते हुए कहा था कि इस रिपोर्ट ने प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचार की पोल खोल दी है। 13 मई 2007 को सूबे में मुख्यमंत्री मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। सरकार ने दावा किया था कि उत्तर प्रदेश को उनकी सरकार भ्रष्टाचारमुक्त शासन देगी लेकिन बीते साढ़े चार सालों में राज्य में सबसे अधिक भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए हैं और इसी के आधार पर आज यह टिप्पणी भी की जाती है कि मौजूदा सरकार देश की भ्रष्टïतम सरकारों में से एक है। आज बसपा सरकार के लिए भ्रष्टाचार का मुद्ïदा गले की हड्डी बन गया है तो वही विपक्ष के लिए वरदान भी। भ्रष्टाचार की शिकायत के कारण मुख्यमंत्री मायावती को कई मंत्रियों को हटाना पड़ा तो विपक्षी दलों ने इसी मुद्दे को लेकर विधानसभा के विगत के विभिन्न सत्रों में ही नहीं बल्कि सड़कों और अब अपनी चुनावी सभाओं में भी सरकार पर करारा हमले कर रहे हैं।  गौर करे कि तब सीएजी ने अपनी रिपेार्ट में उल्लिखित किया था कि प्रदेश सरकार विभिन्न वित्तीय नियमों और प्रविधियों के पालन में अनियमितताएं बरत रही हैं जिससे वित्तीय घोटाले और गबन की संभावनाएं बढ़ गयी है। तब सरकार ने सीएजी की रिपोर्ट पर सचेत होकर कोई कार्रवाई नहीं की और एक तरह से उसकी मनमानी जारी रही। आज भी सरकार के पास सीएजी द्वारा उठाये गए सैकड़ों मामलों की जांच और कार्रवाई लंबित हैं। इन्हीं लापरवाहियों की वजह से सरकार को वित्तीय राजस्व का भारी भरकम नुकसान भी उठाना पड़ा और उसके कई मंत्रियों को कार्यकाल के बीच में ही पदच्यूत होना पड़ा है।  वित्तीय वर्ष 2009-10 के दौरान सरकार ने 18 फीसदी अधिक राजस्व पारित किया था, सीएजी ने सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर उंगली उठाते हुए कहा था कि निर्धारित खर्चें में से 168216 करोड़ रुपए अधिक खर्च किए गये। साल के अंतिम माह में बजट का अधिक खर्च किए जाने को सीएजी ने वित्तीय प्रबंधन में गंभीर खामी करार दिया था। सीएजी ने सरकार से कहा था कि वह सभी महकमों के बजट की प्रक्रिया को तथा अपने अनुत्पादक व्ययों में कटौती कर अपने व्यय पैटर्न को सुदढ़ करें। मगर सरकार को इसकी सुधि कहां रही।
सीएजी ने कई सरकारी विभागों में खामियां पाई थीं।  पशुपालन विभाग की अनेक खामियां उजागर भी की थीं।  सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह था कि विभाग का पशु जैविय औषधि संस्थान बिना लाइसेंस के संचालित हो रहा था जो अपराध है। दूसरी ओर पशु चिकित्सा अधिकारियों तथा पशुधन प्रसार अधिकारियों की कमी के कारण 77 पशु चिकित्सालय और पशु सेवा केंद्र संचालित नहीं  पाए गए थे जिनके बजट का कुल व्यय का 44 से 83 प्रतिशत वित्तीय वर्ष के अंतिम माह मार्च में खर्च किए गये थे। इसके अलावा भारत सरकार से मिली संपूर्ण धनराशि राज्य सरकार ने अवमुक्त भी नहीं की थी। 9.05 करोड़ रुपये खातों में अनियमिति रूप से रखे गये थे। सीएजी के अनुसार लोक निर्माण विभाग का आंतरिक नियंत्रण कमजोर था। सड़कों के चौड़ीकरण एवं सुदृढ़ीकरण पर 68.63 करोड़ रुपये बेवजह खर्च किए गये थे। राज्य सड़क निधि का संचालन न होने के कारण 998.41 करोड़ रुपये अप्रैल 2005 से अप्रयुक्त पड़ा था। आवासीय, गैर आवासी भवनों की मरम्मत पर 9.27 करोड़ रुपये का अनियमित व्यय किया गया था, जबकि स्वीकृतियों के अधीन न आने वाले मदों पर 11.15 करोड़ रुपए का व्यय किया गया था। कंप्यूटराइज्ड डेटा बैंक तथा प्रबंधन सूचना प्रणाली के अभाव में सड़कों का चयन संदेहास्पद था। रिपोर्ट में कहा गया था कि नगरीय स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के नाम पर अधिकारियों द्वारा मनमानी की गई है। यहां तक कि पांच ट्रामा सेंटरों के बनने से पहले ही इसके उपकरण क्रय कर लिए गये थे। एंटी रेबीज टीकों की खरीद में क्रय नीति का पालन न करने से 3.60 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भुगतान हुआ था। 2007-09 के बीच सात नवसृजित जिलों औरैया, बागपत, बलरामपुर, कौशांबी, संत कबीरनगर, संत रविदास नगर और श्रावस्ती में सौ शैया वाले अस्पतालों के निर्माण का निर्णय लिया गया था लेकिन नवंबर 2010 तक इनके 15 से लेकर 65  प्रतिशत तक कार्य अपूर्ण थे जबकि कार्यदायी संस्था को इस बाबत 88.55 करोड़ रुपये जारी किये जा चुके थे।  इसी तरह सात जिलों में चीरघरों के निर्माण की तिथि निर्धारित किए बिना ही 1.03 करोड़ रुपये की स्वीकृति प्रदान कर दी गयी थी इनमें औरैया, कुशीनगर और संत कबीरनगर में भूमि विवाद के कारण निर्माण कार्य प्रारंभ नहीं हुआ था तथा बाल एवं क्षय रोग चिकित्सालयों के निर्माण में भूमि सुनिश्चित किए बिना ही लखनऊ और गोरखपुर में कार्यदायी संस्था के निजी खाते क्रमश:12 करोड़ और पांच करोड़ रुपये डाल दिए गये थे जो दो साल से अधिक समय तक अनुप्रयुक्त रही।
सीएजी की रिपोर्ट  आने के बाद एकबार फिर मायावती सरकार पर विपक्ष ने हमले तेज किए। सीएजी रिपोर्ट के आधार पर माया सरकार को घेरते हुए तब भाजपा विधान परिषद सदस्य हृदय नारायण दीक्षित ने कहा था कि एक तरह से सीएजी ने विपक्ष द्वारा लगाए गये बसपा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों की पुष्टि कर दी हैं। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह यादव ने भी कहा था कि सीएजी रिपोर्ट से उत्तर प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचार की पोल खुल गई है। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है जो भ्रष्टïाचार से अछूता हो। अब यह देखना होगा कि विपक्षी दल भ्रष्टïाचार के इस मुद्ïदे को किस हद तक चुनावी धार दे पाते है।

