Tuesday, January 31, 2012

क्या मुसलमान महज मतदाता है?

समाजवादी पार्टी के पक्ष में शाही इमाम बुखारी ने फतवा क्या जारी किया मुस्लिम वोटों को लेकर राजनीतिक दलों में होड़ मच गई है। मुस्लिम मतों की छौंक से सभी अपनी जीत को जायकेदार बनाने में जुट गए हैं। मुस्लिमों के लिए वायदों की बरसात हो रही है। लुभावने आश्वासन दिया जा रहा है। भूल-चूक, लेनी-देनी की माफी की तर्ज पर सभी पार्टियां मुस्लिमों के क थित रहनुमाओं के दर पर माथा टेक रहे हैं। इन सबके बीच एक हकीकत यह भी है कि मुस्लिम बहुल इलाके हर जगह बेहद पिछड़े हैं, लेकिन उनकी जमीन पर नेताओं और पार्टियों की फसलें खूब लहलहाती रही है। इस दफा भाजपा को छोड़ तीन प्रमुख पार्टियों ने सवा दो सौ मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिए हैं। पहली बार करीब एक दर्जन मुस्लिम पार्टियां भी मैदान में हैं। सरकारी नौकरियों में 4.5 से लेकर 18 फीसदी आरक्षण समेत तमाम वादे सबके पास हैं। मगर इन तमाम वायदों-प्रलोभनों के बीच एक सवाल अनुत्तरित है कि क्या मुसलमान महज एक वोटर है या एक नागरिक भी है और एक नागरिक की हैसियत से उन्हें वह सब कुछ हासिल होना चाहिए, जिसकी उन्हें समाज में जरूरत है।
मुलायम सिंह ने मुस्लिम बहुल जिलों में कॉलेज खोलने से लेकर कब्रिस्तानों की जमीनों की हिफाजत तक का जिम्मा लिया है। मुलायम मुसलमानों के हितैषी रहे हैं। केवल वायदों में नहीं बल्कि अपने शासनकाल में उन्होंने प्रदेश के मुसलमानों के हित में कई कदम उठाए थे। मुसलमान भी मानते हैं कि उनसे उनका दिल का रिश्ता है। कांग्रेस सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर अमल के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है। मगर मुसलमान भरोसा करने को तैयार नहीं है। बाबरी मस्जिद का दांव भी कभी कांग्रेस ने ही चली थी, फसल भाजपा ने काट ली। भाजपा मजहबी आरक्षण के खिलाफ  है तो बसपा ने सबसे ज्यादा 84 टिकट देकर चुप्पी साधे रखी है। नई पार्टियां इन सबकी पोल खोलते हुए मुस्लिमों में अपनी जमीन तैयार कर रही हैं। मुस्लिम केन्द्रित पीस पार्टी ने प्रदेश में मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने का जुमला उछाल कर एक नई चाल चली है। गौरतलब हो कि कभी बसपा भी इसी तरह से दलित मुख्यमंत्री की बात करती थी। पिछड़े मुस्लिमों का एक तबका पीस पार्टी के इस राजनीतिक नारे का निहितार्थ भले नहीं समझ पर रहा हो मगर उसके आकर्षण के लिए इतना ही पर्याप्त है कि प्रदेश का मुख्यमंत्री कोई मुस्लिम होगा। 2007 में 57 विधायक इस समुदाय से चुनकर गए।
पिछले दस सालों में 16 मंत्री भी बने। मुलायम सिंह सरकार में 11 और मायावती सरकार में 5 मंत्री। मायावती के तीन मंत्री ऐसे भी थे, जो मुलायम के समय भी मंत्री रहे थे। यानी दस साल लगातार लालबत्ती में। लखनऊ निवासी इरफान जो बीटेक द्वितीय वर्ष के छात्र है का कहना है कि इंजीनियरिंग,मेडिकल कॉलेज तो छोडि़ए ये सारे नुमांइदे मिलकर भी पूर्वांचल की मुस्लिम आबादी में एक स्कूल तक नहीं खोल पाए। अब तक के वादों और दावों की हकीकत जानने के लिए पूर्वांचल के किसी भी गांव में चले जाइए, हकीकत समझ में आ जाएगी। करीब सवा करोड़ मुस्लिम आबादी वाला यह इलाका देश में बदहाल क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। सवाल केवल वाराणसी, भदोही या चंदौली के बुनकरों की तंगहाली और बदहाली का ही नहीं है, बल्कि गोरखपुर, देवरिया, महराजगंज से लेकर बस्ती तक के किसी मुस्लिम बहुल गांवों में जाइए आपकों एक सी ही तस्वीर देखने को मिलेगी। लुभावने वायदे और आश्वासनों से कुछ नहीं होता। मौलिक सुविधाओं के अभाव में यह इलाका आज भी शिक्षा और स्वास्थ से लेकर रोजी-रोजगार के मामले में भी बदहाल है। पढ़े-लिखे मुस्लिम युवक भी छोटे-मोटे काम घंधे के लिए देश के महानगरों में पलायन के लिए विवश है। स्थानीय स्तर पर रोजगार का कोई अवसर नहीं है।
अनीसा खातून की तल्खी भी काबिलेगौर है। उनका कहना है कि मेरे पति सरकारी मुलाजिम है। दाल-रोटी चल जा रही है। दो बच्चे हैं। दोनों को दिल्ली में पढ़ा रही हूं। मगर गांवों के गरीब मुसलमान आज भी मदरसों के भरोसे हैं। बहराइच की 16 लाख आबादी में 35 फीसदी मुसलमान हैं। साक्षरता 36 फीसदी है तो मुसलमानों की 30 फीसदी से भी कम। देवरिया और बलिया में मुस्लिमों की साक्षरता 20 फीसदी से कम है। रोजगार के लिए महाराष्ट्र, पंजाब और दिल्ली की तरफ  पलायन का सिलसिला थमा नहीं है। मुस्लिम महिलाओं की स्थिति और भी खस्ता है। गरीब और पिछड़े मुस्लिमों में अब जागरूकता आई है। वह अब उन वजहों की तलाश भी कर रहे हैं जो उनके विकास में आड़े आ रही है। शिक्षा और रोजगार उनकी प्राथमिकता है। मात्र वायदों और घोषणाओं के लॉलीपाप से अब वे बहलने वाले नहीं है। उनका साफ मानना है कि वोट उसी को जो विकास को गति दे सके। पानी,बिजली,स्वास्थ्य, शिक्षा उनकी बुनियादी जरूरते हैं। इससे वह समझौता करने को तैयार नहीं है।

Monday, January 30, 2012

मुस्लिम तय करेंगे 113 प्रत्याशियों की किस्मत

उत्तर प्रदेश में आगामी आठ फरवरी से तीन मार्च तक सात चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव में परिसीमन के बाद एक सौ तेरह सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में होंगे। इसलिये भारतीय जनता पार्टी को छोड़ सभी राजनीतिक दलों की नजर इन पर लगी है। मुस्लिम मतदाताओं के लिए सभी राजनीतिक दल जोर आजमाइश में लगे हैं लेकिन पिछड़ों के 27 प्रतिशत आरक्षण के कोटे में से साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यकों को देकर कांग्रेस ने जो चाल चली थी फिलवक्त उसकी हवा निकल गई है। निर्वाचन आयोग ने विधानसभा चुनाव तक आरक्षण पर रोक लगा दी है। मुस्लिम रहनुमाओं को भी कांग्रेस की यह चाल नहीं भायी।
वैसे बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम ङ्क्षसह यादव ने अपने अपने तरीकों से मुस्लिम वोटरों को आकॢषत करने की कोशिश किए है, मगर मुस्लिमों का हालिया रूझान साफ तौर पर सपा की ओर ही दिख रहा है। टिकट बंटवारे में जहां बसपा ने 85 तो सपा ने 84 मुस्लिम प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। सपा प्रमुख श्री यादव का कहना है कि मुसलमानों के आरक्षण का कोटा 18 प्रतिशत किया जायेगा। वह कांग्रेस के साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण को छलावा बताते हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस मुसलमानों को गुमराह कर रही है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस इस आरक्षण को मुसलमानों के लिए बताती है तो पंजाब में सिखों के लिए। बसपा प्रमुख मायावती एक कदम आगे बढ़ कर मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन की वकालत कर रही है। मगर राज्य के मुसलमान अभी तक अपनी जुबान बंद रखे हुए हैं और किसी के पक्ष में साफ तौर पर खड़े नजर नहीं आते। उत्तर प्रदेश में 113 विधानसभा सीटों पर मुसलमान निर्णायक भूमिका में है। इन क्षेत्रों में मुसलमानों की आबादी 20 प्रतिशत तक है। ऐसे में आरक्षण का दांव भले ही चुनावी लाभ लेने के लिए कांग्रेस चली मगर इसका फायदा अन्य दूसरे दलों के बीच लेने की होड़ मची है। एक तरह से कांग्रेस के लिए उसका यह दांव उल्टा पड़ गया है। कांग्रेस महासचिव एक ओर से जहां विकास की बात कहते नहीं थक रहे हैं वहीं दूसरी ओर उनके ही दल के अन्य नेता आरक्षण को लेकर मुस्लिमों पर चारा डालने की कोशिश में लगे हुए हैं।
वैसे कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की आरक्षित 88 सीटों पर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित कर रखा है। कांग्रेस रणनीतिकारों का मानना है कि इसके साथ यदि कांग्रेस को मुसलमान वोट का मात्र 30 प्रतिशत भी मिल जाए तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस निर्णायक स्थिति में आ सकती है। फिलहाल देश के राजनीतिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण वोट बैंक समझे जाने वाले मुसलमानों पर उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में कई पाॢटयों का सियासी भविष्य टिका है। राज्य की कुल आबादी में करीब 19 फीसद की हिस्सेदारी रखने वाले मुसलमानों को रिझाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को छोड़ कर लगभग सभी पाॢटयां जी जान से जुटी है। अभी तक सपा की सफलता में मुसलमान वोट अहम साबित होते रहे हैं। हाल ही में शाही इमाम अहमद बुखारी ने सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के प्रेस कांफ्रेंस कर सूबे के मुस्लिमों को यह बता चुके हैं कि सपा ही उनका सबसे बड़ा हितैषी है। यह दीगर है कि बुखारी की अपील का क्या असर होता है मगर बुखारी की अपील के बाद अन्य राजनीतिक दलों की बेचैनी बढ़ गयी है।
आमतौर पर यह आरोप है कि राज्य पर करीब 40 साल तक शासन कर चुकी कांग्रेस ने मुसलमानों को लुभाने के लिए राज्य में चुनावी बयार शुरू होने के साथ ही अल्पसंख्यकों को साढ़े चार फीसद आरक्षण का पासा फेंका वहीं मुस्लिम मतदाताओं को अपना मान कर चल रही सपा इससे कहीं आगे बढ़ कर सत्ता में आने पर आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने का वादा करके यह जता दी कि मुस्लिमों की असली हितैषी वही है। गौरतलब हो कि       राज्य के रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, सहारनपुर, बरेली मुजफ्फरनगर,मेरठ,बहराइच,बलरामपुर,सिद्धार्थनगर, जयोतिबाफुलेनगर,श्रावस्ती, बागपत,  बदायूं,  गाजियाबाद,  लखनऊ, बुलंदशहर और पीलीभीत की कुल 113  विधानसभा सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में है। इन जिलों में मुसलमानों की आबादी 20 से 49 फीसदी के बीच है और नए परिसीमन के बाद सामने आया 113  सीटों का यह आंकड़ा किसी भी दल की किस्मत बना या बिगाड़  सकता है। अगर मुसलमानों का 30  फीसद वोट भी किसी एक दल के पास पहुंच गया तो वह अहम हो सकता है। आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली का बयान है कि मुसलमानों को साढे चार फीसदी
आरक्षण में शामिल करने से इस तबके की मांग सिर्फ 25 फीसद ही पूरी हुई है। हालांकि वह यह भी कहते हैं कि आरक्षण का यह दांव मुसलमान मतदाताओं को शायद ही लुभाये। मौलाना फरंगी महली ने कहा  है कि गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन से घिरा मुस्लिम तबका चुनाव को लेकर पहले की ही तरह इस बार भी पसोपेश में जरुर हैं लेकिन अगर मुस्लिम नेतृत्व वाली पाॢटयां अपने एजेण्डे में कामयाब रहीं तो मुसलमानों के वोटों का ध्रुवीकरण भी हो सकता है। हर बार की तरह इस बार भी सियासी पाॢटयां मुस्लिम आरक्षण, राजनीति में समुचित प्रतिनिधित्व और मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने के मुद्ïदे को लेकर कई वादे कर रही हैं लेकिन शिया पर्सनल ला बोर्ड इस बार इन दलों को अपने वादों को अमली जामा पहनाने के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रहा है। शिया पर्सनल ला बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना याकूब अब्बास कहते हैं कि इस बार पाॢटयों के कोरे वादे नहीं चलेंगे बल्कि उन्हें खासकर शिया मुसलमानों के कल्याण के लिए पक्की योजना पेश करनी होगी और उसे अपने अपने चुनाव घोषणापत्रों में भी शामिल करना होगा। उन्होंने कहा कि बोर्ड अपनी कार्यकारिणी की बैठक कर राज्य विधानसभा चुनाव में शिया मतदाताओं को एकजुट रखने के लिए रणनीति तय करेगा।

