Wednesday, August 28, 2019

पटना हाईकोर्ट के इतिहास में पहली बार न्यायपालिका पर तल्‍ख टिप्‍पणी

पटना हाईकोर्ट के सीनियर जज राकेश कुमार ने जब बुधवार को पूर्व आईएएस केपी रमैय्या की खारिज अग्रिम जमानत याचिका पर सुनवाई की तो उन्होंने न केवल राज्य सरकार के भ्रष्ट अधिकारियों की खिंचाई की, बल्कि उच्च न्यायपालिका तक को भी नहीं छोड़ा। कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचारियों को न्यायपालिका से ही संरक्षण मिल जाता है, जिस कारण उसके हौसले बुलंद रहते हैं। पटना हाईकोर्ट के इतिहास में यह पहला न्यायिक आदेश है, जिसमें खुद न्यायपालिका को भी कठघरे में खड़ा कर दिया गया है। कोर्ट ने करीब दो घंटे में लिखाये गए आॅर्डर की प्रतिलिपि पीएमओ, कॉलेजियम, केन्द्रीय कानून मंत्रालय और सीबीआई के निदेशक को अग्रसारित करने का निर्देश दिया।    

बुधवार को बिहार महादलित विकास मिशन योजना में 5.55 करोड़ के घोटाले के आरोपी पूर्व आईएएस रमैय्या को निचली अदालत द्वारा जमानत दिए जाने पर कोर्ट ने कहा कि जिस एडीजे के खिलाफ  भ्रष्टाचार का मामला साबित हुआ, उसे बर्खास्तगी की जगह मामूली सजा मिली।
बताते चलें कि पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय खंडपीठ ने केपी रमैय्या को निचली अदालत में सरेंडर करने का निर्देश दिया था। नियमत: विजिलेंस से जुड़े होने के कारण विजिलेंस जज मधुकर कुमार की अदालत में जमानत पर सुनवाई होनी चाहिए थी। वे एक दिन की छुट्टी पर थे और उनकी जगह पर प्रभारी न्यायिक पदाधिकारी विपुल कुमार सिन्हा को चार्ज सौंपा गया था। उसी दिन रमैय्या ने बेल-कम-सरेंडर याचिका दायर कर बड़ी आसानी से जमानत ले ली थी। 
न्यायाधीश कुमार ने कहा कि यह बाद में पता चला कि मुख्य न्यायाधीश के आगे-पीछे हाईकोर्ट के सीनियर जज तक लगे रहते हैं, ताकि उनका भ्रष्टाचार भी छिप जाए। उन्होंने ने कहा कि जब हमने न्यायाधीश पद की शपथ ली थी, तब से देख रहा हूं कि सीनियर जज भी मुख्य न्यायाधीश को मस्का लगाने में मशगूल रहते हैं, ताकि उनसे कोई फेवर लिया जा सके और भ्रष्टाचारियों को भी संरक्षण मिलता रहे।
एकलपीठ ने अपने आदेश में यह भी कहा कि पटना हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के लिए बेली रोड, सर्कुलर रोड एवं अणे मार्ग में बंगले आवंटित किये जाते हैं, लेकिन इसके साज-सच्जा में करोडों रुपये खर्च कर दिए जाते हैं। जबकि यह टैक्स पेयर की ही दी हुई राशि होती है।
गौरतलब है कि राकेश कुमार हाईकोर्ट के वरीय न्यायाधीश हैं और वे हाईकोर्ट प्रशासन के महत्वपूर्ण अंग भी हैं। उन्‍होंने सवाल किया केपी रमैय्या की सुप्रीम कोर्ट से जमानत खारिज होने के बाद भी उनको किस परिस्थिति में उन्हें नियमित जमानत दे दी गई? कोर्ट ने कहा कि जिला जज इस पूरे प्रकरण की जांच करें और तीन सप्ताह के भीतर अपनी जांच रिपोर्ट हाईकोर्ट में पेश करें। 
क्‍या कहा जज ने
हाईकोर्ट के न्यायाधीश को बंगला आवंटित होते ही रख-रखाव और साज-सज्‍जा पर लाखों रुपये खर्च किये जाते हैं। एक जज ने तो अपने बंगले के रख-रखाव और सौंदर्यीकरण में एक करोड़ से भी ज्यादा रुपये खर्च करवा दिए,जबकि यह राशि गरीब जनता की गाढ़ी कमाई की है।
- जस्टिस राकेश कुमार 
पटना जिला अदालत में रिश्वतखोरी के स्टिंग ऑपरेशन की सीबीआई जांच
हाईकोर्ट की इसी पीठ ने पटना जिला न्यायालय में हुए रिश्वतखोरी के मामले में सीबीआई को जांच का आदेश दे दिया है। सीबी आई को तीन सप्ताह के अंदर जांच रिपोर्ट कोर्ट में पेश करने का निर्देश दिया है। मालूम हो कि एक निजी चैनल द्वारा 17 अधिकारियों के खिलाफ  स्टिंग ऑपरेशन किया गया था, जिसमें यह दिखाया गया था कि किस प्रकार से ये अधिकारी अभियुक्तों की मदद करते हैं। इस प्रकरण में किसी भी कर्मचारी एवं अधिकारी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं हुई। इस पर अदालत ने कड़ी नाराजगी जताई। कोर्ट ने कहा कि न्यायपालिका से जुड़े लोगों को भी नहीं बख्शा जाना चाहिए। पटना हाईकोर्ट के इतिहास में यह पहला न्यायिक आदेश है जिसमें खुद न्यायपालिका को भी कठघरे में खड़ा कर दिया गया है। कोर्ट ने करीब दो घंटे में लिखाये गए आॅर्डर की प्रतिलिपि पीएमओ, कॉलेजियम, केन्द्रीय कानून मंत्रालय और सीबीआई के निदेशक को अग्रसारित करने का निर्देश दिया।