Wednesday, December 21, 2011

सर्वजन हिताय की सरकार में गरीबों की हकमारी

उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा के आम चुनाव वैसे तो हमेशा ही पूरे देश के लिए उत्सुकता का विषय बने रहते हैं परंतु इस बार खासतौर पर पूरे देश की नजर टिकी हुई है। इसके कई कारण हैं। विगत चुनाव यानी 2007 में  बहुजन समाज पार्टी अपने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी तथा इन दिनों अकेले दम पर अपना कार्यकाल पूरा कर रही है। लिहाजा देश की नजर इस बात पर है कि बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की बात करने वाली बसपा तथा उसकी नेता एवं प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अपने उपरोक्त नारों पर अमल कर पाने में कहां तक खरी उतर पाई हैं। दूसरी ओर यह भी देखने की बात है कि बहुजन हिताय की बात करते-करते सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय का नारा उछालने का उन्हें लाभ हुआ है या नुकसान। दरअसल इसका आकलन भी चुनाव परिणाम आने के बाद ही होगा।
नायाब सोशल इंजीनियरिंग की चुनावी सफलता के बाद सत्ता में सवर्णों की हिस्सेदारी का ढोल पिटा गया। यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि वाकई यह सर्वजन हिताय की सरकार है। मगर जिस तरह से सरकारी योजनाओं में लूट-खसोट हुई है, उससे निश्चित तौर पर गरीबों और जरूरतमंदों की हकमारी हुई है। मनरेगा मेंं बरती गयी अनियमितता या फिर एनआरएचएम के सैकड़ों करोड़ की राशि की लूट-खसोट शासन के तमाम दावे की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। बुंदेलखंड पैकेज की भारी भरकम राशि की बंदरबांट को लेकर भी सरकार की किरकिरी होती रही है। वहां के सैकड़ों किसानों द्वारा की गई आत्महत्याएं और उनके परिजनों की बदहाली की भले ही राष्टï्रीय स्तर पर चर्चा होती रही हो, मगर प्रदेश की मुख्यमंत्री अमूमन इन सब बातों से अनजान बनी रहीं।
सत्ता के बदले समीकरण में मायावती शुरुआत में जितनी ताकतवर बन कर उभरी,कार्यकाल का अन्त आते-आते उतनी ही कमजोर साबित होने लगी। एक-एक कर मंत्रिमंडल की एक चौथाई से ज्यादा मंत्री भ्रष्टïचार के आरोपों में घिरते गये और लोकायुक्त तथा कोर्ट के आदेशों के बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाता रहा। मुख्यमंत्री के करीबी और मंत्रिपरिषद में दूसरे नम्बर पर गिने जाने वाले बाबू सिंह कुशवाहा से लेकर नसीमुद्ïदीन सिद्ïदीकी तक भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिरे और इससे न केवल सत्ता संरक्षित भ्रष्टïाचार का खुलासा हुआ बल्कि स्वयं सत्ता के शीर्ष पर बैठी मुख्यमंत्री भी आरोपों के घेरे में आईं। विपक्ष का वार लगातार जारी रहा। कांग्रेस,भाजपा और सपा का सीधा सा आरोप रहा कि कि मुख्यमंत्री के संरक्षण में ही करोड़ों के घोटाले होते रहे और वह मूकदर्शक बनी रहीं।
मायावती के बरअक्स प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का भ्रष्टïाचार के बाबत तर्क थोड़ी देर के लिए ग्राह्यï भी है कि गठबंधन की मजबूरियों की वजह से उन्हें अपने कथित भ्रष्टïाचारी मंत्रियों पर कार्रवाई करने में देरी हुई। मगर मायावती तो एकल और पूर्ण बहुमत की सरकार की मुखिया हैं। इनके साथ ऐसी कौन सी मजबूरी रही कि सैकड़ों-हजारों करोड़ की लूट होती रही और वह मूक बनी रहीं। इस बाबत उनका यह तर्क भी स्वीकारने लायक नहीं है कि ज्यों ही उन्हें अपने मंत्रियों के भ्रष्टïाचार की जानकारी मिलीं, उन्हें मंत्रिमंडल से निकाल बाहर किया।
यह एक यक्ष सवाल है। बहुमत के गुमान में तानाशाही प्रवृति का पनपना संभव है। मगर यह भी एक हकीकत है कि सत्ता का पट्ट जनता सिर्फ पांच वर्षों के लिए ही देती है। पांच साल बाद जनता फिर हिसाब भी लेती है। जनता के पास भले ही कैग और सीएजी जैसी कोई अडिटिंग सिस्टम नहीं है या फिर आईबी, सीबीआई जैसी कोई जांच एजेंसी भी नहीं है, मगर उसकी नजरों से बचना आसान नहीं है। विपक्ष केआरोपों और मीडिया की टिप्पणियों को झूठला भी दें तो जनता को धोखा देना आसान नहीं है। आमतौर पर राजनेताओं को यह भ्रम होता है कि जनता तो बेचारी और विवश है,चुनाव के मौके पर उसे झांसा देकर बच जायेंगे। मगर जनता को बेवकूफ समझने वालों की सत्ता खिसकते भी देर नहीं लगती है। दरअसल भ्रष्टïचार से सर्वाधिक प्रभावित वह गरीब,बेबस जनता ही होती है जो चुनाव के मौके पर मतदाता की पहचान पाती है और जिसके सामने सत्ता के दावेदार हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते हैं। शहरों में उगी आलीशान कोठियां,चमचमाती गाडिय़ां, मंत्रियों और राजनेताओं के ठाट-बाट,रियल एस्टेट और सैकड़ों फर्जी कम्पनियों में हजारों करोड़ के निवेश आम जनता और गरीबों की हकमारी करके ही संभव हैं। ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि जनता इन सब बातों से अनजान हैं। फर्श से अर्श तक के राजनेताओं की सफर की कहानियों से जनता आजीज आ चुकी हैं।
इस बार यूपी की जनता भी तमाम राजनीतिक समीकरणों और जोड़-तोड़ के बावजूद हालात बदलने को बेताब दिख रही हैं। सत्तारूढ़ बसपा पिछली बार की अपनी सोशल इंजीनियरिंग को इस बार भी कारगर हथियार बनाने की फिराक में है। ब्राह्मïण और दलित सम्मेलन के बाद क्षत्रिय,वैश्य और अल्पसंख्यक सम्मेलन का आयोजन इसी जुगत में रहा। मगर एक बात बसपा प्रमुख को भी गांठ बांध लेनी चाहिए कि मतदाताओं को बार-बार थोथे नारे और आश्वासनों से छला नहीं जा सकता है। हालांकि तीन तीन बार भाजपा से मिलकर सरकार बनाने वाली मायावती ने मुसलमानों को खुद से कब का दूर कर लिया था। फिर भी अब उन्हें मुसलमानों की चिन्ता सता रही हैं। विगत चुनाव में वोटों के नए समीकरण के तहत दलितों के साथ सवर्ण जुड़े तो एक ऐसा ठोस वोट बैंक बन गया जिसके बल पर बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गयी। मगर यहां एक बात बसपा भूल रही है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। जो गैर दलित वोट पिछले चुनाव में बसपा को मिला था वह सपा के कथित जंगल राज से तंग आकर ऐंटी इन्कम्बैंसी फैक्टर की वजह से था। यह इधर उधर होने वाला वोट किसी एक पार्टी या नेता के साथ चिपका नहीं रहता बल्कि हवा का रूख देखकर चुनाव के ऐन मौके पर ही फैसला करता है। प्रदेश में कानून व्यवस्था के नाम पर जंगलराज सपा के अंतिम दौर से भी अधिक कायम हो जाने, नरेगा और केंद्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं में व्यापक भ्रष्टाचार होने, थाने नीलाम होने, खुद बसपा मंत्रियों और विधायकों के गंभीर आरोपों में फसने, जनता की गाढ़ी कमाई के अरबों रुपये पार्कों और स्मारकों पर खर्च करने, किसानों की खेती की जमीन औने-पौने दामों में जबरन अधिग्रहित करने, अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों में मोटी कमाई करने, पुलिस द्वारा फर्जी एनकाउंटरों में यूपी के सबसे अधिक बेकसूरों के मारे जाने के मानव अधिकार आयोग के गंभीर आंकड़ों आदि के बाद बसपा को सत्ता में एक बार फिर लौटने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिये।