Wednesday, January 18, 2012

अयोध्या में एक किन्नर ने बढ़ाई धड़कने

  अयोध्या में अपने को राम का सच्चा अनुयायी बताने वाले किन्नर गुलशन उर्फ बिंदू को विधान सभा के चुनाव में वोट कितना मिलेगा यह कहना अभी मुश्किल है लेकिन उसने अयोध्या विधानसभा सीट के चुनाव को रोचक बनाने के साथ ही अन्य उम्मीदवारों की धड़कने बढ़ा दी हैं। मशहूर रियल्टी शो बिग बास की लक्ष्मी, गोरखपुर की पूर्व महापौर आशा देवी, मध्य प्रदेश की पूर्व विधायक शबनम समेत देश के कोने-कोने से किन्नर अयोध्या में गुलशन के चुनाव प्रचार के लिए आये हैं। गुलशन को समाज के दबे-कुचले और महिलाओं का खासतौर से समर्थन मिल रहा  है ।
गुलशन के प्रचार में किन्नरों के साथ ही युवकों का हुजूम निकलता है। वह अपने को राम का सच्चा अनुयायी बताती है। कुछ किन्नरों की सुंदरता को देख लोग दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं । उनकी पहली प्रतिक्रिया होती है क्या किन्नर भी इतने सुन्दर होते हैं। गुलशन का कहना है कि रामायण और रामचरित मानस में भी लिखा है कि राम के वन जाते समय नर नारी सभी कुछ दूर के बाद वापस आ
गये थे लेकिन किन्नरों का हुजूम उनके साथ बहुत दूर गया था। इसलिए राम के आदर्शों पर नर और नारियों से ज्यादा किन्नर चलते हैं।
अयोध्या विधानसभा में तीन लाख नौ हजार पांच सौ तीन मतदाता हैं। इस सीट पर राम मंदिर आन्दोलन के चरम पर पहुंचने के समय 1991 से अभी तक लगातार भारतीय जनता पार्टी का कब्जा है। भाजपा के लल्लू ङ्क्षसह यहां से विधायक हैं। समाजवादी पार्टी ने छात्र नेता तेज नारायण उर्फ पवन पांडेय को उम्मीदवार बनाया है जबकि बहुजन समाज पार्टी से व्यापारी नेता वेद गुप्ता प्रत्याशी हैं। कांग्रेस ने राजेन्द्र प्रताप ङ्क्षसह को उम्मीदवार बनाया है। पीस पार्टी से राजन मिश्र उम्मीदवार हैं। किन्नर गुलशन के प्रचार के तरीके से इन उम्मीदवारों के होश उड़ गये हैं क्योंकि वह घर-घर पहुंच रही है। अयोध्या और फैजाबाद शहर में उसका प्रचार काफी तेज है। भाजपा के ज्यादातर मतदाता शहरी हैं इसलिए उसके प्रचार से सर्वाधिक घबड़ाये हुए भाजपा प्रत्याशी दिखायी पड़ रहे हैं। गुलशन विकास के मुद्ïदे पर कहती है-मेरे आगे पीछे कोई नहीं है, मैं किसके लिए भ्रष्टाचार करुंगी, इसलिए मुझे सेवा करने का मौका दीजिए। सभी दलों को आपने परखा है एक बार किन्नर को भी परखिए। उसके इस माॢमक अपील पर मतदाता कितना पसीजेंगे यह तो मतगणना के दिन ही पता चलेगा लेकिन उसके चुनाव मैदान में आ जाने से चुनाव दिलचस्प और गुदगुदाने वाला हो गया है। देश भर से यहां पहुंच रहे किन्नरों को देखने की ललक भी स्थानीय लोगों में देखी जा रही है।

Monday, January 16, 2012

चुनावी समर में अपराधियों की आजमाइश

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रमुख राजनीतिक दलों के अपराधियों को टिकट देने से काफी हद तक परहेज किए जाने के बाद माफिया तत्वों और आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों ने चुनाव लडऩे के लिए छोटी तथा कम जानी-पहचानी पार्टियों को अपना सियासी ठिकाना बनाने की जुगत भिड़ाई हैं। सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जब डीपी यादव को पार्टी में शामिल करने से इनकार कर यह साफ कर दिया कि उनकी पार्टी में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है तो निश्चिततौर पर टिकट के जुगाड़ू अपराधियों को निराशा हुई। भाजपा के ऊपर भी बाबू सिंह कुशवाहा प्रकरण के बाद कुछ ऐसा ही दबाव पड़ा। मीडिया की टिका-टिप्पणी से बचने के लिए कांग्रेस और बसपा ने भी एक तरह से अपराधियों और माफियों से दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझी। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इन दलों में आपराधिक छवि वाले उम्मीदवार बिल्कुल नहीं है। हां, फर्क इतना जरूर आया है कि खुले तौर पर बदनाम खांटी अपराधियों से कमोबेश सभी ने परहेज किया। यहीं वजह रही कि अब ऐसे तत्व छोटी और चुनाव से पहले तक अमूमन गुमनाम रहने वाली पार्टियों की शरण में जाने को विवश हुए।  इनमें से अधिकांश टिकट हासिल करने के बावजूद सलाखों के पीछे से ही चुनावी जंग को अंजाम देंगे। ऐसे कम से कम दो दर्जन उम्मीदवार हैं जो सलाखों के पीछे से अपनी सियासी बिसात बिछा रहे हैं। इस मामले में राज्य का पूर्वांचल सबसे आगे है। ऐसे में क्षेत्र के मतदाताओं के सामने भी यह चुनौती होगी कि वे चुनें भी तो किसे चुनें। कई विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां लोगों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों में से ही किसी एक को चुनना होगा। मसलन मुन्ना बजरंगी, बृजेश सिंह, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे आपराधिक पृष्ठभूमि के अनेक उम्मीदवार इस बार चुनाव मैदान में हैं और मतदाताओं को मजबूरन इन्हीं जैसे में से किसी को चुनना होगा।
वर्ष 2008 में अनेक लम्बित आपराधिक मामलों में माफिया बृजेश सिंह की उड़ीसा में गिरफ्तारी के बाद उसके समर्थकों ने विधान परिषद सदस्य के चुनाव में उसके पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की थी,लेकिन बसपा ने उसकी पत्नी अन्नपूर्णा सिंह को चुनाव में खड़ा किया और वह विजयी रहीं। विभिन्न राजनीतिक दलों के दर खटखटाने के बाद खाली हाथ होने पर सिंह ने अब एक अनजाने से दल प्रगतिशील मानव समाज पार्टी  के टिकट पर चंदौली जिले की सैय्यदराजा विधानसभा सीट से अपनी ताकत दिखाने का फैसला किया है। बृजेश सिंह इस समय जेल में हैं, इसलिए उसके प्रचार का जिम्मा उसके सहयोगियों ने सम्भाल रखा है। मालूम हो कि बृजेश पकड़ी नरसंहार से लेकर मुम्बई के जे जे हत्याकांड में भी आरोपी हैं।
इससे पूर्व बृजेश के भाई उदयनाथ सिंह उर्फ  चुलबुल सिंह भाजपा के टिकट पर विधान परिषद सदस्य बनकर और भतीजे सुशील सिंह बसपा के टिकट पर विधायक बनकर सियासी समुद्र में गोते लगा चुके हैं। कुछ ऐसी ही कहानी बृजेश के कट्टर विरोधी कहे जाने वाले मऊ से निर्दलीय माफिया विधायक मुख्तार अंसारी की भी है। अब तक सपा और बसपा में रह चुके अंसारी आगामी विधानसभा चुनाव में अपने भाइयों अफजाल और सिबगतुल्ला अंसारी द्वारा गठित कौमी एकता दल से चुनाव मैदान में है।
मुख्तार विभिन्न आपराधिक मुकदमों के सिलसिले में जेल में बंद है। वह जहां मऊ सीट से एक बार फिर चुनाव मैदान में है वहीं उसका भाई सिबगतउल्ला गाजीपुर जिले की मोहम्मदाबाद सीट से चुनाव लड़ेगा। कुख्यात शूटर प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा चरम पर पहुंच गई है। दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद मुन्ना बजरंगी ने नामांकन के लिए जमानत की अर्जी दी थी जिसे कोर्ट ने नामंजूर करते हुए उसे प्रस्तावक के जरिए नामांकन पत्र दाखिल करने का निर्देश देकर उसके मंसूबे पर पानी फेर दिया है।
वर्ष 1998 में हुई भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या का अभियुक्त बजरंगी साल 2009 में गिरफ्तारी के बाद से जेल में है लेकिन चुनाव लडऩे की लालसा उसे भी कई राजनीतिक पार्टियों के दरवाजे तक ले गई। अपना दल ने उसे जौनपुर की मडिय़ाहूं सीट से प्रत्याशी बनाया है। अपना दल ने बसपा के पूर्व विधायक राजू पाल की हत्या के आरोपी पूर्व बसपा सांसद अतीक अहमद को भी इलाहाबाद दक्षिण सीट से टिकट दिया है।
इसके अलावा अपना दल ने अतीक के भाई और राजू पाल हत्याकांड के सहअभियुक्त पूर्व विधायक मोहम्मद अशरफ को भी प्रत्याशी बनाया है। कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के मकान में आगजनी करने के आरोपी पूर्व बसपा विधायक जितेन्द्र सिंह को पीस पार्टी ने फैजाबाद जिले की बीकापुर सीट से उम्मीदवार बनाया है। बाहुबली बसपा विधायक डीपी यादव अपनी ही पार्टी राष्ट्रीय परिवर्तन दल के टिकट पर सहसवान सीट से चुनाव लड़ेंगे। यादव और उनकी पत्नी उमलेश ने वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय परिवर्तन दल के टिकट पर ही चुनाव जीता था। बाद में यह विधायक दम्पती बसपा में शामिल हो गया था। प्रदेश के सुलतानपुर जिले में एक राजस्व अधिकारी आरके सिंह की हत्या के आरोपी यशभद्र सिंह और उनके पूर्व बसपा विधायक भाई चंद्रभद्र सिंह इस बार पीस पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं। वर्ष 2007 में इसौली सीट से बसपा के टिकट पर विधायक चुने गए चंद्रभद्र को इस बार अपनी पार्टी से टिकट नहीं मिला तो वह पीस पार्टी के टिकट पर सुलतानपुर सीट से चुनाव लड़ रहे हैं जबकि उनके भाई यशभद्र इसौली सीट से मैदान में हैं। रायबरेली में अनेक आपराधिक मामलों में आरोपी निर्दलीय विधायक अखिलेश सिंह को भी इस बार पीस पार्टी ने प्रत्याशी बनाया है। दागदार छवि वाले लोगों और माफिया तत्वों को टिकट देने के पीछे सम्बन्धित पार्टियों के अपने-अपने तर्क हैं। नेशनल इलेक्शन वॉच की ओर से पिछले दिनों जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश की विभिन्न विधानसभाई सीटों पर कम से कम 77 ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके खिलाफ  हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और डकैती जैसे संगीन आरोप हैं।