देश के साथ 1962 में वामपंथियों की गद्दारी


चीन से मिली पराजय के बाद 26 जनवरी 1963 
को दिल्ली के रामलीला मैदान पर गणतंत्र दिवस समारोह आयोजित हुआ था। उस समारोह में जब लता मंगेशकर ने कवि प्रदीप द्वारा रचित और चितलकर रामचंद्र द्वारा संगीतबद्ध गीत “ऐ मेरे वतन के लोगों” गाया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू सहित मैदान में उपस्थित सभी लोग रो पड़े थे। इस गीत के मर्म ने कितने भारतीयों को अब तक कितना रुलाया और मायूस किया है, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता। लेकिन उस शर्मनाक पराजय की स्मृति में 1962 के गद्दारों को याद करना जरुरी है जो आज भी भारत के वजूद को मिटाने पर तुले हुए है।
आज़ादी के संघर्ष के दौरान देशद्रोही वामपंथियों की अंग्रेजों से यारी जगत प्रसिद्ध है। अंग्रेजों के जाने के बाद भी वामपंथियों का भारत विरोध थमा नहीं बल्कि वे लगातार भारत विरोधियों के हाथों में खेलते रहे। लम्बे संघर्ष और बलिदानों के पश्चात् भारत को मिली आज़ादी वामपंथियों को कभी रास नहीं आई। वे लगातार लेलिन और माओ के इशारे पर भारत को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे। आजाद भारत लगातार विदेशी षड़यंत्र का शिकार बना और आज़ादी मिलने के तुरंत बाद कई युद्ध झेलने को मजबूर हुआ। एक तरफ पाकिस्तान लगातार हमले पर हमले किये जा रहा था तो दूसरी तरफ चीन भी भारत को अपना शिकार बनाने के फ़िराक बनाने में जुटा था।
पश्चिमी जीवनशैली जीवन जीनेवाले लेकिन वामपंथियों के विचारों से प्रभावित नेहरु के हिंदी-चीनी भाई भाई के नीति के मूल में भी वामपंथियों का ही दिमाग काम कर रहा था। लेकिन कौन जानता था कि भाईचारा की आड़ में भारत के वजूद को मिटाने का अभियान चल रहा है। 1962 का युद्ध हुआ और इस भारत-चीन युद्ध के दौरान भारतीय कम्युनिस्टों ने अपनी असली पहचान उजागर करते हुए चीन सरकार का समर्थन किया। वामपंथियों ने यह दावा किया कि “यह युद्ध नहीं बल्कि यह एक समाजवादी और एक पूंजीवादी राज्य के बीच का एक संघर्ष है।” कलकत्ता में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बंगाल के सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने तब चीन का समर्थन करते हुए कहा था – “चीन कभी हमलावर हो ही नहीं सकता (China cannot be the aggressor)”. ज्योति बसु के समर्थन में तब लगभग सारे वामपंथी एक हो गए थे। सभी वामपंथियों का गिरोह इस युद्ध का तोहमत तत्कालीन भारत सरकार के नेतृत्व की कट्टरता और उत्तेजना के मत्थे मढ़ रहे थे। कुछ वामपंथी थे जिन्होंने भारत सरकार का पक्ष लिया, उनमे एसए डांगे प्रमुख थे। लेकिन डांगे के नाम को छोड़ दें तो अधिकांश वामपंथियों ने चीन का समर्थन किया। ई एम एस नम्बुरिपाद (E.M.S. Namboodiripad), ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत के अलावा कुछ प्रमुख नाम जो चीन के समर्थन में नारे लगाने में जुटे थे उनमे बी टी रानादिवे (B. T. Ranadive) , पी. सुंदरय्या (P. Sundarayya), पीसी जोशी (P. C. Joshi), बसवापुन्नैया (Basavapunnaiah) शामिल है।
बंगाल के वामपंथी तो भारत-चीन युद्ध के समय खबरिया चैनलों की तर्ज़ पर सारी सूचनाये इकठ्ठा करके भेदिये का काम कर रहे थे। युद्ध से बुरी तरह टूटने के बावजूद वामपंथी मोह में फंसे नेहरु ने इन देशद्रोहियों को फांसी पर लटकाने के वजाए सभी गद्दारों को जेल भेजने का काम किया। सभी जानते है कि 62 के युद्ध में मिली हार नेहरू को बर्दास्त नहीं हुआ और अंततः उनकी मौत की वजह बनी। दिनकर ने तब कहा था – “जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनका भी अपराध”। ये वामपंथी भले ही आज मुख्यधारा में शामिल होने का नाटक करते हो। राजनितिक दल बनाकर लोकसभा, विधानसभा का चुनाव लड़ने, भारतीय संविधान को मानने और भारत भक्त बनने