बसपा को भारी पड़ेगा दलितों में बिखराव और ब्राह्मïणों का बिदकना


ब्राह्मणों का एक बड़ा तबका बसपा से बिदक चुका है। बसपा प्रमुख मायावती भी फिलवक्त दलितों और ब्राह्मणों को लेकर पसोपेश की स्थिति में हैं। वह विचलित हैं कि 66 खानों में बंटे दलित जहां बिखर रहे हैं वहीं ब्राह्मण समाज भी बसपा का साथ छोड़कर अपना नया ठिकाना तलाश रहा है। यह हकीकत है कि ब्राह्मणों का बसपा से मोहभंग हो गया है। ब्राह्मणों के साथ ही बसपा को विगत चुनाव में साथ देने वाले अन्य सवर्ण जातियां भी अपने को छली-ठगी हुई सी महसूस कर रही हैं। मायावती की ओर से सामाजिक भाईचारे के नाम पर पिछले महीने आयोजित ब्राह्मïण सम्मेलन हो या 18 दिसम्बर को आयोजित वैश्य,क्षत्रिय और मुस्लिम सम्मेलन, इनमें जुटी भीड़ में दलित ही हाबी रहें। यही नहीं अब दलितों का एक बड़ा वर्ग भी बसपा से मुंह मोड़ रहा है। इसकी वजह बसपा के कार्यकर्ताओं और विधायकों के बीच बढ़ती दूरी है। हालत यह है विधायक अपनी जाति के खोल से बाहर नहीं निकल पर रहे हैं और इसको लेकर बसपा के कार्यकर्ता भी अब अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं। गैरबिरादरी के बसपा कार्यकर्ताओं के साथ क्षेत्रीय विधायक आमतौर पर टरकाऊ रवैया अपनाये रहते हैं।
मायावती ने अपनी पार्टी में सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला लागू करके वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल की थी। इससे पहले मायावती सिर्फ अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग की नेता थीं और अगड़ी जाति के लोगों और पार्टियों को वह मनुवादी कहती थीं। उनके तिलक, तराज़ू और तलवार... जैसे तीखे नारे बसपा के बैनरों पर लिखे और सभाओं में गूंजते सुनाई पड़ते थे। अपनी तीखी आलोचना के कारण ही वह अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग में बेहद लोकप्रिय हो गई थीं। वर्ष 1995, 1997 और 2002 में भाजपा और सपा के साथ चुनाव के बाद के गठबंधन में उन्हें मुख्यमंत्री बनने के तीन बार अवसर मिले। मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती को महसूस हुआ कि जब तक सर्वसमाज के लोगों की भागीदारी उनकी पार्टी में नहीं होगी तब तक उन्हें अकेले दम पर सरकार बनाने वाला पूर्ण बहुमत नहीं मिल सकता। एक सत्य यह भी था कि सत्ता में बैठे अधिकारीगण भी सर्वजातियों से थे, इसलिए उनकी योजनाओं के कार्यान्वयन में अगड़ी जाति के कई अधिकारी बाधक बन जाते थे। इस पर मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला लागू किया और अगड़ी जाति के लोगों को पार्टी में प्रवेश के साथ महत्व देना भी शुरू किया। इस फार्मूले को लागू करने में उन्होंने नीचे से लेकर ऊपर तक फेरबदल करके पार्टी का विस्तार किया और पार्टी का चेहरा ऐसा बनाया कि सबको दिखाई दे कि बहुजन समाज पार्टी में सही मायने में सर्वसमाज प्रतिष्ठापित है। बसपा सुप्रीमो ने इसी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के तहत पार्टी में मुसलमानों को भी तरजीह देने की कोशिश की। 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से सबसे ज़्यादा 20 ब्राह्मणों को प्रत्याशी बनाया गया था, 14 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी खड़े किए गए थे, प्रदेश की 80 में से 17 सीटें संवैधानिक व्यवस्था के तहत पहले से ही अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए सुरक्षित थीं। बसपा ने छह महिलाओं को भी लोकसभा चुनाव में उतारा था। सभी राजनीतिक दलों ने सभी जाति और वर्ग के लोगों के लिए अपनी पार्टी के दरवाजे खोल रखे थे। हालांकि कांग्रेस को ब्राह्मण समाज, वाल्मीकि समाज, आंशिक रूप से मुस्लिम और क्षत्रिय समाज की पार्टी माना जाता रहा है। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी को वैश्य समाज, कट्टर हिंदूवादी मानसिकता वाले समाज, आदिवासी समाज,  समतावादी पार्टी बसपा को अनुसूचित वर्ग की पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल को जाट समाज की पार्टी, समाजवादी पार्टी को यादव और मुस्लिम समाज की पार्टी माना जाता रहा है। 