जातिवाद चुनावी राजनीति की तल्ख सच्चाई


जातिवाद चुनावी राजनीति की एक तल्ख सच्चाई है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता है। अगर कहीं इसका विरोध दिखता भी है तो वह महज दिखावे के लिए ही होता है। खास कर चुनावी राजनीति में अनिवार्य रूप से स्वीकार ली गई इस हकीकत के राजनीतिक निहितार्थ भी है। तोहमत कांग्रेस पर लगता है। माना जाता है कि वोटबैंक की राजनीति उसने ही शुरू की। फिर बाद के दिनों में अन्य मध्यवर्ती एवं मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी इस परिपाटी को अंगीकार कर लिया। दरअसल मुद्ïदाविहीन राजनीति की कोख से ही जातिवादी राजनीति का जन्म हुई। रोटी और बेटी जात को के जुमले में फंसे समाज को बड़ी आसानी से यह समझा दिया गया कि अब वोट भी गैर को नहीं अपनों को दो। यहां अपनों का सीधा सा मतलब अपनी जाति को इंगित करना था। आम लोगों को रास भी आया। जातीय स्वाभिमान के उफान में गोलबंदी पुख्ता होने लगी। राजनीति की भाषा में इसे वोट बैंक की संज्ञा दे दी गई। जाति के नाम पर वोट देने वालों का भले भला हुआ या नहीं मगर लेने वाले सत्ता की मलाई काटने लगे। सत्ता सुख भोगने का यह सबसे आसान जरिया बन गया। जाति की अफीमी नशा हर चुनाव के मौके पर और गहरा जाता है। अनदेखे-अचिन्हे लोग भी जातीय उम्मीदवार के पक्ष में गोलबंद हो जाते हैं।
गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टïाचार और देश,प्रांत व क्षेत्र के विकास की बातें जातिवाद की आंधी में उड़ जाति है। भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्ïदे से भले प्रभावित सभी हो मगर तमाम कयासों के बावजूद चुनाव के मौके पर जातीय लामबंदी इन्हें कहीं दूर पीछे धकेल कर खुद आगे आ जाती है। इसीलिए रोटी-बेटी जाति को वाले जुमले में भी तब्दीली आई है। अब कहा जाने लगा है कि वोट-बेटी जाति को...।  ऐसे में मूल मुद्ïदों का भटकाव जारी है। भ्रष्टïाचार को देशव्यापी मुद्ïदा बनाने का सपना पालने वाली अन्ना टीम भी आज देश में हो रहे पांच राज्योंं के चुनाव के मौके पर खुद को लाचार-विवश महसूस कर रही है। राजनीतिक चालों में पहले ही उलझा दी गयी अन्ना टीम को यह सूझ ही नहीं रहा है कि भ्रष्टïाचार जैसे मुद्ïदों को लेकर चुनाव में वह कैसे माहौल बनाए। यह दीगर है कि टीम अन्ना की इस घोषणा के बाद कि वह भ्रष्टïाचार के मुद्ïदे पर मतदाता जागरण अभियान चलायेंगे से राजनीतिक दलों को परेशानी महसूस हो रही थी। लोकपाल को लेकर जिस तरह से राज्यसभा में राजनेताओं ने अपनी खुन्नस निकाली उससे संभावनाओं की रही-सही कसर भी पूरी हो गयी। यहीं वजह है कि वे केन्द्रीय मुद्ïदे जो आज चुनाव के दौरान मुखर होने चाहिए,पीछे छुट गए हंै।
जिस समय दिल्ली केरामलीला मैदान में अन्ना हजारे भ्रष्टïाचार को केन्द्र में रखकर सशक्त जन लोकपाल की मांग के लिए अनशन कर रहे थे, उसी दौरान देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश में राष्टï्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करीब दस हजार करोड़ के घोटाले का भंडाफोड़ हो रहा था। सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के नाम पर बनी बसपा की बहुमत वाली सरकार के एक-एक कर कई मंत्री इस घोटाले की भेंट चढ़ गए। बाद के दिनों में मनरेगा घोटाले और बुंदेलखंड पैकेज की भारी-भरकम राशि की लूट-खसोट को लेकर भी बसपा सरकार के खिलाफ हाय-तौब्बा मचा। विधान सभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा प्रदेश में एकबारगी ऐसा लगा कि भ्रष्टïाचार ही वह केन्द्रीय मुद्ïदा होगा जिसके आधार पर प्रदेश की जनता अपना फैसला सुनायेगी। शुरूआती दिनों में सरकार भी थरथराई। प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती ने ऑपरेशन क्लीन का आगाज किया। लोकायुक्त की जांच में आरोप प्रमाणित होते ही मंत्रियों की विदाई शुरू हो गयी। आरोपितों और दागियों को चुनाव में उम्मीदवार नहीं बनाने का निर्णय किया गया। अपवादस्वरूप कतिपय खास लोगों को छोड़कर बसपा ने वाकई आरोपितों और दागियों को टिकट नहीं दिया। मगर भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिरी मायावती सरकार और बसपा को सबसे ज्यादा राहत तब मिली जब एनआरएचएम के किंगपिन और बसपा व सरकार से निकाले गए उस पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा ने गले लगा लिया। भाजपा ने ऐसा क्यों किया या इसके पीछे उसकी मंशा क्या थी यह तो अब भी पूरी तरह से साफ नहीं हो पाई है, मगर जो बातें उभर कर सामने आई है उससे इतना स्पष्टï हो गया है कि बाबू सिंह कुशवाहा के जरिए भाजपा पिछड़े मतदाताओं को साधना चाहती है। भाजपा के रणनीतिकारों की यह समझ थी कि बाबू सिंह कुशवाहा भले ही भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिरे हुए हों, अगर उनके आने से भाजपा को पिछड़े वर्ग का वोट मिलता है तो उन्हें साथ रखना चाहिए। जातिगत वोट के लिए यह उस भाजपा की सोच थी जिसके नेता किरिट सोमैया ने बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा में शामिल कराये जाने के थोड़े दिन पहले ही कुशवाहा को भ्रष्टïाचारी बताते हुए कई खुलासे किए थे। जब चाल,चरित्र और चेहरे की बात करने वाली पार्टी की यह हाल है तो इससे साफ हो जाता है कि जातिवाद आज की चुनावी राजनीति की एक अनिवार्य सच्चाई है,जिससे मुंह मोडऩा किसी भी दल के लिए मुश्किल है।






Sunday, January 15, 2012

भाजपा का यूपी विजन 2012

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में राष्टरीय पार्टी कहलाने वाली भाजपा विगत लोकसभा चुनाव के बाद चौथे पायदान पर आ गई है। उसे यदि दूसरे या तीसरे नंबर पर भी आना है तो उसके मतों में 9 से 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी चाहिए। अब पार्टी के पास अयोध्या आंदोलन के बाद जन आकर्षण का कोई ऐसा मुद्दा भी नहीं रहा जो उसके वोट प्रतिशत में एकाएक बढ़ोत्तरी कर दे। ऐसे में भाजपा के रणनीतिकारों के समक्ष अन्य पार्टियों की तरह ही नए जातीय समीकरण का संजाल बुनने के साथ ही भोथरे हो चुके मंदिर मुद्दे की जगह बिहार पैटर्न पर विकास को चुनावी नारा बनाने की विवशता है। ऐसे ही कतिपय रणनीतिकारों के प्रयास का हिस्सा है कि उत्तर प्रदेश चुनाव को ध्यान में रखते हुए विजन 2012 में धर्म आधारित राजनीति के इतर विकास को केन्द्रीय मुद्ïदा के रूप में उछाला जा रहा है। राष्टï्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की अगुवाई में 16 जनवरी को भाजपा उत्तर प्रदेश वासियों से न केवल विकास का वायदा करेगी बल्कि दलित और पिछड़ों की गोलबंदी के लिए अल्पसंख्यक आरक्षण की राजनीतिक चाल के काट के लिए रणनीति भी अख्तियार करेगी।
दरअसल भाजपा विजन पेपर 2012 का मूल स्वर यह भी है कि तमाम विवादों और हंगामों के बावजूद अगर बसपा से निकाले गए बाबू सिंह कुशवाहा एवं बादशाह सिंह जैसे दागी लोगों के आने से पार्टी को कल्याण सिंह द्वारा काटे जाने वाले पिछड़े मतों की भरपाई होती है तो पार्टी को उत्तर प्रदेश में बिना किसी का परवाह किए अपने कदम आगे बढ़ाना चाहिए। इसलिए तमाम आरोपों के बावजूद भाजपा नेतृत्व का एक बड़ा वर्ग बाबू  कुशवाहा को प्रदेश चुनाव तक साथ बनाए रखने के मूड में है। एक रणनीति के तहत ही भाजपा ने कुशवाहा के खिलाफ सीबीआई छापे व जांच को अति पिछड़ा वर्ग के उत्पीडऩ से जोड़ दिया है। इसका सीधा सा मतलब है कि कुशवाहा, मौर्य और सैनी समुदायों को लक्षित कर यह बताना कि यह सब उनके खिलाफ कांग्रेस और बसपा की साजिश है। दरअसल यहां भाजपा की चिन्ता के केन्द्र में बसपा नहीं बल्कि कांग्रेस है।
भाजपा रणनीतिकारों का मानना है कि इस प्रकरण को दूसरे नजरिए से भी देखने की आवश्यकता है। देश में एक अत्यंत खतरनाक प्रवृत्ति घर कर रही है। जिसके खिलाफ  सीबीआई, आयकर, प्रवर्तन निदेशालय या पुलिस द्वारा  छापेमारी हुई, जांच चली उसे बस खलनायक बना दिया जाता है। उसका पक्ष कोई सुनने को तैयार नहीं होता। जिस तरह से भाजपा में शामिल किए जाने के बाद कुशवाहा के घरों से लेकर उनसे जुड़े ठिकानों पर छापा मारा गया उस पर प्रश्न उठना लाजिमी है। कभी बाबू ङ्क्षसह कुशवाहा को कांसीराम का टेलीफोन ऑपरेटर भी कहा जाता था। आज यह भले ही उनका अतीत है मगर अब इन बातों का कोई मतलब नहीं है। अभी हाल तकइ मायावाती के खासमखास के रुप में उनकी छवि थी। मायावती ने अन्य मंत्रियों की तरह उन्हें मंत्रिमंडल से बरखास्त नहीं किया। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना में घोटाले का मामला प्रकाश में आने के बाद कुशवाहा का कहना है कि उन्होंने स्वयं त्यागपत्र दिया। दो जिला चिकित्सा अधीक्षकों की मृत्यु ने मामले को संगीन बना दिया। उक्त मामले में जांच और कानूनी कार्रवाई जारी है।  कुछ ही दिनों पहले कुशवाहा ने सरकार के शीर्ष लोगों द्वारा अपनी हत्या की आशंका जताते हुए एक पत्र मायावती को लिखा था। उसके बाद ही मायावती ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। कुशवाहा एनआरएचएम घोटाले में शामिल थे या नहीं, अगर थे तो उनकी सहभागिता कितनी थी आदि का उत्तर आने में अभी समय लगेगा लेकिन सीबीआई जिस चयनात्मक तरीके से जांच कर रही है उससे उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध बनी हुई है। मुकदमा जीतने में सीबीआई का रिकॉर्ड अत्यंत खराब रहा है। हत्या मामलों के उद्ïभेदन तो उसका ट्रैक रिकार्ड और भी खत्म है। मगर इन सबके बावजूद यह भी एक कड़वा सच है कि न तो राजनीति में बाबू सिंह कुशवाहा अकेले हैं और न ही भाजपा ने जो की है वह पहली बार हुई है। वस्तुत: उम्मीवारों के रिकार्ड खंगालने वाली संस्थाएं बता रहीं हैं कि सभी पार्टियों ने भ्रष्टाचार एवं अपराध के आरोपियों को उम्मीदवार बनाए हैं। इनमें बसपा सबसे आगे है। मीडिया एवं आंकड़ों की क्रांति करने वाले एनजीओ के लिए उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि अपने पेशे के लिए जितनी महत्वपूर्ण है उतनी अगर मतदाताओं के लिए होती तो चुनाव परिणाम दूसरे प्रकार के आते। मान लीजिए बाबू सिंह कुशवाहा और बादशाह सिंह महाभ्रष्ट हैं। गांवों के गरीब लोगों के जीवन बचाने के लिए आई राशि को इन्होंने निगला। लेकिन अगर बसपा इनको टिकट दे देती तो क्या जनता इन्हें पूरी तरह नकार देती, ये जीतते या हारते इसका आकलन भले नहीं किया जा सकता किंतु इन्हें मत भारी संख्या में मिलता यह तो तय है। तो फिर ऐसे में एकबारगी किसी के सम्पूर्ण चरित्र का मूल्यांकन किसी एक आरोप या घटना के आधार पर कर लेना और फतवा की तर्ज पर फैसला सुना देना किसी भी दृष्टिï से उचित नहीं कहा जा सकता है। चारा घोटाले में फंसे लालू प्रसाद हाथी पर चढ़कर जेल गए थे। तब वे हजार करोड़ के चारा घोटाले के आरोपी थे। मगर उनकी राजनीति पर रातोरात इसका कोई असर नहीं पड़ा था। 1996 की घटना है। सन 2000 में हुए बिहार विधान सभा चुनाव में उनका दल सफल रहा और राबड़ी देवी एक बार फिर बिहार की मुख्यमंत्री बन गयीं। फिलवक्त वे बिहार की सत्ता से बेदखल जरूर हो गए हैं,मगर ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि उनका जनाधार बिल्कुल समाप्त हो गया है। लालू प्रसाद आज भी बिहार के किसी भी हिस्से में जाकर पांच हजार लोगों की भीड़ जुटाने की कूबत रखते हैं। इसलिए भाजपा के अंदर या बाहर उसकी विगत की कई कार्रवाइयों को लेकर चाहे जितना हंगामा हो, यह सच है कि इस समय कुशवाहा एवं बादशाह दोनों में भाजपा को चुनावी लाभ की संभावना दिखी है और प्रतिद्वंद्वी पार्टियों को भी इसका आभास है।
निश्चित रुप से यह लोकतंत्र के वर्तमान एवं भविष्य को लेकर भयभीत करने वाला प्रसंग है। भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाने वाली पार्टी द्वारा उन आरोपियों को पार्टी में शामिल करना जिनके खिलाफ  उसने आवाज उठाई थी,सामान्य राजनीतिक स्थिति का परिचायक नहीं हो सकता। किंतु भ्रष्टाचार के विरोध में क्या इस सीमा तक जाना उचित है कि नीर-क्षीर विवेक का परित्याग कर लिया जाए। हमारे देश में अब चुनाव केवल सामान्य शह मात के खेल तक सीमित नहीं रहा। हर हाल में जीतने के लिए युद्ध एवं प्यार में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता जैसे वाक्य अब राजनीति की परिधि में भी सिद्घांत के तौर पर उभर आया है। चुनावी विजय के लिए प्रतिद्वंद्वी को हर हाल में परास्त करने और इसके लिए किसी भी सीमा तक जाने वाले हमारे राजनीतिक तंत्र से इससे इत्तर कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए है। अकेले भाजपा की ऐसी दशा नहीं, ज्यादातर दलों या एक तरह से सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

