Wednesday, December 21, 2011

बसपा को भारी पड़ेगा दलितों में बिखराव और ब्राह्मïणों का बिदकना


ब्राह्मणों का एक बड़ा तबका बसपा से बिदक चुका है। बसपा प्रमुख मायावती भी फिलवक्त दलितों और ब्राह्मणों को लेकर पसोपेश की स्थिति में हैं। वह विचलित हैं कि 66 खानों में बंटे दलित जहां बिखर रहे हैं वहीं ब्राह्मण समाज भी बसपा का साथ छोड़कर अपना नया ठिकाना तलाश रहा है। यह हकीकत है कि ब्राह्मणों का बसपा से मोहभंग हो गया है। ब्राह्मणों के साथ ही बसपा को विगत चुनाव में साथ देने वाले अन्य सवर्ण जातियां भी अपने को छली-ठगी हुई सी महसूस कर रही हैं। मायावती की ओर से सामाजिक भाईचारे के नाम पर पिछले महीने आयोजित ब्राह्मïण सम्मेलन हो या 18 दिसम्बर को आयोजित वैश्य,क्षत्रिय और मुस्लिम सम्मेलन, इनमें जुटी भीड़ में दलित ही हाबी रहें। यही नहीं अब दलितों का एक बड़ा वर्ग भी बसपा से मुंह मोड़ रहा है। इसकी वजह बसपा के कार्यकर्ताओं और विधायकों के बीच बढ़ती दूरी है। हालत यह है विधायक अपनी जाति के खोल से बाहर नहीं निकल पर रहे हैं और इसको लेकर बसपा के कार्यकर्ता भी अब अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं। गैरबिरादरी के बसपा कार्यकर्ताओं के साथ क्षेत्रीय विधायक आमतौर पर टरकाऊ रवैया अपनाये रहते हैं।
मायावती ने अपनी पार्टी में सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला लागू करके वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल की थी। इससे पहले मायावती सिर्फ अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग की नेता थीं और अगड़ी जाति के लोगों और पार्टियों को वह मनुवादी कहती थीं। उनके तिलक, तराज़ू और तलवार... जैसे तीखे नारे बसपा के बैनरों पर लिखे और सभाओं में गूंजते सुनाई पड़ते थे। अपनी तीखी आलोचना के कारण ही वह अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग में बेहद लोकप्रिय हो गई थीं। वर्ष 1995, 1997 और 2002 में भाजपा और सपा के साथ चुनाव के बाद के गठबंधन में उन्हें मुख्यमंत्री बनने के तीन बार अवसर मिले। मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती को महसूस हुआ कि जब तक सर्वसमाज के लोगों की भागीदारी उनकी पार्टी में नहीं होगी तब तक उन्हें अकेले दम पर सरकार बनाने वाला पूर्ण बहुमत नहीं मिल सकता। एक सत्य यह भी था कि सत्ता में बैठे अधिकारीगण भी सर्वजातियों से थे, इसलिए उनकी योजनाओं के कार्यान्वयन में अगड़ी जाति के कई अधिकारी बाधक बन जाते थे। इस पर मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला लागू किया और अगड़ी जाति के लोगों को पार्टी में प्रवेश के साथ महत्व देना भी शुरू किया। इस फार्मूले को लागू करने में उन्होंने नीचे से लेकर ऊपर तक फेरबदल करके पार्टी का विस्तार किया और पार्टी का चेहरा ऐसा बनाया कि सबको दिखाई दे कि बहुजन समाज पार्टी में सही मायने में सर्वसमाज प्रतिष्ठापित है। बसपा सुप्रीमो ने इसी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के तहत पार्टी में मुसलमानों को भी तरजीह देने की कोशिश की। 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से सबसे ज़्यादा 20 ब्राह्मणों को प्रत्याशी बनाया गया था, 14 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी खड़े किए गए थे, प्रदेश की 80 में से 17 सीटें संवैधानिक व्यवस्था के तहत पहले से ही अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए सुरक्षित थीं। बसपा ने छह महिलाओं को भी लोकसभा चुनाव में उतारा था। सभी राजनीतिक दलों ने सभी जाति और वर्ग के लोगों के लिए अपनी पार्टी के दरवाजे खोल रखे थे। हालांकि कांग्रेस को ब्राह्मण समाज, वाल्मीकि समाज, आंशिक रूप से मुस्लिम और क्षत्रिय समाज की पार्टी माना जाता रहा है। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी को वैश्य समाज, कट्टर हिंदूवादी मानसिकता वाले समाज, आदिवासी समाज,  समतावादी पार्टी बसपा को अनुसूचित वर्ग की पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल को जाट समाज की पार्टी, समाजवादी पार्टी को यादव और मुस्लिम समाज की पार्टी माना जाता रहा है। 