2007 के विधान सभा चुनाव के मद्ïदेनजर सर्व समाज को जोडऩे की राजनीतिक दृष्टि से मायावती की एक सार्थक पहल थी। इसका पूरे प्रदेश में सर्वत्र स्वागत हुआ और 2007 के चुनाव में जो परिणाम सामने आए उसने बहुजन समाज पार्टी को विधानसभा में पूर्ण बहुमत दे दिया था। बहुजन समाज पार्टी में लागू हुए सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले का नुकसान कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी को उठाना पड़ा था। भारी संख्या में ब्राह्मण, मुसलमान और पिछड़े वर्ग के लोग जो कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी से जुड़े हुए थे, टूटकर बहुजन समाज पार्टी में चले गए थे। मगर, इन सबके बावजूद बहुजन समाज पार्टी के ऊपरी ढांचा में ही बदलाव दिखा, संगठन में आंतरिक रूप से अनुसूचित जाति के लोगों का ही दखल कायम रहा है। सर्व समाज के नाम पर सवर्णों को पार्टी और सरकार में दिए गये महत्व सेे पार्टी से जुड़े पिछड़े, दलितों  में काफी समय तक असंतोष भी फैला रहा। कई बार उनकी यह पीड़ा पार्टी सुप्रीमो तक पहुंचाई गई पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
अब उत्तर प्रदेश का किला फतह करने के लिए 125 वर्ष पुरानी कांग्रेस ने अपने युवराज राहुल गांधी को चुनाव मैदान में उतारा है। श्री गांधी उत्तर प्रदेश में कई दौर के जनसम्पर्क अभियान चला चुके हैं। पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों के प्रति उनकी सहानुभूति से मायावती परेशान है। मायावती को यह अच्छी तरह से मालूम है कि उनकी असली चुनावी जंग यहां कांग्रेस से नहीं बल्कि सपा से होने वाली है, इसके बावजूद वह राहुल गांधी से जुबानी जंग कर लड़ाई को छोटे दायरे में समेटने की बार-बार कोशिश करती रही हैं। कांग्रेस से मायावती को एक भय जरूर सता रहा है कि कहीं कांग्रेस उनके दलित वोट बैंक में सेंधमारी न कर लें। इसके पीछे वजह राहुल गांधी के अभियान के साथ ही अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा.पी.एल.पुनिया के उत्तर प्रदेश में किए गए प्रयास को भी बताया जा रहा है। दूसरी ओर प्रदेश के कतिपय प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवारों के हाल ही में कांग्रेस के साथ फिर से खड़े होने की सूचना भी बसपा सुप्रीमो के लिए परेशानी का सबब है।  इटावा, एटा, मैनपुरी, फतेहपुर और कानपुर देहात ब्राह्मणों की पट्टी के रूप में जाना जाता है। कांग्रेस अब कन्नौज को केंद्र में रखकर ब्राह्मणों को नए सिरे से जोडऩे की मुहिम चलाने जा रही है। कांग्रेस अगर इसमें सफल रहती है तो इसका सीधा नुकसान बसपा को ही होगा।
बताया जाता है कि बसपा में सतीश मिश्र की भी अब स्थिति पहले जैसी नहीं रही। कुछ समय पहले मायावती ने दलितों को संदेश देने के लिए सतीश मिश्र को हाशिये पर धकेला था। पिछले महीने हुए ब्राह्मïण समाज के सम्मेलन में एक बार फिर श्री मिश्र को सक्रिय किया गया। इस सम्मेलन में मायावती ने सतीश मिश्रा और उनके परिवार को सर्वाधिक महत्व दिये जाने पर अपनी लम्बी-चौड़ी सफाई भी पेश की थी। जानकारों की मानें तो सतीश मिश्रा और उनके परिजनोंं को अन्य ब्राह्मण नेताओं को दरकिनार कर महत्व दिये जाने को लेकर ब्राह्मïणों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। भाजपा ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है। भाजपा के कथित आरोप के अनुसार विभिन्न फर्जी कम्पनियों में निवेशित दस हजार करोड़ से ज्यादा के काले धन में सतीश मिश्रा के परिजन भी हिस्सेदार हैं।
कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग में जुटे एक नेता का कहना है कि आजादी से काफी पहले से प्रदेश के ढाई सौ से अधिक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार जो कांग्रेस से जुड़े हुए थे और किन्हीं कारणों से उन्होंने पार्टी से मुंह मोड़ लिया था अब फिर से कांग्रेस के साथ जुड़ रहे हैं। बुंदेलखंड, रुहेलखंड, अवध और पूर्वांचल में यही ब्राह्मण बिरादरी कभी कांग्रेस की रीढ़ रही थी। अन्य कई विश्लेषकों का भी मानना है कि इस बार प्रदेश में समीकरण बदलते नजर आ रहे हैं। विधानसभा चुनाव का ऊंट किस करवट बैठेगा यह बहुत कुछ बदले हालात और जातीय समीकरण पर ही निर्भर करेगा। वैसे बसपा को पटखनी देने में जुटी सपा भी यादवों और मुसलमानों के साथ ही अन्य पिछड़े वर्ग के वोटरोंं को भी गोलबंद करने में लगी हुई हैं। ऐसे में दलितों में बिखराव और ब्राह्मणों का बिदकना बसपा के लिए  भारी पड़ सकता है।