Friday, January 13, 2012

राजनीति में आदर्श की कल्पना बेमानी


युद्घ और प्रेम में सबकुछ जायज है। चुनाव एक युद्घ ही है। यह युद्घ केवल कतिपय प्रत्याशियों के बीच ही नहीं बल्कि कई बार दलों,दलों के सिद्घांत और नीतियों के बीच भी होता है। इस युद्घ में जहां लोकतंत्र का वजूद दांव पर होता है वहीं कई बार तो जनता के भरोसा के साथ ही राजनीतिक बिरादरी की विश्वसनीयता और स्वयं राजनीति भी दांव पर होता है। चुनावी विजय के लिए प्रतिद्वंद्वी को नष्ट करने की सीमा तक जाने वाले हमारे राजनीतिक तंत्र से विवेकशीलता, नैतिकता एवं आदर्श की कल्पना बेमानी है। चाल,चेहरे और चरित्र की दुहाई देने वाली अकेले भाजपा की ऐसी दशा नहीं बल्कि कमोबेश सभी दलों की स्थिति ऐसी ही है। दरअसल यह संकट वैचारिक विश्वास का भी है। इसलिए तत्काल भ्रष्टïाचार के प्रतीक स्वरूप बाबू सिंह कुशवाहा एवं बादशाह सिंह प्रकरण को आधार बना कर भाजपा के खिलाफ जितना बड़ा बवंडर खड़ा करने की कोशिश की जाए , यह प्याले में उफान से तूफान का अहसास से आगे कुछ और नहीं है।
बाबू सिंह कुशवाहा द्वारा पत्र लिखकर अपनी सदस्यता स्थगित रखने के अनुरोध की पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की स्वीकृति के बावजूद भाजपा की आंतरिक खलबली पूरी तरह थमी नहीं है। भाजपा युवा मोर्चा के पूर्व अध्यक्ष रामाशीष राय का ताजा आरोप इसका प्रमाण है। जब अंदर ही हलचल नहीं थमी तो दूसरी पार्टियां इस मामले को चुनाव तक गरमाए रखने से क्यों हिचकेंगी। लेकिन क्या यह वाकई इतना बड़ा और वैसा ही मामला था जैसा यह बना रहा। सच कहा जाए तो मीडिया एवं अन्य पार्टियों ने कुशवाहा प्रकरण पर जो बवण्डर पैदा करने की कोशिश की उसकी सीमाएं वर्तमान राजनीतिक परिवेश में प्याले में तूफान से आगे नहीं जा सकती। भाजपा के कुछ केन्द्रीय नेताओं ने भी इस पर सार्वजनिक बयानबाजी करके केवल अपनी खाल बचाने की कवायद भर की। इनमें गोरखपुर के सांसद स्वामी आदित्यनाथ अपवाद हो सकते हैं। लेकिन ज्यादातर के कारण अलग हैं। सतह पर जो तस्वीर बनी थी उसके आधार पर विचार करें तो निष्कर्ष आएगा कि भाजपा ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लिया है।
लेकिन भाजपा के कई चुनावी रणनीतिकारों की नजर में स्थिति ठीक उल्टी थी। पूर्व मंत्री बाबू भाई कुशवाहा एवं बादशाह सिंह को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही एवं वरिष्ठ नेता विनय कटियार ने 3 जनवरी को भाजपा मुख्यालय में बाजाब्ता संवाददाता सम्मेलन में फूलों का गुलदस्ता भेंटकर पार्टी में स्वागत यूं ही नहीं किया। दोनों नेताओं तथा इसके लिए हरि झंडी देने वाले राष्ट्रीय अध्यक्ष नितीन गडकरी को भी कुशवाहा के खिलाफ सीबीआई जांच की जानकारी थी तथा अपनी पार्टी द्वारा उनके विरुद्ध चलाए गए अभियान के तो ये भागीदार ही थे। बावजूद इसके ऐसा किया तो उसके पीछे काफी सोच विचार हुआ होगा। वे चाहते तो बिना हंगामे के जिस तरह बसपा के दो पूर्व मंत्रियों अवधेश वर्मा एवं ददन मिश्र को पार्टी में शामिल कर टिकट दिया वैसा ही इन दोनों के मामले में भी कर सकते थे। वस्तुत: इन दोनों के पार्टी में शामिल होने का भाजपा रणनीतिकार व्यापक प्रचार चाहते थे और इसमें उन्हें सफलता मिली। जरा सोचिए भाजपा के जिन नेताओं ने मीडिया द्वारा इसका विरोध किया उनका चुनावी रणनीति में कितनी भूमिका है। जिनके दबाव पर केन्द्रीय नेताओं की बैठक बुलाई गई उन्होंने इस पर कोई बयान नहीं दिया तथा चुनाव अभियान के प्रभारी मुख्तार अब्बास नकवी ने केवल यह कहा कि हम जिसे पार्टी में शामिल करते हैं उन्हें टिकट ही दे कोई आवश्यक नहीं है। यह प्रश्न तो उठता है कि पार्टी ने जिस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था, जिसे मायावती का वसूली एजेंट कहा था, जिन्हें किरीट सोमैया ने खनन ठेकों में हिस्सा लेने का आरोप लगाया था, वही अब पार्टी के लिए स्वीकार्य कैसे हो गया। निस्संदेह, यह नैतिक प्रश्न भाजपा के सामने सशक्तता से खड़ा है, लेकिन संसदीय जनतंत्र में जिस तरह चुनाव जाति और शक्ति तक सीमित हो रहा है उसमें सत्ता की राजनीति करने वाले दलों के लिए ऐसे नैतिक प्रश्नों की उपादेयता इस समय नि:शेष हो चुकी है। अगर जन प्रतिक्रिया दलों के ऐसे व्यवहार के विरुद्ध होता तभी नेता ऐसा करने से परहेज करते। लेकिन केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं देश भर के चुनावों में जाति और संपन्नता परिणामों के निर्धारक हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री मायावती तथा अन्य कई नेताओं पर ही आय से अधिक संपत्ति को लेकर जांच और मुकदमा चल रहा है। लेकिन वे चुनाव जीतते हैं और राजनीति में प्रभावी हैं। ऐसे अनेक उदारण हैं। तूफान खड़ा करने वाले  भाजपा के केन्द्रीय नेताओं का रवैया भी हास्यास्पद ही माना जाएगा। कहा जा रहा है कि पार्टी की बैठक में सुषमा स्वराज की आवाज कुशवाहा एवं बादशाह सिंह के विरुद्ध ज्यादा मुखर थी और अरुण जेटली का उन्हें समर्थन था। सुखराम जब इनकी पार्टी के सहयोगी बने थे तो उन पर भी आरोप था एवं सीबीआई जांच चल रही थी। जयललिता पर भ्रष्टाचार के आरोप थे एवं वे राजग की हिस्सा थीं। अगर जयललिता नहीं होतीं तो 1998 में वाजपेयी सरकार का गठन ही नहीं होता। 1997 में कल्याण सिंह के 93 सदस्यीय ऐतिहासिक मंत्रिमंडल के चेहरे को कौन भूल सकता है!
केवल भाजपा नहीं, अन्य पार्टियों के संदर्भ में भी ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं। कांग्रेस नेतृत्व वाले संप्रग में द्रमुक नेताओं से लेकर चारा घोटाले के आरोपी लालू प्रसाद यादव हैं। मायावती का सरकार को समर्थन है। अगर कोई पार्टी इस समय अपने साथी चुनने का आधार सदाचार, नैतिकता और सच्चाई को बना ले तो फिर गठबंधन के इस  दौर में न उसकी सरकार बन सकती है, न वह किसी गठबंधन का भाग हो सकता है। इसलिए जाति, संप्रदाय और संपन्नता टिकट देने से लेकर चुनाव प्रचार कार्यक्रम तक में मुख्य विचार का विषय होता है। अकेले भाजपा की ऐसी दशा नहीं, ज्यादातर दलों का आचरण ऐसा ही है। इसलिए विरोधी कुशवाहा एवं बादशाह प्रकरण को जितना बड़ा बनाने की कोशिश करें यह प्याले में उफान से तूफान के अहसास से ज्यादा कुछ नहीं है।