के दावें करते हों, इनकी भारत के प्रति निष्ठा पर यकीन करना बड़ा मुश्किल लगता है। सोवियत संघ रूस के बिखरने से वामपंथ और वामपंथी मिटने के कगार पर है, क्योंकि आज न तो इन्हें वामपंथी देशों से दाना-पानी चलाने को पैसा मिल रहा है और न ही राजनीतिक समर्थन। फिर भी भारत विरोध के इनके इरादे कमजोर नहीं हुए है। आज के समय में ये जल-जंगल-जमीन की लडाई के नाम पर भारत के प्राकृतिक संसाधन पर कब्ज़ा ज़माने और भारत की लोकतान्त्रिक ढांचे को ख़त्म करने का लगातार षड्यंत्र रच रहे है। भारत विरोधी सारे संगठनों के गिरोह के तार उन्ही लोगो से जुड़े है जो आज़ादी से पहले अंग्रेजो का और आज़ादी के बाद भारत विरोधियों का साथ देते रहे है। इनके इरादे आज भी देश की सरकार को उखाड़कर, भारत की संस्कृति-सभ्यता को मटियामेट करने व भारत नाम के देश का अस्तित्व मिटने का ही है। मानवाधिकारों की लडाई लड़ने का ढोंग रचने वालें भारतीय वामपंथी आज भी नक्सलियों और माओवादियों के द्वारा जब निर्दोष लोग मारे जाते है, तब इनके मुहं से एक शब्द सुनाई नहीं पड़ते। जब चीन अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता है, तब भी वे चुप ही रहते हैं।
वैसे समय में जब हम 1962 के युद्ध के जख्मों को याद कर रहे है, इन गद्दारों से जुड़े संगठनों की भूमिका को याद करना और उसे नयी पीढ़ी को बताना जरुरी है। आज चीन एकतंत्रीय तानाशाही के माध्यम से विश्व की महाशक्ति बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। इसके लिए वह सारे हथकंडे अपना सकता है जो उसने 1962 में आजमाया था। चीन द्वारा साम्राज्यवादी राजनीतिक और आर्थिक नीति अपनाने की वजह से आज भारत के संप्रभुता और सुरक्षा के समक्ष गंभीर खतरे उत्पन्न हो गए है। लेकिन भारत की सरकार लगातार चीनी मंसूबों को कामयाब होने दे रही है और उत्पन्न खतरे को दरकिनार कर चीन का पिछलग्गू बना हुआ है। भारत सरकार की इस नीति से 62 के युद्ध में शहीद हुए भारतभक्त सैनिको की आत्मा आज भी शांति की तलाश में है।
(प्रवक्ता.कॉम से साभार)

न बाबर अयोध्या आया, न मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गईः SC में पक्षकार


मुगल बादशाह बाबर ना कभी अयोध्या आया और ना ही उसने विवादित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद स्थल पर 1528 में मस्जिद बनाने के लिए मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया. ये बात हिंदू पक्षकार ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के सामने कही.
मुस्लिम पक्षकार की ओर से दायर किए गए मुकदमे में ‘अखिल भारतीय श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति’ ने सुप्रीम कोर्ट में ‘बाबरनामा’, ‘हुमायूंनामा’, ‘अकबरनामा’ और ‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ किताबों के हवाले से ये बात कही. समिति ने चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ से कहा कि इन किताबों में से किसी में भी बाबरी मस्जिद के अस्तित्व पर बात नहीं की गई है.
दशकों पुराने मामले में सुनवाई के 14 वें दिन हिंदू पक्षकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता पीएन मिश्रा ने पैरवी की. मिश्रा ने कहा कि इन किताबों, खास तौर पर प्रथम मुगल सम्राट के सेनापति मीर बकी द्वारा लिखित 'बाबरनामा', ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के निर्माण या मंदिर तोड़े जाने के बारे में कोई बात नहीं की है.
मिश्रा ने जस्टिस एसए बोबडे, डी वाई चंद्रचूड़, अशोक भूषण और एसए नाजेर की पीठ को बताया-
“बाबर ने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया था और इसलिए, उसके पास 1528 ईस्वी में मंदिर तोड़ने और मस्जिद बनाने का कोई मौका ही नहीं था. इसके अलावा, उसके कमांडर मीर बाकी के साथ कोई व्यक्ति नहीं था.”   