Monday, November 28, 2011

यूपी भाजपा विश्वास के भंवर में


उत्तर प्रदेश में भाजपा विश्वास के सियासी भंवर में फंसी हुई है। आपसी अन्तरकलह, विश्वसनीय नेतृत्व का अभाव, मुद्ïदाहीनता आदि के साथ ही भाजपा को यहां अपनी पिछली गलतियों का खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। पिछली गलतियां ऐसी कि उसका भूत पीछा छोडऩे के लिए तैयार नहीं है। भाजपा का प्रदेश और केन्द्रीय नेतृत्व भले ही चीख-चीख कर यह कह रहे हैं कि इस बार वह किसी भी कीमत पर बसपा का साथ नहीं देंगे और न ही मायावती को मुख्यमंत्री बनाने में उनकी कोई भूमिका होगी। मगर आम मतदाता इससे मानने के लिए तैयार नहीं है। आगामी विधान सभा चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा इसी विश्वास के संकट से जूझना होगा। 
यूपी में भाजपा का  यह संकट कुछ वैसा ही है जैसा कि पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में कांग्रेस का रहा। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी के तूफानी बिहार दौरे और चुनाव प्रचार के बावजूद कांग्रेस दहाई अंक भी नहीं पा सकी। 243 सीटों पर अकेले चुनाव लडऩे वाली कांग्रेस को मात्र चार सीट से ही संतोष करना पड़ा था। दरअसल कांग्रेस की इस दुर्गति के पीछे भरोसे का ही संकट रहा। आम वोटरों को कांग्रेस यह विश्वास दिलाने में विफल रही कि चुनाव के बाद वह लालू प्रसाद यादव के राजद और रामविलास पासवान की लोजपा से गलबहियां नहीं करेगी। तब बिहार में जहां नीतीश के विकास की हवा बह रही थी वहीं लालू प्रसाद यादव के फिर सत्तासीन होने का डर भी लोगों को सता रहा था।
वैसे ठीक एक साल पहले हुए लोकसभा चुनाव 2009 मेंं ही कांग्रेस ने राजद-लोजपा का दामन छोड़ कर खुद के पैर पर खड़ा होने की दिखावटी कोशिश की थी। मगर विधान सभा चुनाव 2010 में कांग्रेस के लाख इनकार के बावजूद जनता यह मानने के लिए तैयार नहीं हुई कि चुनाव के बाद कांग्रेस पलटी नहीं मारेगी। इसके पीछे वजह रही कि साल 1991 से ही कांग्रेस किसी न किसी रूप में लालू-राबड़ी सरकार में सहभागी रही। 2000 मेंं बनी राबड़ी देवी की सरकार में तो कांग्रेस के 21 विधायक मंत्री पद पाकर सत्तासुख भोगते रहे।
तब आम लोगों की समझ में सत्ता समीकरण की ऐसी कोई कसौटी भी नहीं थी जिस पर कांग्रेस के वायदे को परखने का जोखिम उठाया जा सके। दूसरी ओर कांग्रेस का सत्ताभोगी चरित्र भी लोगों को यह भरोसा नहीं दे सका कि अगर वह सरकार बनाने के जादूई आंकड़े को नहीं हासिल कर पाती है तो जिम्मेवार विपक्ष की भूमिका निभायेगी।
ठीक ऐसी ही कुछ स्थिति यूपी भाजपा की भी है। भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी हो या फिर प्रदेश भाजपा के कद्ïदावर नेता राजनाथ सिंह, सभी ने यह भरोसा जरूर दिया है कि इस बार भाजपा पिछली गलतियों को दोहरायेगी नहीं और अगर सरकार नहीं बना पाई तो खुशी-खुशी विपक्ष की भूमिका निबाहेगी। मगर जनता भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है। वाजिब वजह भी है। राजनीति में कोई संन्यासियों नहीं, सत्तालोभियों की जमात होती है। अंकों के खेल में सत्ता लोभ का संवरण आसान नहीं होता। यूपी की तरह ही झारखंड में भी भाजपा ने अपने इसी चरित्र का बार-बार परिचय दिया है। दूसरी तरफ विकल्प भी क्या है? लाख टके का सवाल है कि क्या भाजपा कभी कांग्रेस और सपा के साथ भी जा सकती है? सपाट सा उत्तर है, कतई नहीं। फिर बसपा के साथ जाने के अलावा बचता ही क्या है? फिर ऐसे में बसपा सरकार से ऊबी जनता भाजपा का क्यों साथ देगी? दरअसल यह विश्वास का ही संकट है जो सवालों के शक्ल में उभर रहा है।

Saturday, November 26, 2011

माया सरकार में मंत्री दागी,अफसर बागी


 पिछले साढ़े चार साल में मायावती सरकार की निराली कार्यषैली का ही नतीजा है कि आज जहां उनकी सरकार के 17 मंत्री लोकायुक्त के जांच के घेरे में हैं वहीं भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों में ही मं़ित्रमंडल के कई मंत्रियों को निकाल बाहर किया गया है। इसी प्रकार सरकार की कार्य संस्कृति पर ही असंतोष जताते हुए ही कई अफसरों ने भी बगावती तेवर अख्तियार किए हैं।
लोकायुक्त की जांच के घेरे में आये ज्यादातर मंत्री भयभीत हैं। भय स्वाभाविक भी है। पिछले दिनों लोकायुक्त ने जिस तरह से मंत्रियों के भ्रष्टाचार और आय से अधिक यानी नाजायज सम्पत्ति अर्जित करने के मामले की जांच की है और उसी के आधार पर कई माननीयों को पैदल होना पड़ा है,उसके बाद अन्य आरोपितों में भी भय पैदा हुआ है। मालूम हो कि लोकायुक्त की जांच पर ही रंगनाथ मिश्र, अवध पाल सिंह, राजेष त्रिपाठी,बाबू सिंह कुषवहा और बदषाह सिंह जैसों को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी है। इनमें एनआरएचएम घोटाले के आरोपित बाबू सिंह कुषवाहा  सीबीआई जांच के दायरे में भी है। फिलवक्त अयोध्या प्रसाद पाल, रामवीर उपाध्याय, राकेषघर त्रिपाठी, रतनलाल अहिरवार, चौधरी लक्ष्मी नारायण, दद्दू प्रसाद, फतेह बहादुर सिंह, फागू चौहान, सदल प्रसाद, स्वामी प्रसाद मौर्य,नारायण सिंह, राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, अब्दुल मन्नान और चन्द्रदेव राम यादव की जांच लोकायुक्त के पास लम्बित है। हाल ही में माया मंत्रिमंडल के सदस्य जयवीर सिंह और विनोद सिंह की षिकायतें भी पहुंची हैं जिसके आधार पर जांच षुरू की गयी है।