Monday, January 9, 2012

परिवारवाद से किसी को परहेज नहीं

परिवारवाद और वंशवाद को बढ़ावा देने को लेकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिललिस भले ही अब भी जारी है, मगर उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में उतरे प्रत्याशियों केआकलन केबाद यह बात साफ हो जाती है कि इससे परहेज किसी को नहीं है। यह दीगर सवाल है कि परिवारवाद का यह चलन उम्मीदवारों की योग्यता और क्षमता पर आधारित है या फिर राजनीतिक विरासत आगे बढ़ाने की कवायद मात्र है। इस पर भी बहस की पूरी गुंजाइश है कि तब फिर ऐसे में उन कार्यकर्ताओं का क्या होगा जो अपने जीवन केकई-कई बरस झंडा उठाने और नारे लगाने में गुजार देते हैं।
दरअसल सभी दल और उसके नेता परिवारवाद और वंशवाद के विरोध में खड़े तो नजर आते हैं, गाहे-बगाहे इस प्रवृति की निन्दा भी करते हैं, मगर मौका मिलते ही अपने राजनीतिक वारिश को धीरे से आगे कर देते हैं। यह प्रवृति कमोबेश सभी दलों और उनके नेताओं में हैं। आमतौर पर चुनावों के मौके पर इस तरह की चर्चाएं जोर पकड़ती हंै, फिर जो जीता वहीं सिकंदर की तर्ज पर बातें खत्म हो जाती हैं। फिलवक्त उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में भी अब तक जारी हुए प्रत्याशियों की सूची से यह बात साफ हो गयी है कि हर दल और उसके राजनेताओं को अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की चिन्ता सता रही है। कई राजनीतिक वारिस अलग-अलग राजनीतिक दलों से चुनाव में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इनमें से कई पहली बार चुनावी मैदान में उतर रहे हैं तो कुछ पिछला विधानसभा चुनाव लड़ चुके हैं।
प्रदेश के सहकारिता मंत्री एवं बहुजन समाज पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य ने खुद चुनाव लडऩे के साथ-साथ अपने पुत्र और पुत्री को भी चुनावी समर में उतार दिया है। स्वामी प्रसाद मौर्य के पुत्र उत्कर्ष मौर्य को रायबरेली जिले की नवसृजित ऊंचाहार सीट से तो पुत्री संघमित्रा मौर्य को एटा जिले के अलीगंज विधान सभा क्षेत्र से बसपा का टिकट मिला है। वहीं, दूसरी ओर कांग्रेस के दिग्गज नेता एवं सांसद जगदम्बिका पाल के पुत्र अभिषेक पाल को कांग्रेस पार्टी ने डुमरियागंज विधान सभा क्षेत्र से टिकट दिया है। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं सांसद राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह और लखनऊ के सांसद लालजी टंडन के पुत्र आशुतोष टंडन पर भी सबकी निगाहें लगी थीं। लालजी टंडन के पुत्र आशुतोष टंडन को लखनऊ उत्तर से भाजपा उम्मीदवार घोषित किया जा चुका है। राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह के भी चंदौली या गाजियाबाद की किसी सीट से विधान सभा चुनाव लडऩे की सम्भावना है।
बसपा से समाजवादी पार्टी में वापस आए पूर्व मंत्री नरेश अग्रवाल के पुत्र नितिन अग्रवाल हरदोई सदर विधानसभा सीट से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। इस सीट पर पिछले कई दशक से अग्रवाल का कब्जा रहा है। हाल ही में कांग्रेस में शामिल हुए एटा के दिग्गज सपा नेता देवेंद्र पाल सिंह यादव की पुत्री वासु यादव इस चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर जिले की पटियाली सीट से अपनी राजनीतिक पारी शुरू कर रही हैं। सपा से राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन के पुत्र रणजीत सिंह सुमन एटा जिले की जलेसर सीट से पार्टी के उम्मीदवार हैं। इलाहाबाद से सपा सांसद कुंवर रेवती रमण सिंह के पुत्र उज्जवल रमण सिंह एक बार फिर से अपने पिता की परम्परागत इलाहाबाद जिले की करछना सीट से पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। वहीं भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे परिवहन मंत्री राम अचल राजभर का टिकट काटने के बाद मायावती ने उनके पुत्र संजय राजभर को अम्बेडकरनगर जिले की अकबरपुर सीट से मैदान में उतारा है। मधुमिता हत्याकांड में निचली अदालत द्वारा आजीवन कारावास की सजा पाए सपा विधायक अमर मणि त्रिपाठी के जेल में बंद होने पर पार्टी ने महाराजगंज जिले की नौतनवां सीट से उनके बेटे अमन मणि त्रिपाठी को टिकट दिया है।
यह एक बानगी मात्र है। सभी को अपनी-अपनी पड़ी है। दल, सिद्घांत,नैतिकता,जनहित,कार्यकर्ता यह सब कहने-सुनने की बातें रह गयी हैं। मौके की बात है। तर्क भी दिए जाते है, जब एक डॉक्टर के बेटा को डॉक्टर और इंजीनियर के बेटा को इंजीनियर बनने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं तो फिर एक राजनेता के बेटे या बेटी को राजनीति में आने पर हाय-तौबा क्यों? तर्क में दम भी है। मगर आपत्ति यहां नहीं, आपत्ति तो उस प्रक्रिया और प्रचलन पर है जिसके तहत राजनेता अपने वारिस को अपनी विरासत सौंपते हैं। यह सब आम कार्यकर्ताओं की कीमत पर होती है। जनभावना का ख्याल भी नहीं रहता। वोटबैंक को पैतृक सम्पत्ति मान लिया जाता है। दरअसल पार्टियों और चुनाव क्षेत्रों को पैतृक सम्पति के तौर पर मानने की प्रवृति की वजह से ही परिवारवाद और वंशवाद को राजनीति में फलने-फूलने का अवसर मिला है।

Saturday, January 7, 2012

मुद्दा:भ्रष्टाचार की काली कमाई की चुनौती



  • धनबल और बाहुबल से कै से पार पायेगा आयोग
भ्रष्टाचार की काली कमाई से चुनाव को बचाना चुनाव आयोग के लिए भी चुनौती बनती जा रही है। पिछले दो-तीन दिनों में उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से भारी मात्रा में बरामद हुई राशि और असलहों से यह आशंका पूरी मजबूती से उभरी है कि चुनाव में धनबल और बाहुबल का जमकर उपयोग हो सकता है। विगत पांच वर्षों में प्रदेश में हुए हजारों करोड़ के विभिन्न घोटालों के बाद एक बात तो तय है कि प्रदेश के राजनेताओं के पास अकूत धनराशि आ गयी है। चुनाव को प्रभावित करने के लिए भ्रष्टïाचार की काली कमाई का उपयोग न हो, इस पर भले ही निर्वाचन आयोग सचेत है और तमाम तरह के निरोधात्मक उपाय भी अपना रहा है,मगर अहम सवाल यह भी है कि क्या पूरी तरह से इस तरह के कुत्सित प्रयास को रोकने में आयोग सक्षम हो पायेगा। पिछले एक सप्ताह केअंदर ही करीब पांच करोड़ रुपये, भारी मात्रा में सोने और चांदी के साथ ही असलहों की बरामदगी कहीं न कहीं धनबल और बाहुबल से मुक्त चुनाव पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।
राज्य विधानसभा के चुनाव में पैसे के खेल को रोकने के लिए आयोग तमाम तरह की कवायद कर रहा है। चुनाव आयोग की सख्ती पर सवाल नहीं है, बावजूद इन आशंकाओं से भी मुक्त नहीं हुआ जा सकता है कि चुनाव में धनबल के प्रभाव नहीं होगा। भ्रष्टïाचारी अपनी हरकत से बाज आयेंगे, इस पर भी सवाल है। राजनेताओं के अलावा राजनीतिक संरक्षण में पले-बढ़े रंगदार-ठीकेदार और कारोबारी भी अपने आकाओं के लिए कोई कोर-कसर छोडऩा नहीं चाहेंगे। इसी का मिसाल है कि पिछले एक सप्ताह के दौरान पुलिस चेकिंग में विभिन्न स्थानों से करीब पांच करोड़ रुपए बरामद किए गए हैं। इस रकम की वैधता की जांच का जिम्मा आयकर विभाग को दिया गया है। फैजाबाद में बीकापुर के दो व्यक्तियों से 81 लाख 84 हजार 104 रुपए विगत 5 जनवरी को बरामद किए गए। वहीं गाजियाबाद में तीन स्थानों पर चैकिंग के दौरान 90 लाख रुपए मिले। मेरठ में 40 लाख रुपए बरामद हुए। बरेली में 23 लाख सात हजार छह सौ रुपए मिले। वाराणसी में पांच व्यक्तियों से 19 लाख 50 हजार रुपए और चार किलो चांदी की सिल्ली पुलिस ने बरामद की है। पांच में से चार व्यक्ति सिंगरौली मध्यप्रदेश के और एक वाराणसी का है। इन्हें गिरफ्तार कर पुलिस पूछताछ कर रही है।
बीते गुरुवार की शाम बाराबंकी में चलाये गये चेकिंग अभियान में पुलिस की बरामदगी देर रात तक एक करोड़ 37 लाख 450 नकद रुपयों तक जा पहुंची। इस दौरान जहां पुलिस ने सात असलहे व कारतूस बरामद किये वहीं नौ किलो 816 ग्राम चांदी भी बरामद करने में उसे सफलता मिली। वहीं विभिन्न थाना क्षेत्रों में आधा दर्जन से ज्यादा संदिग्ध लोगों को भी हिरासत में लिया गया। पकड़े गये लोगों से पुलिसिया पूछताछ जारी है। चुनाव आचार संहिता के अनुपालन में निर्धारित सीमा से अधिक धनराशि व शस्त्रों को लाने-ले जाने के लिए डीएम व पुलिस अधीक्षक की पूर्व अनुमति की जरूरत है। चुनाव आयोग का स्पष्टï निर्देश है कि अवैध रूप से होने वाली धनराशियों की आवाजाही पर कड़ी नजर रखी जाए।
आयोग के निर्देश पर ही चेकिंग अभियान की कमान क्षेत्राधिकारियों को दी गयी है। इसी क्रम में प्रदेश की थाना रामसनेहीघाट पुलिस को 70 लाख रूपये बरामद करने में सफलता मिली। थाना प्रभारी रमेश दुबे ताला मोड़ फैजाबाद बाईपास मार्ग के पास चेकिंग कर रहे थे। इसी बीच लखनऊ की ओर से जा रही एक बोलेरो गाड़ी को पुलिस ने रोकी। जब इस गाड़ी की तलाशी ली गयी तो सभी भौंचक रह गये। गाड़ी से कुल 70 लाख रूपया बरामद हुआ। इनमें 500 व 1000 की नोटे थीं। पुलिस के घेरे में आये बलिया निवासी अनिल सिंह ठाकुर व मृत्युजंय कुमार तथा बिहार निवासी अमित कुमार व चालक मनोज तिवारी शामिल हैं। फिलहाल पकड़े गये चारों संदिग्ध व्यक्तियों ने अपने को सरिया का कारोबारी बताया और कहा कि वह व्यापारियों से वसूली की गयी रकम ले जा रहे हैं। पुलिस ने इनके पास से एक लाइसेंसी राइफल भी बरामद की। उधर चेंकिग अभियान में ही पुलिस ने गोसाइगंज लखनऊ निवासी शिवकंठ गुप्ता के पास से 2 लाख व आनंद त्रिपाठी के पास से डेढ़ लाख रूपये बरामद किये। इसके अलावा बाराबंकी कोतवाली नगर पुलिस ने जांच के दौरान नौ लाख 18 हजार रुपये व एक 12 बौर का तमंचा तथा दो कारतूस, कोतवाली फतेहपुर पुलिस ने एक लाख 10 हजार रुपये, थाना रामनगर पुलिस ने 10 लाख 81 हजार 850 रुपये तथा थाना सफदरगंज पुलिस ने 29 लाख 50 हजार रुपये एवं मसौली पुलिस ने बिना अनुज्ञप्ति की एक लाइसेंसी राइफल भी बरामद की हैं। बरामद नकद रकम व असलहों की जांच पड़ताल पुलिस कर रही है।
इसी सिलसिले में हैदरगढ़ कोतवाली क्षेत्र में दरोगा जेबी सिंह व सुबेहा थानाध्यक्ष एसएन सिंह ने सुल्तानपुर की ओर से आने वाली एक इण्डिका कार की जांच की तो उसमें सवार तीन लोगों के पास से रुपयों से भरा एक लाल रंग का बैग मिला, मगर उक्त तीनों युवक पुलिस को चकमा देकर भागने में सफल रहें। इस मामले में फिलहाल पुलिस ने इलाहाबाद निवास कार चालक को गिरफ्तार कर पूछताछ कर रही है। पुलिस के अनुसार उक्त बैग में 60 लाख 37 हजार 390 रुपये थे। चेकिंग अभियान में ही थाना लोनीकटरा के छबील चौकी के पास एक कार से शिवरतनगंज थाना सीएसएम नगर निवासी सुरेश बहादुर, प्रतापगढ़ निवासी अमरजीत, बलिया निवासी रणजीत व राजन तथा लखनऊ निवासी कमलेश के पास से तीन बन्दूकें व दो रीवालवर बरामद किये गए। जांच के दौरान कमलेश के पास से पुलिस ने 6 लाख 30 हजार 210 भी बरामद किये हैं। इन दोनों थाना क्षेत्रों में अब तक कुल 17 लाख 17 हजार 600 रूपया बरामद हुए हैं। पुलिस का कहना है कि बरामद असलहे लाइसेंसी हैं लेकिन हिरासत में लिये गये लोग उसके कागजात नहीं दिखा सके। अब तक हुई ये तमाम बरामदगियां यह साबित करने के लिए काफी है कि धनबली अपने प्रयास में जुटे हैं। इनसे निबटना वाकई चुनाव आयोग के लिए एक कठिन चुनौती है।