हिंदू पक्षकार के वकील की दलील

मिश्रा ने कहा कि मीर बकी अयोध्या पर आक्रमण का नेतृत्व करने वाले सेनापति नहीं थे. उन्होंने पीठ से कहा कि वह दूसरे पक्ष से पूछें कि वह इन ऐतिहासिक पुस्तकों का उल्लेख करके क्या साबित करने की कोशिश कर रहे थे.
मिश्रा ने कहा कि इस मामले में ‘बाबरनामा’ पहली ऐतिहासिक पुस्तक है जिसका मुसलमानों ने हवाला दिया. मिश्रा ने कहा,“प्रतिवादी के तौर पर मैं उनकी (मुस्लिम पक्षकार) इस मांग को खारिज करना चाहता हूं कि हमारे मंदिर को मस्जिद घोषित किया जाना चाहिए.”
मिश्रा ने कहा कि ‘बाबरनामा’ सम्राट के जीवन के 18 वर्षों से संबंधित है. लेकिन इसमें कहीं भी अयोध्या में मस्जिद निर्माण की बात नहीं है. जब तथाकथित मस्जिद का निर्माण करने का आदेश दिया गया था, तब राजा आगरा में था. मिश्रा ने कहा, “अगर किसी इमारत को मस्जिद घोषित किया जाना है तो उन्हें यह साबित करना होगा कि बाबर वहां से ‘वाकिफ’ था.”
मिश्रा ने कहा, "एक आदमी झूठ बोल सकता है, लेकिन हालात झूठ नहीं बोल सकते."
उन्होंने कहा कि बाबर ने अवध के मुस्लिम शासक इब्राहिम लोदी को हराने के बाद मार दिया था. इसके बाद बाबर ने अपने भाई को क्षेत्र का कमांडर बना दिया. उन्होंने कहा कि मुसलमानों का कहना है कि मीर बाकी बाबर के सेनापति थे, जोकि गलत है.
उन्होंने कहा कि जिन तथाकथित शिलालेखों में मस्जिद के अस्तित्व का जिक्र है, उन्हें सबसे पहले 1946 में देखा गया था, जब एक मजिस्ट्रेट ने वहां का दौरा किया था और उसका कहना था कि शिलालेख फर्जी थे.
मिश्रा ने इसके बाद अबुल फजल की आइन-ए-अकबरी का हवाला देते हुए कहा कि 1576 में उन्होंने अयोध्या में ‘रामकोट’ के बारे में लिखा था, जिसे हिंदुओं द्वारा भगवान राम के जन्म स्थान के रूप में पूजा जाता था. मिश्रा ने कहा, ‘लेकिन आइन-ए-अकबरी में कहीं भी नहीं लिखा है कि अयोध्या में कोई मस्जिद थी.’ हालांकि, इस किताब में आस-पास के इलाकों में तीन कब्रों के बारे में बताया गया है. 
पीठ ने पूछा, "क्या आइन-ए-अकबरी में किसी भी अन्य मस्जिद का उल्लेख है?" इस पर, वकील ने कहा कि वह विवरण के साथ वापस आएंगे.
इसके बाद वकील ने बाबर की बेटी गुलबदन बेगम द्वारा लिखित ‘हुमायूंनामा’ और बाबर के परपोते की 'तुजुक-ए-जहांगीरी' का हवाला दिया और इस बात पर जोर दिया कि इन दोनों किताबों में अयोध्या में मस्जिद के निर्माण के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है.
मिश्रा ने कहा कि यह बात स्थापित है कि मस्जिद का निर्माण बाबर ने नहीं बल्कि औरंगजेब ने कराया था और उसने मथुरा और काशी में मंदिरों को गिरवा दिया था. उन्होंने कहा कि दीवानी मामले में यह प्रतिवादी का कर्तव्य है कि वह वादी की याचिका को असत्य प्रमाणित करे.
वकील ने कहा कि गलत दलीलों को लेकर वह मुकदमा खारिज करने की मांग कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि रामचरित मानस लिखने वाले तुलसी दास समकालीन थे लेकिन उन्होंने बाबरी मस्जिद के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है.