कई वर्तमान और निवर्तमान विधायकों की जांच भी लोकायुक्त के यहां चल रही है। इनमें आनन्द कुमार पाण्डेय, अषोक राणा, हरेराम सिंह, ओम प्रकाष सिंह, भगेलू राम, त्रिभुवन दत्त, अब्दुल हन्नान, रिजवान अहमद खां,विषम्भर प्रसाद निषाद, राधेष्याम जायसवाल,जगेन्द्र स्वरूप, महेष चन्द्र और आदित्य पाण्डेय आदि प्रमुख हैं। जांच के घेरे में पूर्व विधायक इन्द्रदेव सिंह और अरिमर्दन सिंह भी हैं। मंत्रियों और विधायकों में से कई की जांच अन्तिम चरण में है। जांच पूरी कर लोकायुक्त आने वाले दिनों में कार्रवाई के लिए रिपोर्ट दे सकते हैं। विधान सभा चुनाव के मद्देनजर कई के लिए लोकायुक्त की रिपोर्ट परेषानी पैदा करने वाली हो सकती है। आरोपों की गंभीरता के आधार पर सवाल केवल कुर्सी गंवाने का नहीं बल्कि सलाखों के पीछे जाने का भी है। जनता के हक और सार्वजनिक धन की बटमारी करने वालों की अंतिम परिणति पर आम लोगों की भी नजर लगी हुई है।
सुरसा की मुंह की तरह विकराल होते भ्रष्टाचार और लूट-खसोट के इस दौर में अफसरों का बागी तेवर भी चिन्ता पैदा करता है। डीआईजी डी डी मिश्रा के गंभीर आरोपों से भले ही षासन ने उन्हंे मानसिक रूप से अस्वस्थ बताकर पला झाड़ लिया मगर हाल ही में जिस तरह से आइपीएस अमिताभ ठाकुर ने तेवर दिखाये हैं, वह षासन के अंदरखाने में पनपी विकृतियों को दर्षाने के लिए काफी है। तब डीआईजी मिश्रा ने फायर सर्विसेज में हुई गड़बड़ियों को उजागर करने की कोषिष की तो उन्हें जबरिया मानसिक रोग अस्पताल में भर्ती करा दिया गया और अब आइपीएस अमिताभ ठाकुर ने षासन के ही दो आलाधिकारियों प्रमुख सचिव गृह कुंवर फतेह बहादुर और सचिव मुख्यमंत्री विजय सिंह पर प्रताड़ित करने का आरोप लगाया है। मंत्री के संरक्षण में लूट का आरोप लगाते हुए जिला उद्यान अधिकारी चन्द्र भूषण पाण्डेय ने भी बगावती तेवर अख्तियार किया है। उनका आरोप है कि पिछले चार सालों में किसानों को बांटी जाने वाली सब्सिडी की दो सौ करोड़ रुपये की बंदरबांट कर ली गयी है। निष्चित तौर पर सरकार इन अधिकारियों के आरोपों के बाबत लीपापोती करेगी,मगर उन सवालों पर गौर करना भी लाजिमी होगा जिसे वे उठा रहे हैं।



Monday, November 21, 2011

विभाजन के दांव की हकीकत


‘दिल्ली का दिल’ और सियासी ताकत की पचहान रखने वाले उत्तर प्रदे का चार टुकड़ों में बांटने का प्रस्ताव वाकई बसपा प्रमुख व मुख्यमंत्री मायावती का सियासी धमाका है। 75 जिलों और 18 मंडलों की करीब बीस करोड़ आबादी पूर्वांचल, बंुदेलखड, अवध और पष्चिमांचल के सियासी खानों में बंटेगी। थोड़ी खुषी, थोड़े गम के तर्ज पर वृहत्तर उत्तरप्रदेष के बरअक्स यह सियासी दहषत है। अगर ऐसा हुआ तो ‘दिल्ली की राह लखनऊ होकर गुजरती है’ जैसी उक्तियां बेमतलब हो जायेगी। विभाजन के वे सारे तर्क तब बेमानी होंगे जब जनाकांक्षाओं पर जननायक खरे नहीं उतरेंगे। बतौर उदाहरण उत्तराखंड और झारखंड सामने हैं।
गौर करने लायक यह भी होगा कि पूर्वांचल का पड़ोसी बिहार भी चार टुकड़ों में बंटे इन राज्यों से आबादी और क्षेत्रफल में दोगुना होगा। विभाजित राज्यों के जिम्मे मोटे तौर 15 से 20 जिले और 3 से 5 मंडलें आयेंगे। 20 करोड़ आबादी भी 4 से 6 करोड़ में विभाजित होगी। भौगोलिक विभाजन संसाधनों के नए संकट पैदा करेंगे। जल, जमीन और जंगल के साथ ही उद्योग-धंधे, बिजली,कल-कारखाने,खान-खनिज की विषमता भी पैदा होगी। भौतिक संसाधन जुटाने का नया बखेड़ा खड़ा होगा। राजधानी प्रक्षेत्र की आपाधापी और आग्रह-दुराग्रह भी सामने आयेगा। सियासी फसाद और वर्चस्व की जंग में जनाकांक्षाएं पीछे छुटेंगी।
बिहार की सीमा से सटे 24 जिलों को अलग पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग होती रही हैं। इनमें अमूमन वे जिले षामिल हैं जहां पूर्वी या भोजपुरी बोली जाती है। मसलन वाराणसी, गोरखपुर, आजमगढ़,देवरिया और बस्ती आदि जिले होंगे। राजधानी को लेकर वाराणसी और गोरखपुर में सियासी टकराव संभावित है। इसी प्रकार बंुदेलखंड में झांसी, महोबा, बांदा, हमीरपुर, ललितपुर और जालौन आदि जिलों के साथ 3 मंडल आयेंगे। देवीपाटन, फैजाबाद, इलाहाबाद,लखनऊ और कानपुर मंडल अवध प्रदेष के अन्तर्गत होंगे। आगरा, अलीगढ़, मेरठ और सहारनपुर का इलाका पष्चिमांचल यानी हरित प्रदेष के अंग हांेगे।
राजनीतिक नफे-नुकसान का आकलन षुरू हो चुका है। सियासत की चाल में कमोबेष सभी राजनीतिक पार्टियां उलझ सी गयी हैं। विभाजन के प्रस्ताव के समर्थन और विरोध का सियासी नाटक जारी है। बसपा की कोषिष जहां विभाजन के विरोधियों को विकासरोधी करार देने की है वहीं सपा और भाजपा इसे चुनावी स्टंट करार देकर मायावती की नीति और नीयत पर ही सवाल उठा रही हैं। मायावती भी अच्छी तरह इस बात से वाकिफ है कि कैबिनेट या विधान सभा में प्रस्ताव पास कर देने मात्र से ही राज्य का विभाजन और पुनर्गठन नहीं हो जायेगा। विधान सभा से प्रस्ताव पारित होने की कोई संवैधानिक बाध्यता भी नहीं है। इसमें असली खेल तो केन्द्र सरकार का है। इसके बावजूद केन्द्र पर दबाव बनाने के बहाने ऐन चुनाव के मौके पर मायावती ने जिस षातिराना अंदाज में एक ऐसा मुद्दा उछाल दिया है जो सभी के लिए परेषानी का सबब है। फिलवक्त सभी दलों की कोषिष इस दांव के काट तैयार करने की है। ऐन चुनाव में भले ही मायावती के इस षगूफे की हवा निकल जाए और भ्रष्टाचार,अपराध,महंगाई जैसे मुद्दे हाबी हो जाए, मगर चुनाव और चुनाव के बाद भी अलग राज्य को लेकर राजनीति गरमाती रहेगी।