Friday, January 6, 2012

कुशवाहा के मुद्दे पर उमा ने दिखाए तेवर



  • चाल,चरित्र और चेहरे का दोहरापन हुआ उजागर
भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के बाद अब उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनाव की कमान संभाल रहीं मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री साध्वी उमा भारती ने भी बसपा के दागी और एनआरएचएम घोटाले के आरोपित बाबू सिंह कुशवाहा सहित अन्य को भाजपा में शामिल कराने को लेकर अपने तेवर सख्त कर लिए हैं। उमा ने साफ कर दिया है कि 9 जनवरी से शुरू होने वाले पार्टी के प्रचार अभियान से वे अपने को अलग रखेंगी। उमा के तेवर के बाद भाजपा के अंदर का खोखलापन भी पूरी तरह से उजागर हो गया है। पार्टी का शीर्ष और केन्द्रीय नेतृत्व भी सवालों के घेरे में हैं। पार्टी के दो फाड़ होने की खबरें भी सतह पर आ गयी है।
दरअसल उमा भारती के तेवर सुविधा के तर्क गढऩे में माहिर भाजपाइयों के चाल,चरित्र और चेहरे के दोहरापन को ही उजागर कर रहा है। उमा ने सवाल उठाया है, अब जनता के बीच जाकर क्या कहेंगे। केन्द्रीय नेतृत्व को इन दागियों को पार्टी मेंं लाने से पहले एक बार मंथन करना चाहिए था। उन्होंने साफ कर दिया है कि ऐसे में वह भाजपा के चुनाव प्रचार से अपने को अलग कर लेंगी। उमा का तर्क है कि एक ओर तो वे लोग गला फाड़ कर काले धन और भ्रष्टïाचार के मुद्ïदे पर जमीन आसमान एक किए हुए हैं,दूसरी ओर भ्रष्टï से भ्रष्टïतम हुए लोगों से भी उन्हें कोई परहेज नहीं है। उनका हमला सीधे तौर पर भाजपा के केन्द्रीय और प्रान्तीय नेतृत्व पर है। उत्तर प्रदेश में अगर पिछड़ों को जोडऩे के लिए भाजपा बाबू सिंह कुशवाहा के नाम पर हर समझौता कर सकती है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उसने इलाके के बाहुबलियों के घर न्यौता भेजना शुरू कर दिया है। जिस सिद्घांत,नीति,दर्शन व अनुशासन को आधार बना कर अब तक भाजपा अपने को पार्टी विद द डिफरेंस बताती रहीं हैं वैसे तो यह जुमला बार-बार तार-तार भी होता रहा है, मगर हालिया यूपी चुनाव के दौरान जो भाजपा का चाल,चरित्र और चेहरा सामने आया है, पार्टी शायद ही उससे अपना पीछा छुड़ा पाये। उमा भारती की यहीं चिन्ता उभर कर सामने आयी है।
सत्ता का सुख ऐसा है जिसको पाने के लिए नैतिकता और सिद्धांत को दांव पर लगाने से अन्य राजनैतिक दलों के साथ अब भाजपा को भी कोई परहेज नहीं है। यह दीगर है कि अब राजनैतिक दलों से जनता के नेता को प्रत्याशी बनाने और उनके कथन पर एतबार करने का जमाना भी लद चुका है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में यह बात स्थापित भी हो रही है। बसपा सरकार को भ्रष्टाचार की गंगोत्री कहने वाली भाजपा अब बसपा से बाहर का रास्ता दिखाए गए भ्रष्ट मंत्रियों और नेताओं का ठिकाना बन गयी है। यहां भी वहीं सुविधा का तर्क है कि भाजपा तो गंगा है जहां आकर पापियों के पाप धूल जाते हैं।
बाबू सिंह कुशवाहा और बादशाह सिंह के बाद अब बसपा से ही निष्कासित और गैंगस्टर एक्ट में बंद धनंजय सिंह के घर पर भाजपा ने दस्तक दी है और धनंजय सिंह के करीबियों को टिकट देने का मन भी बनाया है। संभव है कि यह प्रदेश की चुनावी राजनीति की मजबूरी हो। मगर इसी के साथ भाजपा के सिद्घांत बघारू नेताओं को पूरी ईमानदारी से यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि उसके तमाम आंदोलन और अभियान जो भ्रष्टïाचार और काले धन को लेकर अब तक चलते रहे हैं वह एक पाखंड है। दरअसल उसकी भी एकमात्र चिन्ता चुनावी सफलता हासिल करने की है और इसके लिए कोई भी जायज नजायज तरीके वह अपना सकती है।
मिली जानकारी केअनुसार जौनपुर से बसपा सांसद धनंजय सिंह से कुशवाहा विवाद के बीच ही प्रदेश के बड़े नेता राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह ने जौनपुर जाकर बात की है। पंकज सिंह ने धनंजय सिंह को आफर दिया है कि वे अपनी पत्नी जागृति सिंह को चाहें तो चुनाव मैदान में उतार सकते हैं। भाजपा उन्हें टिकट देने के लिए तैयार है। अब सुविधा का तर्क यह हो सकता है कि गैंगस्टर तो धनंजय सिंह पर लगा है, भला इसमें उनकी पत्नी का क्या दोष? या वह तो पाक-साफ है। ठीक उसी तर्ज पर कि भाजपा तो गंगा है, यहां आकर सभी पापियोंं के पाप धूल जाते हैं। मगर मालूम हो कि धनंजय सिंह ने सिर्फ  पत्नी के लिए ही सीट नहीं मांगी है बल्कि दो अन्य सीटों पर भी दावा कर दिया है। धनंजय सिंह अब भाजपा से एक सीट की बजाय तीन सीट ले रहे हैं ये तीन सीट हैं जौनपुर की मल्हनी, मडियाहू और बदलापुर।  धनंजय सिंह तीनों सीटों पर अपने खास लोगों को उतारना चाहते हैं। खबर के अनुसार भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी धनंजय सिंह को तीन सीट देने के लिए तैयार हो गया है। अगर सबकुछ ठीक रहा तो एक-दो दिन में भाजपा की जो आखिरी सूची आयेगी उसमें धनंजय सिंह के खाते में तीन सीटें होगी।
इस तरह के अभियान के पीछे उत्तर प्रदेश में भाजपा की क्या मंशा है तो यह तो भाजपाई ही अच्छी तरह से समझ पा रहे होंगे मगर जिस तरह से इन मुद्ïदों को लेकर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का अन्तरविरोध खुल कर सामने आया है उससे एक बात तो साफ हो गयी है पार्टी विद द डिफरेंस का जुमला भी भाजपा का एक तरह से पाखंड ही है। कुशवाहा के मुद्ïदे पर पार्टी के वरिष्ठï नेता लाल कृष्ण आड़वाणी की नाराजगी के क्या मतलब है? अभी हाल ही में उन्होंने जेपी की जन्मस्थली सिताबदियारा से 38 दिवसीय भ्रष्टïाचार और कालेधन के खिलाफ देशव्यापी जनजागरण अभियान पूरा किया है। अपनी उस यात्रा में उन्होंने देश के लोगो से भ्रष्टाचार के विरूद्व एकजुट होने का आह्वान किया था। आज उन की पार्टी खुद बसपा से निकाले गये दागी लोगों को लेकर उन के सहारे चुनाव लडऩा चाहती है। उन्हें लेकर प्रदेश में चुनावी सभाएं करना चाहती है। ऐसे दागी लोग जब मंच पर आड़वाणी की बगल में बैठेंगे तो जनता पर क्या असर पड़ेगा? क्या कहेंगे आडवाणी, यदि  जनता ने ये सवाल उछाल दिया कि आखिर अब भाजपा भ्रष्टïाचार के खिलाफ कैसे लड़ेगी भाजपा? तो ये दिग्गज क्या जवाब देंगे। दरअसल यह चुनावी मजबूरी नहीं बल्कि चाल,चरित्र और चेहरे का दोहरापन है,जिसे भाजपा सुविधा के तर्क के आधार पर स्वीकारना नहीं चाहती है। मगर अब जिस तरह से सांसद योगी आदित्यनाथ और भाजपा नेत्री उमा भारती ने तेवर दिखाये हैं उससे कहीं न कहीं भाजपा को खामियाजा भी भुगतना पड़ेगा।