2007 के विधान सभा चुनाव के मद्ïदेनजर सर्व समाज को जोडऩे की राजनीतिक दृष्टि से मायावती की एक सार्थक पहल थी। इसका पूरे प्रदेश में सर्वत्र स्वागत हुआ और 2007 के चुनाव में जो परिणाम सामने आए उसने बहुजन समाज पार्टी को विधानसभा में पूर्ण बहुमत दे दिया था। बहुजन समाज पार्टी में लागू हुए सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले का नुकसान कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी को उठाना पड़ा था। भारी संख्या में ब्राह्मण, मुसलमान और पिछड़े वर्ग के लोग जो कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी से जुड़े हुए थे, टूटकर बहुजन समाज पार्टी में चले गए थे। मगर, इन सबके बावजूद बहुजन समाज पार्टी के ऊपरी ढांचा में ही बदलाव दिखा, संगठन में आंतरिक रूप से अनुसूचित जाति के लोगों का ही दखल कायम रहा है। सर्व समाज के नाम पर सवर्णों को पार्टी और सरकार में दिए गये महत्व सेे पार्टी से जुड़े पिछड़े, दलितों  में काफी समय तक असंतोष भी फैला रहा। कई बार उनकी यह पीड़ा पार्टी सुप्रीमो तक पहुंचाई गई पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
अब उत्तर प्रदेश का किला फतह करने के लिए 125 वर्ष पुरानी कांग्रेस ने अपने युवराज राहुल गांधी को चुनाव मैदान में उतारा है। श्री गांधी उत्तर प्रदेश में कई दौर के जनसम्पर्क अभियान चला चुके हैं। पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों के प्रति उनकी सहानुभूति से मायावती परेशान है। मायावती को यह अच्छी तरह से मालूम है कि उनकी असली चुनावी जंग यहां कांग्रेस से नहीं बल्कि सपा से होने वाली है, इसके बावजूद वह राहुल गांधी से जुबानी जंग कर लड़ाई को छोटे दायरे में समेटने की बार-बार कोशिश करती रही हैं। कांग्रेस से मायावती को एक भय जरूर सता रहा है कि कहीं कांग्रेस उनके दलित वोट बैंक में सेंधमारी न कर लें। इसके पीछे वजह राहुल गांधी के अभियान के साथ ही अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा.पी.एल.पुनिया के उत्तर प्रदेश में किए गए प्रयास को भी बताया जा रहा है। दूसरी ओर प्रदेश के कतिपय प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवारों के हाल ही में कांग्रेस के साथ फिर से खड़े होने की सूचना भी बसपा सुप्रीमो के लिए परेशानी का सबब है।  इटावा, एटा, मैनपुरी, फतेहपुर और कानपुर देहात ब्राह्मणों की पट्टी के रूप में जाना जाता है। कांग्रेस अब कन्नौज को केंद्र में रखकर ब्राह्मणों को नए सिरे से जोडऩे की मुहिम चलाने जा रही है। कांग्रेस अगर इसमें सफल रहती है तो इसका सीधा नुकसान बसपा को ही होगा।
बताया जाता है कि बसपा में सतीश मिश्र की भी अब स्थिति पहले जैसी नहीं रही। कुछ समय पहले मायावती ने दलितों को संदेश देने के लिए सतीश मिश्र को हाशिये पर धकेला था। पिछले महीने हुए ब्राह्मïण समाज के सम्मेलन में एक बार फिर श्री मिश्र को सक्रिय किया गया। इस सम्मेलन में मायावती ने सतीश मिश्रा और उनके परिवार को सर्वाधिक महत्व दिये जाने पर अपनी लम्बी-चौड़ी सफाई भी पेश की थी। जानकारों की मानें तो सतीश मिश्रा और उनके परिजनोंं को अन्य ब्राह्मण नेताओं को दरकिनार कर महत्व दिये जाने को लेकर ब्राह्मïणों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। भाजपा ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है। भाजपा के कथित आरोप के अनुसार विभिन्न फर्जी कम्पनियों में निवेशित दस हजार करोड़ से ज्यादा के काले धन में सतीश मिश्रा के परिजन भी हिस्सेदार हैं।
कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग में जुटे एक नेता का कहना है कि आजादी से काफी पहले से प्रदेश के ढाई सौ से अधिक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार जो कांग्रेस से जुड़े हुए थे और किन्हीं कारणों से उन्होंने पार्टी से मुंह मोड़ लिया था अब फिर से कांग्रेस के साथ जुड़ रहे हैं। बुंदेलखंड, रुहेलखंड, अवध और पूर्वांचल में यही ब्राह्मण बिरादरी कभी कांग्रेस की रीढ़ रही थी। अन्य कई विश्लेषकों का भी मानना है कि इस बार प्रदेश में समीकरण बदलते नजर आ रहे हैं। विधानसभा चुनाव का ऊंट किस करवट बैठेगा यह बहुत कुछ बदले हालात और जातीय समीकरण पर ही निर्भर करेगा। वैसे बसपा को पटखनी देने में जुटी सपा भी यादवों और मुसलमानों के साथ ही अन्य पिछड़े वर्ग के वोटरोंं को भी गोलबंद करने में लगी हुई हैं। ऐसे में दलितों में बिखराव और ब्राह्मणों का बिदकना बसपा के लिए  भारी पड़ सकता है।

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