Friday, November 4, 2011

महंगाई पर ममता नहीं


पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी से संप्रग के कुनबे में भड़की आग बुझाने में कांग्रेस के पसीने छूट रहे हैं। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की संप्रग से बाहर जाने की धमकी और दूसरे सहयोगियों के बगावती तेवरों से उपजे सियासी संकट ने कांग्रेस को भी अपनी ही सरकार पर 'रोल बैक' का दबाव बनाने के लिए मजबूर कर दिया है।
ममता के सुर में संप्रग के दूसरे सहयोगियों का सुर मिलने के बाद कांग्रेस ने भी मूल्य वृद्धि पर अपने सहयोगियों की भावनाओं का समर्थन कर उनका गुस्सा ठंडा करने की कोशिश की है। साथ ही डीजल और रसोई गैस के दाम न बढ़ाने को आम आदमी के प्रति अपनी संवेदनशीलता के रूप में पेश कर सबका गुस्सा ठंडा करने की कोशिश भी की है। कांग्रेस ने अपनी ही सरकार से इस मसले पर हर कदम उठाने की अपील की है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री की वापसी से पहले ममता बनर्जी से भी रुख और ज्यादा सख्त न करने के लिए बातचीत शुरू कर दी है। इस कड़ी में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने तृणमूल के वरिष्ठ नेता मुकुल राय से भी बातचीत की तो वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा कोलकाता में तृणमूल सुप्रीमो से मिले। कांग्रेस ने पहले ही ममता बनर्जी की भावनाओं से सहमति जताकर अपनी सरकार से आम आदमी को राहत देने का आग्रह किया है।
कांग्रेस के मीडिया विभाग के चेयरमैन एवं महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि 'कंपनियां दाम बढ़ा रही हैं, यह लोगों को समझाना मुश्किल है। आखिर कंपनियों को भी यह अधिकार सरकार ने दिए हैं। सरकार चलाने के तौर-तरीके और प्रशासन की मजबूरियों को हम समझ रहे हैं। लेकिन इससे निजात दिलाने के लिए सरकार को कुछ कदम तो अवश्य उठाने चाहिए।' रोलबैक या फिर करों में कमी के सवाल को वह टाल गए और कहा कि 'जो भी कदम संभव हो वह उठाए जाएं।'
कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने ममता की धमकी पर कुछ नहीं कहा, लेकिन यह माना कि दाम बढ़ने से सहयोगी दलों की चिंता से पार्टी भी सहमत है। वैसे भी ममता के समर्थन में द्रमुक खुलकर आगे आ गई। द्रमुक नेता टीआर बालू ने कहा कि यह आम आदमी की दिक्कतों से जुड़ा मुद्दा है और इसे संसद में जरूर उठाया जाएगा। इसी तरह एनसीपी और नेशनल कांफ्रेंस ने 16 माह में 11वीं पर पेट्रोल के दाम बढ़ाने को नाकाबिले बर्दाश्त बताया और कहा कि उनसे इस बारे में कभी विमर्श ही नहीं किया गया। नेशनल कांफ्रेंस अध्यक्ष डॉ फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि वह इस मसले को कैबिनेट की अगली बैठक में उठाएंगे। इसी तरह एनसीपी नेता तारिक अनवर ने महंगाई से राहत के लिए प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से तत्काल कदम उठाने को कहा।

Monday, October 17, 2011

बदले योजना आयोग की भूमिका


योजना आयोग की भूमिका को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अक्सर योजना आयोग की भूमिका पर सवाल उठाते रहे है। फिलवक्त भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने बदलते वक्त के अनुसार योजना आयोग की भूमिका में आमूल चूल बदलाव का आह्वान करते हुए कहा है कि आयोग को धन आवंटन का काम वित्तमंत्रालय पर छोड़ देना चाहिए और सरकार के निगरानी प्राधिकार के रूप में काम करना चाहिए। उन्होंने कहा कि मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की मांग के अनुसार योजना आयोग की भूमिका में भी बदलाव की जरूरत आन पड़ी है। सिन्हा 1998-2002 के दौरान वाजपेयी सरकार में वित्तमंत्री रहे हैं।
उन्होंने कहा कि योजना आयोग को दो काम करने चाहिए, एक तो वह अगले 50 साल के लिए देश में विकास के ढांचे की रूपरेखा तैयार करे और इस अवधि को 25-25 साल के दो खंड में तोड़कर पांच पांच साल की अवधि में बांट देना चाहिए। दूसरे, आयोग को केंद्र सरकार की एक निगरानी एजेंसी बन जाना चाहिए क्योंकि भारत सरकार के पास अपनी योजना के कार्यान्वयन पर निगरानी के लिए प्रभावी निगरानी तंत्र का सच में अभाव है। सिन्हा ने सुझाव दिया है कि राज्यों को योजना राशि आवंटन का काम वित्त मंत्रालय को सौंप देना चाहिए। उन्होंने कहा कि योजना आवंटन को वित्त मंत्रालय को सौंप देना चाहिए। यह काम उन्हें करना चाहिए और योजना आयोग को कार्यक्रम क्रियान्वयन की निगरानी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

Friday, October 14, 2011

कश्मीर भारत का अभिन्न अंग


इसमें कोई दो मत नहीं कि गांधीवादी अन्ना हजारे देशभक्त हैं।उन्होंने स्पष्ट किया है कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और उनके आंदोलन के सहयोगी प्रशांत भूषण के कश्मीर पर दिए बयान से वह सहमत नहीं हैं। इसके बावजूद भूषण उनके आंदोलन की कोर कमेटी के सदस्य रहेंगे। टीम अन्ना ने कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा बताने वाला बयान भी जारी किया है। अन्ना टीम की ओर से इस तरह कश्मीर को लेकर उठे विवाद को खत्म करने की कोशिश की गई है। इसका स्वागत होना चाहिए। 
अन्ना ने शुक्रवार को लिखित बयान जारी किया। बकौल अन्ना, 'प्रशांत भूषण ने जब कहा कि कश्मीर मामले पर जनता की राय जाननी चाहिए, तो यह उनका निजी मत है और हमारी टीम का इससे कोई लेना-देना नहीं है।' लेकिन इससे पहले इस मामले पर विवाद पैदा हो गया था, जब उन्होंने अपने गांव रालेगण सिद्धि में प्रेस कांफ्रेस के दौरान प्रशांत भूषण के संबंध में पूछे गए सवाल के जवाब में कह दिया था, 'ये आगे जा कर हम लोग तय करेंगे कि रखना है कि नहीं रखना है।'
इसके बाद अन्ना और उनकी टीम के सदस्य इस बयान से होने वाले नुकसान की भरपाई में जुट गए। उनकी प्रेस कांफ्रेंस के तुरंत बाद दिल्ली से सटे नोएडा में प्रशांत भूषण के घर में टीम अन्ना की कोर कमेटी के सदस्यों ने बैठक की। इस दौरान अन्ना से भी फोन पर बात की गई। इसके बाद कश्मीर पर एक लिखित बयान तैयार किया गया। कोर कमेटी के दूसरे सदस्यों की मौजूदगी में अरविंद केजरीवाल ने इसे पढ़ा। इसमें कहा गया है, 'कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। कश्मीर समस्या एक जटिल विषय है और इसका समाधान शांतिपूर्ण तरीके से और संविधान के दायरे में बातचीत के जरिए ही निकाला जा सकता है।' अन्ना टीम का यह बयान वाकई सराहनीय है। 

Saturday, October 8, 2011

एएमयू वीसी पर धोखाधड़ी का आरोप



 

 किशनगंज में एएमयू (अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) के आफ कैंपस सेंटर के लिए जमीन को ले विवाद पर राज्य सरकार आक्रामक मुद्रा में है। मानव संसाधन विकास मंत्री पीके शाही ने एएमयू के कुलपति प्रो.पीके अब्दुल अजीज पर राजनीति करने व सरकार के साथ धोखाधड़ी करने का आरोप जड़ते हुए भूमि प्रकरण में उनकी भूमिका की सीबीआई जांच की मांग की है। उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में वे जल्द केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल से भी मिलने वाले हैं।
श्री शाही ने पटना में बताया कि कुलपति ने भारत सरकार की स्वीकृति प्राप्त किये बिना एएमयू सेंटर के लिए जमीन वास्ते सरकार को प्रस्ताव दिया। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए प्रस्ताव को 13 दिनों के अंदर कैबिनेट ने स्वीकृति दी। उसके बाद सरकार ने कोचाधामन में 243 एकड़ जमीन भी चिह्नित किया जिस पर कुलपति ने अपनी रजामंदी भी दे दी। जब एकरारनामा करने को कहा गया तो वे पलट गये और दूसरी जमीन देने की मांग करने लगे,वो जमीन जो भूदान में दी हुई है और जिसका 70 फीसदी हिस्सा अफजल हुसैन के अवैध कब्जे में है। श्री हुसैन उक्त जमीन का दान नहीं कर रहे उसका मुआवजा चाहते हैं। सरकार ने 30 सितंबर 2011 को कुलपति को एक पत्र लिख कर सारा विवरण दिया है मगर उसका कुलपति ने अब तक जवाब नहीं दिया है।
उन्होंने कहा कि एएमयू के कुलपति प्रो.अजीज का कार्यकाल जनवरी 2012 में समाप्त हो रहा है, उनके खिलाफ कई आरोपों की सीबीआई जांच हो रही है। एएमयू के विजिटर (राष्ट्रपति) ने कुलपति के स्तर से नियुक्ति के अधिकार पर रोक लगा रखी है। लिहाजा किशनगंज जमीन मामले में कुलपति की संदेहास्पद भूमिका भी सीबीआई जांच का बिन्दु होना चाहिए। इसी मकसद से वे केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री से मिलना चाहते हैं। यह भी जानने की कोशिश की जायेगी कि बिहार में एएमयू सेंटर के लिए कुलपति ने विजिटर से स्वीकृति ले रखी है अथवा नहीं?

Thursday, October 6, 2011

लालू ने दी अन्ना को चुनाव लड़ने की चुनौती


गांधीवादी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के तहत बिहार में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के संसदीय क्षेत्र सारण में बीते 25 सितंबर से शुरू जन लोकपाल अभियान सर्वेक्षण को जनता का व्यापक समर्थन मिल रहा है। मगर इसी बीच राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने करप्शन के खिलाफ आंदोलन चला रहे गांधीवादी अन्ना हजारे को चुनाव लड़ने की चुनौती देते हुए कहा है कि देश में चुनाव किसी विचार, कार्य या योजना पर नहीं, बल्कि सिर्फ जातिवाद के आधार पर होता है। यादव ने उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था के बारे में कहा, 'जहां का मंत्री ही चोर साबित हो जाए वहां कानून-व्यवस्था का हाल क्या बयान करूं।
इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बिहार शाखा के संयोजक संजय कुमार दत्ता ने बताया कि संस्था के कार्यकर्ता लालू प्रसाद के संसदीय क्षेत्र सारण में गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले में जाकर सर्वेक्षण कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जन लोकपाल के समर्थन में लोग बढ़-चढ़कर सर्वे में भाग ले रहे हैं। जल्द ही सर्वे का काम पूरा कर लिया जाएगा और उसका परिणाम घोषित होगा।
यहां वयस्क मतदाताओं में अभी बड़ी संख्या में लोगों का जवाब है कि आगामी लोकसभा चुनाव में वे दुबारा वर्तमान जनप्रतिनिधि अगर जनलोकपाल को समर्थन नहीं करते हैं तो वोट नहीं देंगे। उल्लेखनीय है कि राजद सुप्रीमो ने भ्रष्टाचार के विरोध में अन्ना हजारे के आंदोलन और जनलोकपाल विधेयक का विरोध किया था। देश के अन्य कई प्रमुख संसदीय क्षेत्रों सहित बिहार के सारण और दरभंगा में भी सर्वे हो रहा है। दत्ता ने बताया कि भाजपा सांसद कीर्ति झा आजाद के दरभंगा संसदीय क्षेत्र में भी सर्वे हो रहा है। इसमें  और तेजी लाने के लिए अभियान चलाया जायेगा। 
श्री यादव ने कहा, 'अन्ना हजारे और उनकी टीम एक पार्टी बना ले और चुनाव लड़े, फिर देखे कि चुनाव क्या होता है। देश में वोटिंग सिर्फ जाति के आधार पर ही होता है कि किसी विचार, योजना अथवा काम पर। पूरे देश में चुनाव का आधार सिर्फ जातिवाद ही है।उन्होंने कहा, 'अन्ना हमारे बड़े हैं और वह खुद भी मानते हैं कि जनलोकपाल से सिर्फ 60 प्रतिशत भ्रष्टाचार ही रुक सकेगा, लेकिन बाकी 40 फीसद का क्या होगा। उसे कौन रोकेगा।फिर उन्होंने कहा, 'क्या भरोसा कि लोकपाल बनने वाला व्यक्ति ईमानदार ही हो। उसे कौन रोकेगा। देश की नस नस में भ्रष्टाचार भरा है उसे लोकपाल के जरिए नहीं हटाया जा सकता।संसद की स्थायी समिति के सदस्य यादव ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और कॉर्पोरेट घरानों को भी लोकपाल के दायरे में लाने पर समिति में चर्चा हुई है। '