Thursday, January 5, 2012

दिग्विजय सिंह के आरएसएस से घनिष्ठ संबंध

संघ के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर राजेंद्र सिंह रज्जू भैया और विश्व हिंदू परिषद से जुड़े अशोक सिंघल के साथ मंच पर बैठे हुए दिग्विजय सिंह की तस्वीर सामने आने के बाद टीम अन्ना ने हमला बोल दिया है। टीम अन्ना के सदस्य संजय सिंह ने गुरुवार को कहा है दिग्विजय सिंह के आरएसएस से घनिष्ठ संबंध हैं। संजय सिंह का कहना है कि दिग्विजय का बीजेपी और संघ से गहरा नाता है। वे बीजेपी और संघ का नाम नितिन गडकरी से ज़्यादा लेते हैं।  संजय ने कहा, 'दिग्विजय सिंह कांग्रेस के भीतर आरएसएस और भाजपा के सबसे बड़े समर्थक हैं।' लेकिन दिग्विजय सिंह ने तस्वीर सामने आने के बाद अपने बचाव में कहा है कि उस कार्यक्रम में वे कांची के शंकराचार्य के बुलावे पर गए थे और इसके लिए उन्होंने पार्टी से इजाजत ली थी। दिग्विजय सिंह ने कहा, 'आरएसएस से जुड़े लोगों ने अन्ना पर किताब लिखी। क्या उन्होंने मेरे ऊपर किताब लिखी? अन्ना को आरएसएस का समर्थन स्वीकार कर लेना चाहिए। अन्ना को लोगों को यह भी बताना चाहिए कि जनलोकपाल की जरूरत नहीं है, वे सभी बीजेपी में शामिल हों और उनका शुद्धिकरण हो।'
मजबूत लोकपाल की मांग कर रहे अन्ना हजारे को आरएसएस का एजेंट साबित करने में जुटी रही कांग्रेस को अब संघ जवाब देने की तैयारी की है। संघ के मुखपत्र पांचजन्य के अगले में अंक में संघ अन्ना और उनके सहयोगियों पर सबसे ज़्यादा हमला करने वाले दिग्विजय सिंह की पोल खोलने की तैयारी है।
अन्ना हजारे और समाजसेवी नानाजी देशमुख के रिश्तों का दावा कर टीम अन्ना को बैकफुट पर धकेलने की कोशिश कर चुके दिग्विजय सिंह की संघ और वीएचपी नेताओं के साथ मंच पर तस्वीर खोज निकाली गई है। इसमें कांग्रेस महासचिव हरिद्वार में आयोजित 1997 के विराट हिंदू सम्मेलन के दौरान संघ के तत्कालीन प्रमुख प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया और विश्व हिंदू परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक सिंघल के बीच बैठे नजर आ रहे हैं। यूपी चुनाव के बीच रज्जू भैया और अशोक सिंघल के साथ दिग्विजय सिंह की करीबी कांग्रेस के उत्तर प्रदेश के प्रभारी पर भारी पड़ सकती है। पांचजन्य के इस अंक में सिर्फ तस्वीर ही नहीं बल्कि लेख के जरिए भी दिग्विजय सिंह को जवाब देने की योजना है। ‘अपने गिरेबां में झांके दिग्विजय सिंह’ शीर्षक से लेख में आरएसएस की भारत के प्रति निष्ठा और समर्पण साबित करने के लिए बताया गया है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1963 में आरएसएस के निवेदन के बाद संघ को गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने की इजाजत दी थी।

Wednesday, January 4, 2012

कीचड़ में कमल तो हाथ और हाथी के साथ का कयास


राकेश प्रवीर
उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सियासी जोड़तोड़ तेज होते ही भाजपा की किरकिरी भी शुरू हो गयी है। भाजपा ने बसपा सरकार से भ्रष्टाचार के आरोपों पर निष्कासित चार मंत्रियों को गले क्या लगाया उसके अंदर भी फूट केस्वर उभरने लगे हैं। माना जा रहा है कि भाजपा कीचड़ में कमल खिलाने चली है। दूसरी ओर भ्रष्टïाचार के आरोपितों के ठिकानों पर हुई सीबीआई की छापेमारी को लेकर भी जहां कांग्रेस पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए है वहीं कांग्रेस और बसपा के सियासी संबंधों को लेकर भी कयास लगने शुरू हो गए हैं। सवालों के शक्ल में यह भी उभर रहा है कि क्या हाथ और हाथी साथ हो गए हैं?
एनआरएचएम घोटाले में आरोपी प्रदेश के पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल करना भाजपा के लिए मुश्किल का सबब बनता जा रहा है। भाजपा के अंदर से मिली जानकारियों के अनुसार कुशवाहा को पार्टी में शामिल किए जाने पर भाजपा में मतभेद काफी गहरा गया है। इस मतभेद की वजह से भाजपा दो फाड़ हो सकती है। बताया जा रहा है कि कुशवाहा के पक्ष में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के अलावा उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही और वरिष्ठï नेता विनय कटियार हैं जबकि विपक्ष में सुषमा स्वराज, मुख्तार अब्बास नकवी और एस एस अहलूवालिया हैं। कुशवाहा और उनके सहयोगियों के ठिकानों पर सीबीआई की छापेमारी और विरोधी दलों के हमले से पैदा हुए हालात पर चर्चा के लिए बुधवार को  आला नेताओं की गडकरी के आवास पर आपात बैठक हुई। बताया जा रहा है कि दागी मंत्री को भाजपा में शामिल किए जाने से पार्टी के कई नेता नाराज हैं। ऐसे में भाजपा आलाकमान पर बाबू सिंह कुशवाहा को आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं देने का दबाव बढ़ गया है।
भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति की भी बुधवार को ही अहम बैठक हुई जिसमें उत्तर प्रदेश में पार्टी के 100 उम्मीदवारों के नाम पर चर्चा हुई। फिलहाल भाजपा की ओर से यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि जब कुशवाहा बसपा में थे तो उस वक्त सीबीआई ने उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की? उत्तर प्रदेश भाजपा की वर्किंग कमेटी के सदस्य आई पी सिंह ने माना है कि कुशवाहा को भाजपा में शामिल किया जाना बड़ी भूल है। सूत्रों के हवाले से मिली खबर के मुताबिक भाजपा के सीनियर नेता लाल कृष्ण आडवाणी बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल किए जाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन गडकरी के कहने पर कुशवाहा को भाजपा में जगह मिली।  अब कुशवाहा के साथ एक और दागी मंत्री बादशाह सिंह को भी भाजपा से निकालने का दबाव बन रहा है। 
भाजपा नेता किरीट सोमैया ने हाल में मायावती सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए एनआरएचएम घोटाला में साफ तौर पर बाबू सिंह कुशवाहा का नाम लिया था।  भ्रष्टाचार के आरोप में मायावती सरकार से बाहर किए गए कुशवाहा सहित कई बसपा नेताओं को विपक्षी सपा और कांग्रेस ने मुद्ïदा बनाकर भाजपा पर हमला बोल दिया है। कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी ने आरोप लगाया है कि भाजपा भ्रष्टाचारियों के लिए धर्मशाला बन गई है। उन्होंने कहा ऐसा लगता है कि यूपी चुनाव में भाजपा का सफाया होने वाला है। यूपी कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने कहा है कि भाजपा के पास विधानसभा चुनाव के लिए उम्म्मीदवारों की कमी हैं इसलिए वह बसपा से निकाले गए नेताओं को अपना बना रही है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी चुटकी ली है। दिग्विजय सिंह ने इंटरनेट पर लिखा है कि बीएसपी के कलंक बीजेपी के तिलक। बीजेपी ने बसपा के दागी मंत्रियों को अपनाया और टिकट दिया। यह बीजेपी का असली चाल, चरित्र और चेहरा है।
दरअसल केंद्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ  कांग्रेस को घेर रही भाजपा ने बाबू सिंह कुशवाहा और बादशाह सिंह जैसे घोटाले के आरोपी को गले लगा कर एक तरह से उत्तरप्रदेश में सभी को हैरान कर दिया है। माया सरकार से भ्रष्टाचार के आरोपों पर निकाले गए मंत्रियों को उसने चौकीदार बताते हुए अपनी पार्टी में ले लिया। उस दौरान पार्टी उपाध्यक्ष विनय कटियार ने एनआरएचएम घोटाले के संदिग्ध बाबूसिंह कुशवाहा को गले भी लगाया। इसके अलावा बसपा सरकार से निकाले गए दो मंत्रियों अवधेश वर्मा और ददन मिश्र को पार्टी पहले ही उम्मीदवार बना चुकी है। पार्टी नेताओं का कहना है कि इनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कोई सबूत नहीं हैं।
प्रदेश की राजनीति में भाजपा की इस कार्रवाई से एक तरह से हलचल पैदा हो गयी है। दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष अखिलेश यादव ने भाजपा से उलट स्टैंड लेते हुए स्पष्ट किया कि सपा में भ्रष्टï और अपराधियों के लिए कोई जगह नहीं है। कानून का उल्लंघन करने वाले के खिलाफ  कार्रवाई होगी। खराब छवि वालों को सपा से दूर रखा जायेगा। आम तौर पर जहां भाजपा की हालिया कार्रवाई से राजनीतिक गलियारे में चर्चा का बाजार गर्म है वहीं दूसरी और बसपा और कांग्रेस के संबंधो को लेकर भी नए सिरे से पड़ताल शुरू हो गयी है। एनआरएचएम घोटाले को लेकर हुई छापेमारी के बाबत भी कांग्रेस पर सवाल उठाया जाने लगा है। दूसरी ओर यह भी कयास लगाया जा रहा है कि छापेमारी की कार्रवाई कहीं न कहीं बसपा और कांग्रेस के बीच संबंधों के सुधरने का संकेत तो नहीं?

Tuesday, January 3, 2012

देश की दशा-दिशा तय करेगा यूपी का चुनाव

उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव पर न केवल देश की प्रमुख सियासी पार्टियों बल्कि आम जनता की नजरें भी लगी हुई हैं। माना जा रहा है कि यह चुनाव न केवल आगामी दिनों के लिए प्रदेश का भविष्य और भाग्य तय करेगा बल्कि साल 2014 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव की दशा-दिशा भी निर्धारित करेगा। ऐसे मेंं यहां क्षेत्रीय व राष्टï्रीय राजनीतिक दलों की सक्रियता बढऩा लाजिमी है। इस बार यहां सपा और बसपा जहां चुनाव मैदान के मुख्य खिलाड़ी हैं वहीं कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्टï्रीय पार्टियों को भी अपनी निर्णायक भूमिका अदा करने का मौका है।
इन सभी राजनीतिक पार्टियों ने इस बार के विधान सभा चुनाव को केन्द्र की सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी मान कर अपने को दांव पर लगाया है। कहा यह भी जा रहा है कि इस बार जो दल यहां से जितना बल हासिल करेगा आगामी 2014 के लोकसभा के चुनाव मेंं वह उतना ही बलशाली साबित होगा। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपने कार्यकर्ताओं और पार्टीनेताओं को सम्बोधित करते हुए इसका संकेत भी दे दिया है। बसपा प्रमुख मायावती को भी यही चिन्ता सता रही है कि अगर इस बार सत्ता हाथ से चली गयी तो फिर आगामी लोकसभा चुनाव में भी किसी करिश्में की उम्मीद नहीं रहेगी। वहीं कांग्रेस और भाजपा का ध्यान भी उत्तर प्रदेश विधान सभा मेंं कोई धमाल करने से कहीं ज्यादा लोकसभा चुनाव पर ही है। स्वभाविक भी है 75 जिलों और 20 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश जहां से देश के संसद के लिए करीब 16 प्रतिशत प्रतिनिधि चुन कर जाते हैं कि अनदेखी किसी के लिए भी आसान नहीं है। कहा तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की सारी कवायदें दरअसल लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास ही है।
वैसे जिस तरह से बिना संगठन के मजबूत ढांचे के कांग्रेस ने अपने नायक राहुल गांधी के भरोसे यूपी मेंं जिस तरह से दांव लगाया है वह काबिलेगौर है। यूपी मिशन की कमान संभाले राहुल गांधी भी यह मानते हैं की बिना जनता में सीधे जाए कुछ नहीं होने वाला। आज प्रदेश में कांग्रेस  के प्रत्याशी  ये मानकर चल रहे हैं की जब और जिस भी विधान सभा क्षेत्र में राहुल या सोनिया गांधी आ जायेंगी बस सारे वोट उसे ही मिल जायेंगे। मगर राहुल गांधी को अहसास है कि ऐसा नहीं होने वाला है। इसी लिए अब तक अपने सभी दौरे में उन्होंने प्रदेश के कांग्रेसियों को जनता से जुडऩे का सबक देते रहे हैं। जनता से बढ़ी दूरी आज यूपी में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी समस्या है। इससे उबरने का मंत्र शायद राहुल गाध्ंाी के पास भी नहीं है।  देशव्यापी बढ़ती महँगाई, काला धन वापसी की मांग और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का प्रभाव इस बार के विधान सभा चुनाव में जरूर पड़ेगा ही। राष्टï्रीय स्तर पर हो रही कांग्रेस और उसके नेताओं की बदनामी  तथा जनता के बीच दिनोंदिन बढ़ती अलोकप्रियता के बाद यह सवाल तो स्वाभाविक है कि आखिर जनता कांग्रेस को क्यों वोट दें। इसका जवाब न केवल कांग्रेसी उम्मीदवारों को बल्कि उसके स्टार प्रचारकों को भी इस चुनाव के दौरान देना होगा।
दूसरी राष्ट्रीय पार्टी भाजपा है जिसमें हताश, निराश और गुटबाज नेताओं का जमावड़ा है। आज कोई भी नेता अपने दल के प्रति समर्पित नहीं दिख रहा है। सबकों अपनी-अपनी पड़ी है। किसी को अपने कुनबे की चिन्ता है तो कोई स्वजातीय हितलाभ के लिए दुबला हो रहा है। शेष बचे नेता अपना प्रोफाइल ठीक-ठाक रखने के लिए बड़े नेताओं की परिक्रमा कर रहे हैं। पार्टी हित कहीं पीछे छुट गया है। प्रत्याशियों के चयन और उनकी सूची की घोषणा में हुई देरी और खींचतान से यह साफ हो गया है कि भाजपा नेतृत्व या तो विधान सभा चुनाव को लेकर गंभीर नहीं है या फिर उसके शीर्ष नेताओं की यूपी में जारी खींचतान के बीच चल नहीं रही है। भारी-भरकम शब्दों की जुगाली करते भाजपा के स्थानीय नेता भी जनता और उसकी समस्याओं से कट चुके हैं। भाजपा के पास इस प्रदेश में ऐसा कोई मुद्ïदा भी नहीं है जिसके आधार पर वह जनता को अपने पक्ष में गोलबंद कर सके। दूसरी ओर बार-बार बसपा से की गयी गलबहिया का भूत भी उसका पीछा छोडऩे के लिए तैयार नहीं है। आखिर ऐसे में बसपा से ऊबी जनता भाजपा पर क्यों भरोसा करे।
बहुजन समाज पार्टी के लिए यह चुनाव अपने अस्तित्व और अस्मिता का सवाल है। घर में हारे तो जग से हारे वाली स्थिति में बसपा फंस गयी है।  बिना किसी विचार और नीति के केवल सत्ता पर काबिज रहने की बसपा सुप्रीमो की मानसिकता ने जनता की निगाह में इस दल कों सबसे अलोकप्रिय बना दिया है। सरकारी अधिकारियों की दम पर वसूली करती सरकार अपनी प्रासंगिकता खो बैठी है। ऐने चुनाव के मौके पर पार्टी क्लीन का अभियान भी लफ्फाजी ही साबित हो रहा है। लूट के जिम्मेदार मंत्री रणक्षेत्र में बागी बन कर कूद पड़े हैं तो उसके हिस्सेदार अफसर तेजी से पाला बदल रहे हैं। पार्टी का हर तीसरा विधायक और दूसरा मंत्री लोकायुक्त की जांच के दायरे में है। विगत चुनाव में कारगर रहा जातीय समीकरण पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। जनाधार तेजी से खिसका है। इस दल का यह इतिहास भी रहा है कि सत्ताविमुख होते ही टूट का शिकार भी होता रहा है। इस बार भी इतिहास अपने को दोहरायेगा नहीं ऐसा नहीं कहा जा सकता है। बसपा सुप्रीमो भी इस तथ्य से अनजान नहीं है। लूट की पर्याय बनी सरकार और दल पर एक बार फिर जनता क्यों भरोसा करे? दरअसल बसपा के साथ सवाल अब भरोसा का भी नहीं है। जनता से ज्यादा अब पूर्व बसपाई ही बसपा की मिट्ïटी पलीद करेंगे।
सत्ता के खेल में सबसे बड़ी संभावनाओं वाली पार्टी फिलहाल सपा ही साबित हो रही है। बदलाव कीउम्मीद पाले जनता की नजरें सपा की ओर लगी है। सपा की यह बड़ी जिम्मेवारी भी है कि वह अपनी संगठनात्मक खामियों को बिना किसी देरी दूर करते हुए जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरी उतरे। समाजवादी पार्टी की पिछले विधान सभा के चुनाव में पिछड़ा जातियों के महासमूह के निर्माण की अति महत्वाकांक्षी योजना के तहत कल्याण सिंह को साथ लेने से बिदके मुसलमान आज परिस्थिति बस एक बार फिर पूरी तरह से साथ है। पिछड़ों की गोलबंदी भी पहले से कहीं बेहतर दिख रही है। सत्ता परिवर्तन की आम लोगों की बेचैनी सपा के पक्ष में माहौल बना रहा है। तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस अब तक मुसलमानों को लुभाने और पिछड़ोंं को तोडऩे में कामयाब नहीं हो सकी है। पश्चिमांचल में जहां सपा का जनाधार बढ़ा है और कई पूर्व की हारी सीटों पर भी जीत की संभावनाएं बढ़ी है वहीं पूर्वांचल में भी पकड़ मजबूत हुई है। अमर सिंह जैसे नेताओं की सपा से मुक्ति भी इस बार पक्ष में है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि सपा इस बार न केवल बड़ी उपलब्धि की ओर है बल्कि जनता की उम्मीदें भी उससे जुड़ी है।
इन स्थितियों में सत्ता में अधिकतम हिस्सेदारी पाने के लिए अजीत सिंह का लोकदलए डाण् अयूब की पीस पार्टीए कृष्णा पटेल की अपना दलए अमर सिंह की राष्ट्रीय लोक.मंच और राजा बुन्देला की बुदेलखण्ड कांग्रेस ने भी अपनी बिसातें बिछा रखी हैंण् प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य बहुत स्पष्ट नहीं हैण् पर इतना सभी दल मानते हैं की दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता हैण् सभी की निगाहें 2014 के लोक सभा चुनावों पर गड़ी हैंण् सारे राजनीतिक दल इस चुनाव को सत्ता के खेल का सेमी फाइनल मान रहे हैं तों हर्ज भी क्या हैघ्

Monday, January 2, 2012

अड़ंगेबाजी से यूपी भाजपा का बंटाधार


भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं के अहं और खींचतान में प्रत्याशियों की सूची फंसी हुई है। सूची जारी नहीं होने से निराश भाजपाइयों का मानना है कि इस  अड़ंगेबाजी की वजह से भाजपा का बंटधार हो सकता है। प्रदेश के कतिपय बड़े नेताओं की गुटबाजी की वजह से ही प्रत्याशियों के नामोंं को अंतिम रूप देने का मामला चुऩाव तिथियों की घोषणा हो जाने के बाद भी उलझ नहीं पा रहा है।
सूत्रों की मानें तो प्रदेश विधान सभा के लिए भाजपा उम्मीदवारों की सूची और लटक सकती है। शेष बची सीटों के लिए प्रत्याशियों के नामों की सूची केंद्रीय संसदीय बोर्ड एक साथ फाइनल करेगी। संभावना है कि नये साल के दूसरे या तीसरे दिन बोर्ड सूची को अंतिम रूप दे। इधर, टिकट बंटवारे में हो रही देरी से जहां टिकटार्थियों में उहापोह की स्थिति हैं वहीं भाजपा के आधार वोटर भी असमंजस की स्थिति में फंसे हुए हैं। टिकट फाइनल नहीं होने की वजह से ही अनेक क्षेत्रों में भाजपा का चुनाव प्रचार अभियान गति नहीं पकड़  रहा है,जबकि अन्य राजनीतिक दलों की गतिविधियां क्षेत्र में काफी बढ़ी हुई हैं।
सूत्रों की मानें तो टिकट बंटवारे में जनता दल यूनाइटेड  से सीटों के तालमेल के अलावा कुछ सीटों पर एक से अधिक नाम होने व प्रांतीय व राष्ट्रीय नेताओं के अहं के कारण भी संसदीय बोर्ड को उम्मीदवारों के नाम घोषित करने में परेशानी आ रही है। बिहार में प्रभावी जद यू का दावा गोरखपुर मंडल के साथ ही बिहार से सटे पूर्वांचल की कई सीटों पर है। इनमें से कई ऐसी भी सीटें है जिनपर भाजपा का कब्जा है। बिहार में जदयू के प्रभाव और उसके नेतृत्व में चल रही सरकार की वजह से भाजपा आलाकमान को भी जदयू की मांग को दरकिनार करने में परेशानी महसूस हो रही है।
सूत्रों का यह भी कहना है कि प्रदेश की कोर कमेटी ने केंद्रीय संसदीय बोर्ड को उम्मीदवारों की जो सूची भेजी है उसमें से कुछ सीटों पर एक से अधिक नाम हैं। जिसकी वजह से बोर्ड ने इसे दुबारा प्रदेश की कोर कमेटी को वापस कर दिया है। कोर कमेटी के समक्ष उलझन यह है कि जिन सीटों पर उसने एक से अधिक नाम दिए हैं उनमें से कई अपने क्षेत्र में जनाधार रखने वाले नेताओं के है। इनकी नाराजगी से बचने के लिए कोर कमेटी ने गेंद केंद्रीय संसदीय बोर्ड के पाले में डाल दी थी। पर अब दुबारा कोर कमेटी को ही इस पर निर्णय लेकर संसदीय बोर्ड को भेजना है। इसी कवायद में सूची अटकी हुई है। जानकारों की मानें तो पहले यह सूची दिसंबर के अंतिम सप्ताह में फाइनल होने वाली थी। भाजपा चुनाव प्रबंधन समिति से जुड़े एक नेता का कहना है कि संसद के सत्र और लोकपाल को लेकर बढ़ी व्यस्तता के कारण ही संसदीय बोर्ड को सूची को अंतिम रूप देने में विलम्ब हुआ,मगर अब दो-तीन दिनों के अंदर अंतिम सूची जारी कर दी जायेगी।

वरिष्ठ पत्रकार गंगवार का निधन

वरिष्ठ पत्रकार महेश्वर दयालु गंगवार का दिल का दौरा पड़ने से निधन नई दिल्ली (वार्ता)। वरिष्ठ पत्रकार महेश्वर दयालु गंगवार का रविवार को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। वह 70 वर्ष के थे। श्री गंगवार के परिवार में उनकी पत्नी, एक पुत्र और तीन पुत्रियां हैं। उनकी पत्नी दिल्ली नगर निगम की पार्षद हैं। दिवंगत गंगवार ...का अंतिम संस्कार रविवार को निगम बोध घाट पर हुआ जिसमें बडी संख्या में पत्रकार, नेता और कई गणमान्य लोग शामिल हुए। उन्होंने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत साप्ताहिक दिनमान से की थी ।वह दिल्ली से प्रकाशित संडे मेल और समाचार मेल के संपादक भी रहे। श्री गंगवार देश के सबसे ब\डे पत्रकार संगठन नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट्स के महासचिव, दिल्ली पत्रकार संघ के अध्यक्ष, कनफडरेशन ऑफ न्यूजपेपर एंड न्यूज एजेंसी इंपलाइज एसोसिएशन की कार्यकारिणी के सदस्य और प्रेस काउंसिल के सदस्य भी रहे थे। पत्रकारों के लिए गठित विभिन्न वेतन आयोगों में पत्रकारों और गैर पत्रकारों का पक्ष रखने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी। कनफडरेशन के अध्यक्ष एमएस यादव, एनयूजे के अध्यक्ष प्रज्ञानंद चौधरी और महासचिव रासविहारी,बिहार इकाई के महासचिव राकेश प्रवीर और अध्यक्ष आर के बिभाकर, दिल्ली पत्रकार संघ के अध्यक्ष मनोज वर्मा और महासचिव अनिल पांडे सहित देशभर के विभन्न पत्रकार संगठनों ने उनके निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया ।