Monday, February 17, 2014

जन सरोकार से विमुख पत्रकारिता


जन-सामान्य पत्रकारिता के नाम पर जो कुछ भी बाहर से देखता-समझता है, वह असलियत नहीं है, वह तो एक ‘सम्मोहन’ है, वास्तविकता इससे परे है। आम तौर पर पत्रकारिता दिशाहीन हो गई है। इसके लिए पत्रकारों को जिम्मेवार ठहराया जाता है। यह ठीक है कि व्यक्ति से समाज प्रभावित होता है। पत्रकार भी इसी समाज का अंग है। समाज का प्रभाव भी उस पर पड़ना स्वाभाविक है। तर्क दिया जा सकता है पत्रकार तो समाज को प्रभावित करने के लिए यानी दिशा देने के लिए होता है, अगर वह प्रभावित हो जाएगा तो फिर समाज का क्या होगा? यह सवाल लाख टके का है। ऐसा तर्क देने वालों का कहना है कि पहले का पत्रकार देता था, लेता नहीं था। वह एक मिशन के तहत काम करता था। समाज और जन सेवा उसका उद्देश्य हुआ करता था। मगर आज की पत्रकारिता उद्देश्यविहीन तथा दिशाहीन इस लिए हो गई है कि पत्रकार समुदाय अपने चरित्र और आदर्श को बचा कर रखने में सक्षम नहीं रह गये हैं। यह समुदाय भी सुविधाभोगी हो गया है। उसे वही दिखता है जो निहित स्वार्थ में वह समाज को दिखाना चाहता है। इसीलिए आज का पत्रकार अपने कार्य और जीवन में पारदर्शिता लाने का पक्षधर नहीं है।
आरोप यह भी लगता है कि आज के अधिकांश पत्रकार रूप-रुपया-रुतबा के दीवाने हैं, जो सहजता और सुगमता से प्राप्य हैं। एक पत्रकार बनने से पूर्व उसके अपने माप और मानदण्ड होते हैं,उसके पास ऐसी आदर्श और नीति होती है,जिसकी सराहना की जा सकती है, किन्तु तथाकथित पत्रकारों के आभामंडल से विस्मित होकर विस्फारित नेत्रों से चकित होकर अथवा यों कहें दिग्भ्रमित होकर वह उन्हीं का अनुयायी बन जाता है, क्योंकि वैसा करके उसे भांति-भांति के भौतिक सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार पत्रकारों का एक समूह तैयार हो जाता है, जो कतिपय लोभ और स्वार्थ में पत्रकारिता का उपयोग करता है। पत्रकारों का एक दूसरा वर्ग भी है,जो पत्रकारिता करने के लिए नहीं, बल्कि नौकरी करने के लिए इस पेषे को आधे-अधूरे मन या बेमन से स्वीकार करता है। एक तरह से विभिन्न क्षेत्रों मे हाथ अजमाने के बाद वह थका-हारा होता है। पत्रकारिता की नीतियों और सिद्धांतों से उसका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं होता है। ऐसे लोग अपनी नौकरी बचाने की चिन्ता में रहते हैं। इसलिए संपादक और प्रबंधक के अक्सर दबाव में रहते है और बड़े आसानी से गैरपत्रकारीय कार्यों में प्रवृत हो जाते हैं। पत्रकारिता के बहाने प्रबंधन को राजस्व उगाही में सहयोग करना, संपादकों और अन्य वरीय सहयोगियों के खुषामद करके उन्हें खुष करना नौकरी बचाए रखने के लिए इनकी मजबूरी होती है। इस श्रेणी के पत्रकार प्रबंधन के इषारे पर जहां स्थानीय थाना से लेकर प्रषासन के आलाधिकारियों की जी-हुजूरी करते फिरतें हैं, वहीं संपादक के लिए रेल टिकट आरक्षित कराने से लेकर उनके हवाई टिकट का इंतजाम भी खुषी-खुषी करते हैं। षासन से मिलीभगत कर संस्थान के बिजली बिल में कटौती कराना, समय पर भुगतान न होने की वजह से कटे हुए टेलीफोन कनेक्षन का पुनस्र्थापित कराना,न्यूज प्रिंट लदे ट्रकों को नो इंट्री जोन में प्रवेष कराना,सरकारी विज्ञापनों के लिए सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के अधिकारियों व कर्मियों से सम्पर्क साधे रखना तथा अन्य नियम प्रतिकूल कार्यों में प्रबंधन को सहयोग करना इस श्रेणी के पत्रकारों की अतिरिक्त योग्यता होती है। अपनी इसी योग्यता से ऐसे पत्रकार प्रबंधन और संपादक के ‘प्रिय’ भी होते हैं।
 मगर यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि आखिर ऐसा क्यों होता है? इसके पहले आपसे हिन्दी पत्रकारिता के सन्दर्भ में अखबार मालिकों की नीतियों और संपादकों के चरित्र पर बातें हो चुकी हैं। यह रोग केवल हिन्दी पत्रकारिता में हो और मीडिया के अन्य स्वरूप इससे अछूता हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के आने के बाद से निर्विवाद रूप से पत्रकारिता में चमक-दमक बढ़ी है। रुपया और रुतबा की दृष्टि से इलेक्ट्राॅनिक मीडिया प्रिंट से काफी आगे निकल चुका है। तिल को ताड़ और ताड़ को तिल बनाने का करिश्मा आप इस मीडिया में आसानी से देख सकते है। विश्वसनीयता के स्तर पर भी पत्रकारों में स्खलन हुआ है। आम ख्याल में प्रिंट मीडिया आज भी इलेक्ट्राॅनिक मीडिया से ज्यादा जवाबदेह और विश्वसनीय है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो आज की यह तल्ख हकीकत है कि जल्दी शोहरत और धन कमाने की लालच में तथ्यों से परे सनसनी फैलाने वाली सूचनाओं को देने में आज के मीडिया को कोई परहेज नहीं है।
अक्सर यह कहा जाता है कि मीडिया को पहले अपने दायित्वों पर ध्यान देना चाहिए। समस्या के केवल एक पहलू पर विचार करने से काम नहीं चलेगा और समसामयिक जीवन के किसी भी पक्ष पर आवेश में आकर विचार करने से कोई लाभ नहीं हो सकता है। समाचारपत्रों या मीडिया के किसी भी स्वरूप की स्वतंत्रता का प्रश्न देश की अन्य समस्याओं से जुदा नहीं है। इसलिए इस प्रश्न को वास्तविक सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। समाचार का अभिप्राय कुछ नए से है, लेकिन अधिकांश पत्रकारों ने सनसनीखेज को ही नयेपन का पर्याय मान लिया है। हमारा यहां अभिप्राय पत्रकारिता के क्षरण के पक्ष में खड़ा होकर तर्क गढ़ना नहीं है, बल्कि उन खामियों को उजागर करना है जिनके कारण से यह सवाल उठता है कि आज की पत्रकारिता और पत्रकार दिशाहीन है।
संवाद और संवाददाता को अलग नहीं किया जा सकता है। हिन्दी फिल्म निर्माताओं की तरह इस तर्क को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि दर्शक जो देखना चाहते हैं वही हम दिखाते है। लेकिन बाजारवाद के बढ़ते दबाव से पत्रकारिता को कैसे बचाया जाय इस पर अभी तक गौर किया ही नहीं गया है। आज की धारणा है कि जो बिके वही खबर है। यानी सूचना कमोडिटी की श्रेणी में शुमार है। स्वाभाविक है कि सस्ती और भड़काऊ सूचनाओं या खबरों को माध्यमों में तरजीह मिलने लगी हैं। इसके कारण पत्रकारीय दायित्व का भी क्षरण होने लगा है। आपसी होड़ और आगे निकलने की प्रतिद्वन्द्विता में स्थिति और बुरी होती चली गई है।

विलासी पत्रकारिता का दौर


भारतीय मीडिया परिदृश्य में पत्राकारिता की एक नई धारा उभर कर आई है। इसके लिए और भी बेहतर शब्द संभव हो सकते हैं, लेकिन हम फिलहाल इसे ‘विलासी पत्रकारिता’ यानी (स्नगंतल श्रवनतदंसपेउ) के नाम से ही संबोधित करेंगे। पिछले कुछ वर्षों में यह पत्रकारिता अखबार के व्यापार वाले पन्नों या विशेष विज्ञापन परिशिष्टों के भीतर से रंेगती हुई सामान्य रिपोर्टिंग वाले पन्नों में प्रवेश कर गयी है। मुख्य पृष्ठ पर भी दीख जाती है और इसने किसी तरह खुद को खबरों की श्रेणी में शामिल करवा ही लिया है। यह व्यापार पत्रकारिता कतई नहीं है। जो उभरते हुए बाजारु ब्रांडों व आईपीओ की कवरेज में होने वाले परिवर्तनों की बात करे अथवा आपके पैसों को और उत्पादक बनाने के लिए सीईओ से टिप्स दिलवाये। नहीं यह कोई ऐसी पत्राकारिता है जहां एक रिपोर्टर वित्तीय सलाहकार बन जाए। इसे अमीरों के मूल्यांकन से काफी प्रेम होता है। सीईओ के उच्च वेतन-भत्तों के बारे में बात करना रास आता है। यह नियम से एमबीए छात्रों के संभावित वेतनमान का भी ब्योरा पेश करती है। यह अतिसम्पन्न लोगों की आय,उनके सामाजिक हैसियत को प्रकाशित करती है। इसमें दौलत कैसे पैदा होती है इसकी चिंता नहीं होती बल्कि होता है पैसे का व्यय। मसलन सभी खबरिया संस्थानों ने मुख्य पृष्ठ पर इस खबर को स्थान दिया कि भारत के सबसे अमीर उद्योगपति रिलायंस के मुकेश अंबानी ने अपनी पत्नी को उसकी 44वीं सालगिरह पर 240 करोड़ की एयरबस उपहार में दी या यह कि अमिताभ बच्चन ने अपने बेटे को दो करोड़ की बेन्टले की कार उपहार में दी थी। कर्नाटक के मशहूर उद्योगपति विजय माल्या ने अपने बेटे की 18वीं सालगिरह पर उसे एक नई विमान सेवा ही दे डाली। इसके लिए शादियां एक किस्म के चुबंक का काम करती है। माई बिग फैट वेडिंग जैसे टीवी शो अब इतने आम हो चले है कि एक फार्मूले से कम नहीं लगते और इस पत्रकारिता का उत्साह तब देखते बनता है। धन कूबेर स्टील के बादशाह लक्ष्मी मित्तल की बेटी की शादी होती है जो विवाह के लिए उपयुक्त स्थल न मिल पाने से इतने असंतुष्ट थे कि एक महल ही किराये पर ले डाला और अमेरिका स्थित एनआरआई चटवाल के बेटे के उदयपुर में हुए विवाह की घंटे दर घंटे रिपोर्ट तीन दिनों तक एक टीवी चैनल के प्राइम टाइम पर चलती रही थी। ऐसा नहीं है कि अतिसंपन्न लोग ही विलासी पत्राकारों द्वारा कवर किए जाते हैं। यहीं सम्मान कुछ कम अमीरों को भी मिलता है। संभव है कि छोटे अमीर बेन्टले न खरीद सकते होे लेकिन अपने क्रेडिट कार्ड से या किस्त पर महंगे सामान तो खरीद सकते हैं। आप ‘वाॅट्स हाॅट,वाॅट्स नाॅट’ नाम का कोई भी स्तंभ किसी व्यक्ति के नाम से उठा कर देख लीजिए आपकों जवाब में एक महंगा उत्पाद ही नजर आएगा।
विलासी पत्रकारिता के इस दौर पर क्षोभ व्यक्त करते हुए ग्रामीण पत्रकारिता के सषक्त हस्ताक्षर पी. साईनाथ कहते हैं कि- ‘ हिन्दुस्तान में हर 3 घंटे में 513 बच्चे भुखमरी से मरते हैं, छह किसान आत्महत्या कर लेते हैं, जबकि 40 से ज्यादा किसान आत्महत्या की असफल कोषिष करते हैं और 275 किसान खेती करना छोड़ देते हैं। इन्हीं 3 घंटों में सरकार 175 करोड़ रुपए उद्योग-धंधों को आयात-निर्यात पर कर की छूट देती है, लेकिन यह सब मीडिया को देख कर भी नजर नहीं आता है। लक्मे फैषन वीक या विल्स फैषन वीक को कवर करने के लिए जहां 600 पत्रकार इकट्ठे हो जाते हैं वहीं विदर्भ के किसानों की सुध लेने छह किसान भी नहीं जाते हैं।’ दरअसल यह पेज थ्री की पत्रकारिता की वजह से उत्पन्न संकट है। पत्रकारिता को इस चुनौती को स्वीकार करनी चाहिए।
रैमन मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त पी साईनाथ की तल्ख टिप्पणी है-‘ मैं ऐसा नहीं कहूंगा कि मीडिया में आज समर्पित पत्रकारों की कमी है, लेकिन वह अपने अपने मीडिया हाउसों की व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं के आगे बेबस हैं। मीडिया लीडरषीप के अभाव में जर्नलिज्म आम जनता से कटता जा रहा है। उसके सामने विष्वसनीयता का संकट आ खड़ा हुआ है। पिछले लोकसभा चुनावों में सभी मीडिया हाउसों के चुनाव पूर्व विष्लेषणों का धरा रह जाना इसका सबसे बड़ा सबूत है कि मीडिया जनता की नब्ज पहचानने में कितना नाकाम है।’ इसी के साथ उनका यह भी कहना है कि मीडिया को कारपोरेट घराना प्रभावित कर रहा है। विदर्भ में किसानों की आत्महत्या की खबरों के लिए अखबारों में जगह नहीं है मगर किसी व्यक्ति द्वारा 15 लाख रुपए महज एक मोबाइल नम्बर के लिए उड़ा देने की खबरें पहले पन्ने की बैनर खबर बन जाती है। यह चलन जनता को गुमराह कर रहा है। सच्चाई तो यह है कि आज भी देष के अगड़े ग्रामीण का प्रतिमाह व्यय महज 503 रुपए हैं। इसमें 80 प्रतिषत से अधिक भोजन में व्यय करने के बाद वह षिक्षा पर केवल 17 रुपए और स्वास्थ्य पर मात्र 34 रुपए प्रतिमाह खर्च कर पा रहा है। ऐसे में पिछड़े और भूमिहीन गरीब की तो बात ही मत कीजिए। उसके पास तो स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए पैसा ही नहीं है। मीडिया इन तल्ख हकीकतों को नहीं देख पाता है। इसकी वजह से एक ओर उसका विस्तार तो हो रहा है, मगर विष्वसनीयता घट रही है।

मीडिया की विश्वसनीयता और स्वायत्तता



मीडिया की क्षमता, उपादेयता या सफलता बहुत कुछ उसकी विश्वसनीयता पर निर्भर करती है। जन-संवाद या संचार के माध्यमों का स्वामित्व या तो निजी क्षेत्र के पूंजीपतियों के हाथ में है या सरकार के हाथ में। दोनों ही स्वामित्व अपनी सीमाओं में कार्य करते हैं। यद्यपि संविधान में विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता है तथा हर नागरिक को सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। लेकिन इस आदर्श स्थिति को प्राप्त करने के रास्ते उतने आसान नहीं हैं। यद्यपि प्रेस की स्वतंत्राता का उल्लेख अलग से संविधान में नहीं है लेकिन संविधान की धारा 19/1 (अ) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार में शामिल किया गया है। 1951 में इस अधिकार को सीमित करने के लिए केन्द्र सरकार ने एक संशोधन स्वीकार किया तथा 1963 में पुनः संविधान में संशोधन द्वारा इस अधिकार को सीमित किया गया। 1975 में आपातकाल में मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था। 1975 में संविधान के 44 वें संशोधन में नागरिकों के लिए 10 कत्र्तव्यों की व्यवस्था की गई। आपातकाल के पश्चात पुनः मौलिक अधिकारों को बहाल कर दिया गया। 1965 में प्रेस काउंसिल की स्थापना प्रेस की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए की गई।
प्रेस की स्वतंत्रता तथा विश्वसनीयता में सीधा संबंध है। यदि व्यक्ति सत्य तथा तथ्य को कहने के लिए स्वतंत्र है तब उसकी विश्वसनीयता पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। विश्वसनीयता तभी खंडित होती है जब जन साधारण को यह ज्ञात हो कि मीडिया अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र नहीं है या फिर वह जो कुछ भी कह रहा है उसमें उसका स्वार्थ है। अतः वे जो भी कहते है वह या तो पूरा सच नहीं है या आधा सच है। आपात स्थिति में या असाधारण परिस्थिति जैसे युद्ध, महामारी, भुखमरी आदि के समय संचार या संवाद साधनों के ऊपर सेंसरशिप लागू की जाती है तथा उसी समाचार को प्रकाशित किया जाता है जो जनता के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव न डाले। निजी स्वामित्व के साधन तथा सरकारी स्वामित्व के माध्यमों में दृष्टिकोण संबंधी अंतर होने के कारण विश्वसनीयता पर शंका की जाती है।
भारतीय प्रेस निजी स्वामित्व में होने के कारण अधिक स्वतंत्र है। अतः उसकी विश्वसनीयता अधिक आंकी जाती है, लेकिन कभी-कभी स्वतंत्रता का स्तर व्यक्तिगत चरित्र हनन तक पहुंच जाता है तथा पत्रकारिता को एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया जाता है या अपने निहित स्वार्थ में सूचनाओं को छुपाया या तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है। ऐसी स्थिति में तब यह प्रश्न उठता है कि क्या प्रेस जनता का उपयोग अपने हित के लिए कर रहा है या जनता प्रेस का उपयोग अपने हितों के लिए कर रही है। दोनों के बीच विभाजन रेखा खींचना कठिन है फिर भी अशिक्षित जन समुदाय का प्रायः सूचना के स्रोतों पर सीधा अधिकार नहीं होता और सार्वजनिक प्रतिष्ठान तथा शासन सही जानकारी सही समय पर उपलब्ध नहीं कराता है। अतः समाचारों में अटकलबाजी, अनुमान या कल्पना का सहारा लिया जाता है तथा अविश्वसनीय सूचना को विश्वसनीय सूत्रों से प्राप्त समाचार कह कर पाठकों को भ्रम में डाला जाता है। समाचार पत्र अब बड़े व्यवसाय या उद्योग का रूप ले चुके हैं, वे केवल सूचना माध्यम नहीं रह गए हैं। जनमत को प्रभावित करना तथा समाज में परिवर्तन लाने में समाचार पत्रों का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। इस स्थिति में समाचार पत्रों की विश्वसनीयता अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। यदि यहां विश्वसनीयता खंडित होती है तब समाज में अराजकता उत्पन्न हो सकती है क्योंकि समाज परस्पर विश्वास पर ही आधारित है। यदि व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति या व्यवस्था में अविश्वास या अनास्था प्रकट करने लगे तब निराशा के वातावरण में किसी का जीवन सुरक्षित नहीं रह सकता है। समाज में व्यापक हिंसा का मुख्य कारण यह परस्पर अविश्वास ही है। समाचार पत्र समाज में परस्पर विश्वास और आस्था बनाए रखने में सहायक होते हैं तथा उन तत्वों को उजागर करते हैं जो इस विश्वास को खंडित करने में लगे रहते है। अमेरिका के प्रेस के संबंध मंे जेम्स रेस्टन ने लिखा है- ‘मूल प्रश्न विश्वास का है।’ अमेरिका में वर्तमान समस्या इस बात को लेकर है कि यहां जनता में अपने नेता तथा संस्थाओं के प्रति अविश्वास है। व्हाइट हाउस से निकलने वाले बयानों पर अब पहले से अधिक शंका की जाती है। कांग्रेस के प्रति विश्वास भी लड़खड़ाने लगा है। प्रेस में अविश्वास रखना अब राष्ट्रीय व्यंग्य बन गया है। आजकल जनता में परस्पर विश्वास की भावना बहुत कम है।’
डेविड बूरडर’ का कहना है-‘‘ उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलता जो राजनेता, प्रेस या सरकारी अधिकारियों में विश्वास रखता हो जबकि ये तीनों ही व्यवस्था के प्रमुख अंग हैं।’’
कुछ पत्राकारों का कहना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सरकार प्रायः झूठे बयान देती है जबकि पत्रकार जानबूझ कर झूठ नहीं बोलता। अमेरिका में प्रेस के प्रति एक धारणा यह भी है कि ‘एक राजदूत गुणवान व्यक्ति होता है जो विदेशों में अपने देश के लिए झूठ बोलता है जबकि पत्रकार ऐसा अवगुणी प्राणी है जो अपने देश में अपने हितों के लिए झूठ बोलता है।’ अमेरिका में यह प्रश्न आमतौर पर पूछा जाता है-‘कौन सच कहता है? प्रेस या सरकार?
अमेरिका में प्रेस को अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता है। शायद इसीलिए वहां परस्पर अविश्वास की भी स्वतंत्रता है। अमेरिका के समान ही प्रजातंत्रवादी, विकासशील देशों में हालत खराब हो रही है। जनता का विश्वास प्रेस तथा सरकार दोनों पर से उठता जा रहा है। प्रेस अत्यधिक कटु आलोचना करता है जबकि सरकार आंकड़ों की जुगाली करने की आदी है। सरकार की आलोचना करने का एक कारण यह भी है कर्मचारीतंत्र के कार्य करने की गति बहुत धीमी होती है तथा अनेक उबाऊ प्रक्रिया से ओतप्रोत होने के कारण गतिशील नहीं हो पाती है। काम देर से होता है तथा इस देरी को दूर करने के लिए अनुचित तरीके अपनाए जाते हैं। प्रेस जब इस प्रकार की खबरों को उछालता है तब जनता का अविश्वास सरकारी तंत्र पर और बढ़ जाता हैं। वर्तमान माहौल में यही वजह है कि मीडिया की सूचनाओं और प्रकाशित-प्रसारित खबरों पर न्यायपालिका भी संज्ञान लेने लगी है तथा कार्यपालिका पर तीखी टिप्पणियां करने लगी हंै। चाहे वे सेवानिवृत्त कर्मचारियों के सेवानिवृत्ति लाभ न मिलने या मिलने में विलम्ब होने का मामला हो, सड़कों की बदहाली या फिर सरकारी अस्पतालों में आवश्यक सुविधाओं यथा दवाइयां, डाक्टर आदि की अनुपलब्धता के साथ ही सरकारी गोदामों में लाखों टन अनाजों के सड़ने की खबरें हो।
पटना की एक घटना का जिक्र यहां प्रासंगिक है। केन्द्रीय आदर्श कारा बेउर में एक राजनेता ने कैदियों के संग रंगारंग पार्टी आयोजित की। रात भर वहां शराब का दौर चला। नाच-गाने का इंतजाम भी हुआ। जेल अधिकारियों और कर्मियों के सहयोग के बिना यह संभव नहीं था। दूसरे दिन एक समाचार पत्र में इस घटना की खबर छपी। पटना उच्च न्यायालय ने इसे अपने संज्ञान में लिया। इस पर राज्य के अलाधिकारियों को नोटिस दी गयी। कोर्ट में मामले की सुनवाई हुई। न्यायालय ने जेल आईजी को 36 घंटे के अंदर मामले की जांच कर रिपोर्ट कोर्ट में पेश करने को कहा। कोर्ट की इस बाबत टिप्पणी थी-‘अगर अखबार में छपी यह घटना सही है तो वहां के जेल अधिकारियों को एक मिनट भी वहां रहने का अधिकार नहीं है और सरकार को अविलम्ब उन्हें वहां से हटा देना चाहिए।’ यह महज एक उदाहरण है। ऐसी अनेक घटनाएं होती हैं जो अखबारों में छपती हंै। उन पर न्यायालय का ध्यान जाता है। न्यायालय अपने स्तर से कार्रवाई करती है। सरकार द्वारा दी गई सूचनाओं की जगह समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों को जनता ज्यादा सच मानती है। विकास के मामले से लेकर दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या और ऐसी ही अन्य सूचनाओं के मामले में यह स्थिति देखी जाती है। मगर इसके साथ ही प्रेस की जिम्मेवारी भी कही और ज्यादा बढ़ जाती है।
लेकिन इसके साथ ही एक संकट और भी गहराया है। कभी-कभी अखबारों व पत्रिकाओं में इस प्रकार की खबरें/कहानियां व्यक्तिगत लाभ या रंजिश में प्रकाशित होती है, जिसकी निंदा ‘पीत पत्रकारिता’ कह कर की जाती है। इस प्रकार दोनों पर शंका की जाती है तथा दोनों की विश्वसनीयता पर संकट है। कभी-कभी तो जनता यह विश्वास कर लेती है कि प्रेस और सरकार दोनों के बीच कोई गुप्त समझौता है जिसके कारण सही सूचना प्राप्त होना कठिन है। इन्हीं वजहों से आमतौर पर प्रिंट या इलेक्टाªॅनिक माध्यमों पर सरकारी या किसी खास राजनीतिक दल की पक्षधरता का आरोप भी जनता की ओर से लगता रहता है। विश्वास के संकट के कारण ही कुछ समाचार पत्रांे को सरकारी पत्र या सरकार का पिछलग्गू कह कर आलोचना की जाती है और यह आरोप लगाया जाता है कि सरकार कुछ गिने-चुने कृपापात्र पत्रों को अधिक सरकारी विज्ञापन तथा अखबारी कागज या अन्य मदद देती है जिससे वे सरकार की आलोचना करने या जनता को सही सूचना देने से बचने की कोशिश करते हैं।
अमेरिकी पे्रस के संदर्भ में स्टुवर्ट आलसोप का कथन है कि-‘जिस प्रकार प्यासे के लिए पानी का महत्व है उसी प्रकार पत्रकार के लिए सूचना का महत्व है लेकिन जब इस सूचना को देने वाला राजनेता या अधिकारी हो चाहे वह अपना मित्र ही क्यों न हो, तब वास्तविक सूचना प्राप्त करना कठिन हो जाता है।’ अनुभव भी यही कहता है कि सरकारी तंत्र या नौकरशाह एक ओर जहां सूचनाओं को छुपाने में लगे रहते हैं वहीं पत्रकार उन सूचनाओं को हासिल करने के लिए तरह-तरह की जुगत भिड़ाते रहता है। हां, कुछ-एक मामले ऐसे भी हो सकते हैं जब एक पत्रकार भी सरकारी नौकरशाहों या राजनेताओं के साथ मिलीभगत करके सूचनाओं को छुपाने या उसके मूल स्वरूप में छेड़छाड़ करने के खेल में शामिल हो जाता है। इसीलिए इधर के दिनों में अखबारों की खबरों पर भी जनता का अविश्वास बढ़ा है।
निष्पक्ष तथा वस्तुनिष्ठ होना उतना आसान कार्य है भी नहीं क्योंकि वस्तु स्वयं अपनी रिपोर्ट नहीं लिखती उसे समझने और लिखने वाला व्यक्ति होता है और व्यक्ति अपने व्यक्तिगत विचारों से प्रभावित होता है। वह पहले व्यक्ति है बाद में पत्रकार। वह अपनी आंखों से सत्य को देखता है, अतः उसका सत्य, निरपेक्ष सत्य नहीं होता है। निष्पक्ष और निरपेक्ष सत्य को प्रस्तुत करना लगभग असंभव है, अतः थोड़ा बहुत भावनात्मकता का होना स्वाभाविक है। फिर भी रिपोर्ट को तथ्यपरक बनाना संभव है। यदि रिपोर्टर या पत्रकार उसे अपने हित के लिए उपयोग में नहीं लाता। अमेरिका के पत्रकार वारेन के. एगी ने अपनी संपादित पुस्तक ‘मास मीडिया इन फ्री सोसायटी’ में लिखा है कि प्रेस की विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए इन बातों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए-
1. प्रेस को उसी सत्य निष्ठा का परिचय देना चाहिए जिसकी आशा अधिकारियों या राजनेताओं से की जाती है। यह सही है कि संपूर्ण सत्य को खोज लेना आसान नहीं है, अतः पूर्णता की केवल कल्पना ही की जा सकती है। यह भी संभव नहीं है कि हम अधिकारी या राजनेता से पूरी निष्ठा, ईमानदारी, श्रेष्ठता की आशा करें और अपने व्यवहार में इन गुणों पर ध्यान न दें। पत्रकार को भी सत्यनिष्ठ एवं ईमानदार होना चाहिए तथा व्यक्तिगत जीवन को चरित्रहनन के लिए प्रेस में नहीं उछालना चाहिए। केवल जनहित को ध्यान में रखकर ही रिपोर्टिंग करनी चाहिए। रिपोर्ट का परीक्षण अवश्य कर लेना चाहिए।
2. पत्रकार को राजनेता या सरकारी अधिकारी के साथ किसी प्रकार का समझौता या गठबंधन नहीं करना चाहिए, क्योंकि एक-दूसरे के विरुद्ध होने के कारण यह गठबंधन सत्य को छुपा सकता है। निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी भी प्रकार की सांठगांठ विश्वसनीयता के लिए घातक है। दोनों पक्षों के विचारों को स्थान देना चाहिए।
3. रिपोर्ट या संवाद लिखते समय सावधानी बरतनी चाहिए अन्यथा बाद में राजनेता या अधिकारी यह कहते हुए उद्ध्ृत किए जाते हैं कि उनके वक्तव्य को तोड़मोड़ कर प्रकाशित किया गया। इस प्रकार विश्वसनीयता खंडित होती है। संवाद के लिए पर्याप्त प्रमाण होने चाहिए। आजकल प्रेस कांफ्रेंस में ‘प्रिंटेड संवाद’ प्रेस के लिए वितरित किया जाता है। यह निर्विवाद तो रहता है लेकिन इससे पत्रकारिता नष्ट हो जाती है।
4. पत्रकार सम्मेलनों में ‘प्लान्टेड’ सवालों से बचना चाहिए तथा अपनी ओर से नए प्रश्न-प्रतिप्रश्न पूछने चाहिए ताकि कहानी के भीतर की कहानी सामने आ सके। प्रेस सम्मेलनों में प्रायः सरकारी अधिकारी या सार्वजनिक प्रतिष्ठान के मैनेजर अपने विभाग के हित संबंधी जानकारी ही देते हैं तथा अप्रिय जानकारी या सत्य को ओझल कर देते हैं। इस स्थिति से भी विश्वसनीयता नष्ट होती है, क्योंकि जनता को यह ज्ञात है कि सार्वजनिक क्षेत्र कभी भी तस्वीर का दूसरा पहलू प्रस्तुत नहीं करेगा। उपलब्धियों की चर्चा के साथ असफलताओं पर भी प्रकाश डालना चाहिए।
5. बैकग्राउण्ड सामग्री का ज्यों का त्यों उपयोग नहीं करना चाहिए। इस संबंध में कतिपय एहतियात बरतने की जरूरत होती है मसलन, आधारभूत सामग्री में नीति संबंधी बातों की चर्चा होनी चाहिए न कि नीति की, नीति की व्याख्या अधिक होनी चाहिए। आधारभूत सामग्री केवल राष्ट्रीय सुरक्षा या अति गंभीर मामलों में ही स्वीकार करनी चाहिए, आधारभूत सामग्री के संबंध में प्रश्न-प्रतिप्रश्न पूछ कर उनके भीतर छुपी कहानी को निकालना चाहिए। आधारभूत सामग्री प्रसारित करने वाले अधिकारी का नाम देना चाहिए।
निजी स्वामित्व के माध्यमों के लिए ये निर्देश जितने उपयोगी हो सकते ही उतने ही सरकारी माध्यमों के लिए भी ये महत्वपूर्ण हो सकते हंै, मगर सरकारी माध्यमों को इसके अलावा अन्य कई बातों को ध्यान में रखना चाहिए जिससे कि उसकी विश्वसनीयता आम जनता में बनी रहे। सरकारी माध्यमों के लिए यह कहा जाता है कि यदि उसके पास सही जानकारी नहीं है तब चुप रहना ही अधिक उचित है। गलत सूचना या जानकारी देने से बचना चाहिए। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि सत्य को छुपाना चाहिए। कभी-कभी जल्दीबाजी में गलत सूचना दे दी जाती है और बाद में खेद प्रगट किया जाता है। उसे तथ्य को बिना तोड़े-मोड़े देना चाहिए तथा उचित या अनुचित ठहराने का प्रयास स्वयं करने की अपेक्षा जनता को करने देना चाहिए। व्यक्तिगत मामलों को सूचना या समाचार का भाग नहीं बनाना चाहिए। आम आदमी के सामान्य हित की सूचना को ही प्रमुखता देनी चाहिए तथा निष्पक्षता एक ऐसा गुण है जिसकी रक्षा हर स्थिति में होनी चाहिए। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जनहित को सर्वोपरि मानदंड मानना चाहिए।
सरकारी तथा गैर सरकारी माध्यम एक-दूसरे के विरोधी के रूप में कार्य करते हैं, अतः सूचनाओं की जांच होती रहती है। यदि प्रेस या अन्य सरकारी माध्यम लगातार गलती करते हैं या तथ्य को छुपाए रखते हंै तब विश्वसनीयता में कमी होगी, अतः दोनों ही प्रकार के माध्यमों को संतुलन में रखना चाहिए। प्रेस को आलोचना करने का स्वाभाविक अधिकार है क्योंकि सार्वजनिक धन को सरकार व्यय करती है। अतः व्यय से सामाजिक कल्याण हो रहा है या नहीं इसकी निगहबानी प्रेस ही करता है। सरकार की गतिविधियों पर प्रतिपक्षी दल अंकुश रखते है। प्रेस भी प्रतिपक्ष की ही भूमिका निभाता है। लेकिन आलोचना तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए तथा सकारात्मक भी होनी चाहिए। विरोध के नाम पर विरोध या लाभ एठने के लिए पीत पत्रकारिता से विश्वसनीयता घटती है।
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि विश्वसनीयता का सीधा संबंध किसी वस्तु या विचार की स्वीकृति से है। यदि किसी माध्यम की विश्वसनीयता कम है तब उसका प्रभाव भी कम ही होगा तथा समाज में वांछित परिवर्तन संभव नहीं होगा। विज्ञापनों के संबंध मंे यही हो रहा है। प्रायः लोग विज्ञापनों पर विश्वास नहीं करते हैं क्योंकि जैसा गुण या किस्म का विवरण दिया जाता है वैसा वस्तु से प्राप्त नहीं होता। वस्तु की घटिया किस्म को छुपाने के लिए विज्ञापन में सुंदर लड़की द्वारा उस वस्तु की सिफारिश की जाती है या फिर उसके बारे में कोई स्टार या बड़ी हस्ती बताते हैं। मगर वस्तु की घटिया किस्म की क्षतिपूर्ति लड़की का सौंदर्य या स्टार का व्यक्तित्व भी नहीं करता, अतः लम्बे समय के बाद ऐसी वस्तुएं अधिक ग्राहक नहीं जुटा पाती। प्रायः लोग विज्ञापनों की चमक-दमक को मनोरंजन के लिए ही स्वीकार करते हंै और वस्तु खरीदते समय ठोक-बजा कर ही सौदा करते हैं। लोगों को आसानी से मूर्ख नहीं बनाया जा सकता और सदैव ऐसा संभव भी नहीं है। अतः विश्वसनीयता को माध्यम की पहली शर्त मान कर चलना चाहिए। कुछ बड़े घरानांे के समाचार पत्र आज पाठकों को लुभाने के लिए तरह-तरह की इनामी योजनाओं का सहारा लेते हैं। कार, मोटरसाइकिल से लेकर फ्रीज,टी.वी. और न जाने क्या-क्या बांटते हैं। कभी-कभी कीमत में कमी या निःशुल्क वितरण का चारा भी पाठकों के बीच डाला जाता है। इसके बावजूद अखबार की विश्वसनीयता ही पाठकों को सर्वाधिक प्रभावित करती है।
विश्वसनीयता के लिए पहली शर्त है कि माध्यम को स्वतंत्र कार्य करने की सुविधा होनी चाहिए। स्वतंत्रता के बिना विश्वसनीयता को कायम रखना मुश्किल है। यदि तथ्य को किसी उद्देश्य के लिए तोड़ा जाता है तब चाहे सरकारी माध्यम हो या गैर सरकारी माध्यम, विश्वसनीयता को बनाए रखना कठिन होगा। प्रेस की स्वतंत्रता तथा अन्य सरकारी माध्यमों की स्वायत्तता का प्रश्न वर्षों से उठाया जाता रहा है। उसके पीछे यही भावना है कि संवाद सेवा के हितों की रक्षा हो सके तथा कोई संस्था संवाद सेवा का दुरुपयोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए न कर सके।

सवाल हमेशा खड़ा रहा है!

आश्चर्यजनक है कि जब निठारी में छोटे-छोटे बच्चों के शोषण, हत्या और निर्मम मानव भक्षण के चित्र टेलीविजन पर दिखाये गये, तो एक त्वरित प्रतिक्रिया समाज में हुई और फिर शांत हो गई। उफ!  अब हम ऐसे समाज में रहते हैं, जहां 70 फीसदी बच्चों का शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण होता है। कहां हैं ये बच्चे? क्या बहुत दूर कहीं? बच्चों की स्थिति के बारे में हम लगातार निश्चित समयांतराल पर कोई न कोई रिपोर्ट पढ़ते या देखते रहते हैं। ऐसे में एक पाठक या एक दर्शक के रूप में हम क्या सोचते है? .................¬?
शायद यहीं कि अच्छा, बच्ची का बलात्कार करके हत्या कर दी गई!! ..................? यह तो होता ही रहता है। और फिर हम अपने काम में जुट जाते हैं। वह काम, जो शायद हमारे जीवन का लक्ष्य तो नहीं ही है। एक अघ्ययन बताता है कि अमेरिका में जब एक बच्चा 18 वर्ष का होता है तब तक वह जनमाध्यमों के जरिये 64000 हत्यायें देख चुका होता है। ऐसे में यदि हम यह मानते हैं कि मीडिया का प्रभाव मन पर पड़ता है, तो सवाल यह है कि 64000 हत्याओं के दृष्य बच्चों के मन का क्या रूप बनाते होंगे? सवाल यह भी है कि यदि समाज में इतनी हत्यायें होती हैं तो क्या मीडिया को उन्हें छिपाने का दायित्व निभाना चाहिए... शायद नहीं। किन्तु क्या मीडिया आज अपराध से जुड़े सवालों को सजगता के साथ न्यायपूर्ण तरीके से पेश कर रहा है? क्या बलात्कार या हत्या से जुड़ी घटनाओं का नाटय रूपान्तरण करना जरूरी है। यदि ऐसा किया जाता रहा तो बालीवुड की फिल्मों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के चरित्र के बीच भेद करने वाली महीन सी दीवार भी टूट नहीं जायेगी।

बच्चे!! कौन बच्चे!! बच्चे वे जीव होते हैं जो वोट नहीं देते हैं इसलिये इनके ऊपर सरकार खर्च करने में रुचि नहीं रखती है। देश की 16 प्रतिशत आबादी 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की है और इतनी बड़ी आबादी के लिये सरकार अपने बजट का कुल जमा 0.88 प्रतिशत (वर्ष 2006-07) ही खर्च करती है। बच्चे ऊंट गाड़ी से जुते हुये हैं जिन पर प्रतिस्पर्धा के कोड़े बरसाये जा रहे हैं ताकि वे बाजार के चरित्र को अच्छे से समझ सकें, खासतौर पर इसके आतंकी चरित्र को। बाजार सिखाता है कि जब तक प्रतिस्पर्धा की भावना पालते हुये लड़ना नहीं सीखोगे तब तक तुम्हारे बचे रहने की कोई संभावना नहीं होगी। क्या आज का मीडिया इसके लिए हमें तैयार नहीं कर रहा है?

आमतौर पर अखबारों में काम करना व्यावसायिक रूप से आखिरी विकल्प रहा है, किन्तु अब यह अतीत की बात है। आज यह क्षेत्र बाजार का सबसे बड़ा खिलाड़ी है जो न केवल सूचनाओं का प्रसारण करता है बल्कि लाभ का भी विस्तार कर रहा है। बहरहाल दो बाते महत्वपूर्ण हैं - पहली तो यह कि इस लाभ का हितग्राही एक खास वर्ग है। ताजा अध्ययन बताते हैं कि बाजार के अनैतिक विस्तार से भारत में 4 करोड़ 37 लाख लोगों को फायदा हुआ है किन्तु दूसरी तरफ 30 करोड़ लोगों के जीवन, आजीविका और कौशल पर आघात हुआ है। अकेले फुटकर बाजार में संगठित बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रवेश के फलस्वरूप चार करोड़ लोगों की आजीविका छिनती नजर आ रही है।

इसी तरह बहुत ही पेचीदा मामला होता जा रहा है विकास का। आजीविका जीवन का अहम आधार है और इसके लिये राजनैतिक-सामाजिक जनसंघर्ष होते रहे हैं। तब जाकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी कानून बना और सरकार-गैर सरकारी संगठन इसके बेहतर क्रियान्वयन में जुट गये। ऐसे में ही आजीविका के सिक्के के दूसरे पक्ष पर किसानी एक जानलेवा सौदा बनती जा रही है। किसानों की आत्महत्या और बढ़ती भुखमरी के मामले एक स्थाई रूप लेते जा रहे हैं। यदि ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना और कृषि की स्थिति को ध्यान में रखें तो पता चलता है कि अलग-अलग स्तरों पर दोनों विषयों पर चर्चा चल रही है परन्तु दोनों के बीच परस्पर संबंध स्थापित नहीं हो पाये हैं। और यही परस्पर संबंध आज की सबसे बड़ी आर्थिक राजनीति को स्पष्ट करते हैं। रोजगार गारन्टी कानून तो स्पष्ट रूप से देश की बड़ी आबादी को मजदूर का दर्जा दे चुका है और कृषि क्षेत्र के बर्बाद हालात पर पर्दा डालने का जरिया यह कानून बनता जा रहा है। यह एक कड़वा सच है कि हम रोजगार और आजीविका के बीच के अंतर को मिटाने पर तुले हुये हैं। किसानों का मजदूर बनते जाना खतरनाक है और इस मसले पर मौन तोड़ना बहुत जरूरी है। मगर मीडिया में इसके लिए कोई स्पेष नहीं है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में अब शायद ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता है जिस दिन कोई सरकारी योजना की शुरुआत या समाप्ति न होती हो। और संभवतः  नई बीमारियों की खोज की खबरें प्रसारित करना मीडिया के कार्यदायित्वों का अहम अंग बन चुका है। बीमारी आती है और सरकार कहती है कि एक नई योजना इसके लिये लागू की जायेगी परन्तु यह सवाल नहीं उभरता कि ये बीमारियां पैदा कहां से और क्यों हो रही हैं? यह जानकारी बहुत महत्वपूर्ण मानी जा रही है कि हर सरकार एक साल में एड्स पर दो हजार करोड़ रूपये खर्च करती है, क्या यही सबसे महत्वपूर्ण जानकारी है जो देश के लोगों को जानना चाहिये। एड्स पर बहुत काम हो रहा है परन्तु तपेदिक (जो कि गरीबी और पोषण असुरक्षा से जुड़ी हुई बीमारी है) बीमारी न केवल बजट की कमी से जुझ रही है बल्कि भारत सरकार और राजनैतिक हलकों में बहुत महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखती है। बावजूद इसके कि हर साल 1 लाख लोगों की मौत का कारण यह बीमारी बनती है।

पोषण और स्वास्थ्य के मानकों के अनुसार हर व्यक्ति को अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिये 2400 कैलोरी की ऊर्जा भोजन से मिलना चाहिये। परन्तु क्या आपको पता है कि 76 प्रतिशत जनसंख्या यानी लगभग 85 करोड़ लोगों की अलग-अलग कारणों से इतनी न्यूनतम जरूरत पूरी नहीं होती है। अगर भोजन और पोषण को गरीबी का आधार माना जाये तो 76 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं।

परन्तु सरकार अपने अध्ययनों के आधार पर कहती है कि 26 प्रतिशत यानी 30 करोड़ लोग ही गरीबी की रेखा के नीचे है और गरीबी की रेखा का मतलब है 11 रूपये या उससे कम प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन खर्च करने वाले लोग। आज के दौर में जब सब कुछ मुद्रा स्फीती (इन्फ्लेशन) दर से मापा जाता है वहां केवल गरीबी की रेखा से इसका कोई संबंध नहीं रखा गया है। पिछले 17 सालों में एक कोशिश भरपूर ढंग से हुई है और वह कोशिश है गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या (न की वास्तविक गरीबी) को कम करने की। उद्देश्य साफ है कि यदि कागजों में गरीब परिवारों की संख्या कम होगी तो सरकार को गरीबी मिटाने वाले कार्यक्रमों पर अपना खर्च (सब्सिडी और जनकल्याण कार्यक्रम चलाने के लिये होने वाला व्यय) कम करने का अवसर मिलेगा और इस राशि का उपयोग बाजार को विकसित करने में किया जा सकेगा।

ऐसे ही कई सवाल हैं जो सतह पर नजर नहीं आते किन्तु जड़ों के साथ चिपटे पड़े हैं। कुछ घुन की तरह जड़ों को खोखला कर रहे हैं तो कुछ विष फैला रहे हैं। यह सच है कि हम राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था को एक अलग नजरिये से देखते है। हमारे लिये केवल लाभ महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उसमें शुभ का तत्व भी महत्वपूर्ण है। शुभ लोकाधिकारों की मान्यता और उसकी राजनैतिक स्वीकार्यता से जुड़ा हुआ है। यह दौर विरोधाभासों का भी दौर है जहां हमारे मूल्यों और व्यवहारों में व्यापक अंतर नजर आता है पर करते क्या हैं, यह सवाल हमेशा खड़ा रहा है!!
अक्सर जब हम कुछ शुद्धात्म पत्रकारों (ये वे पत्रकार हैं जिन्होंने अपनी सार्थक भूमिका तलाशने की खूब कोशिशें की हैं) के साथ मीडिया पर गंभीर चर्चा पर आगे बढ़ते हैं तो वे बेहद संजीदगी से उस चर्चा पर यह कहकर विराम लगा देते हैं कि यार, बस अब मीडिया के मूल चरित्र पर कोई बात मत करो!! गुस्सा आता है। यह प्रतिक्रिया अनायास ही नहीं होती है। वे पत्रकार साथी बड़े ही सजग होते हैं कि जब भी कोई ऐसी चर्चा होंगी तो वे उसे रोक देंगे। उनका मंतव्य दूषित नहीं है, उनके भीतर एक किस्म की उदासी आ गई है, वे उस उदासी को उधेड़ना नहीं चाहते हैं, उस पर परतें डाल देन चाहते हैं। अब अखबार संजीदा और गंभीर नहीं होते हैं, वे बड़े होते हैं और बड़े होने का पैमाना बेहद बेतरतीब है- प्रतियों और पाठकों की संख्या, न कि उसका संजीदापन, गंभीरता और प्रभावोत्पादकता। हम उस मीडिया से क्या अपेक्षा रख सकते हैं जिसकी मूल मान्यता आज यह है कि पाठकों के पास अब समय नहीं है। अखबारी संस्थानों के भीतर अखबार बेचने ( जिसे मार्केटिंग और प्रसार कहा जाता है) वाले विभाग ज्यादातर संपादकों की क्लास लेते हैं और बताते हैं कि मार्केटिंग अध्ययनों के अनुसार अब पाठक ढाई या साढ़े तीन मिनट में अखबार पढ़ने का दायित्व पूरा कर लेना चाहते हैं इसलिये आप भी अपना दायरा उन्हीं साढ़े तीन मिनटों तक सीमित रखें। कुल मिलाकर बात यह होती है कि लोग अखबार देखें, न कि उसे पढ़ें। ऐसा चलन अब चल पड़ा है। विचारों को खत्म कर देने की एक सुनियोजित प्रक्रिया चल रही है। जब अखबार में काम करने वाला संजीदा पत्रकार एक माह तक किसी गंभीर विषय पर शोध करके, अपनी खबर तैयार करके संपादक को सौंपता है तो उसे बताया जाता है कि आपकी खबर ढाई सौ शब्दों से ज्यादा न हो।

खोजपरक खबर के लिये ढाई सौ शब्दों का स्थान! कितने पत्रकार जिन्दा रह पायेंगे इस वातावरण में। पत्रकार आता है अपनी खबर जमा करके आश्वासन पाता है कि अगले दिन के अखबार में उसे बेहतरीन जगह मिलेगी। रात उम्मीदों के सहारे खुशगवार गुजरती है, किन्तु सुबह पूरी दुनिया सूनी हो जाती है और लगता है कि खून का बहाव रुक गया है। बाद में पता चलता है कि विज्ञापन आ गया था, कोई दूसरी खबर आ गई थी या फिर प्रतिस्पर्धा की चैसर में कोई दूसरा अपनी चाल चल गया। अब तो जनमाध्यमों के भीतर भी हिंसक प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई और यहां तलवारें नहीं बल्कि खबरों पर डीलिट (गायब) बटन से वार किया जाता है। कहीं खून भी नहीं दिखता और दुश्मन लहुलूहान हो जाता है। लोग निराश होते हैं और फिर एक नई कोशिश में जुट जाते हैं परन्तु इस गुत्थी को नही सुलझा पाते हैं कि विज्ञापन के कारण हमेशा खबरें अपना रूप, रंग, आकार और अस्तित्व खोती रही है। कभी भी खबर के कारण विज्ञापनों के सामने बैरिकेट्स लगे क्या? शायद नहीं। इसका मतलब यह है कि आज खबरों के अपने आप में कोई मायने नहीं हैं। खबरों को केवल विज्ञापन के बदले में बिकने वाली सामग्री माना जाना चाहिये। अब हर रोज जन माध्यमों की मंडी में दुकानें इस खोज के साथ खुलती है कि क्या बिकेगा? ऐसी खबर कौन सी होगी जिसके साथ कोई न कोई प्रायोजक नहीं जुड़ा होगा। इतना ही नहीं अब तो संवेदनाओं का भी व्यापार होता है और एमएमएस के जरिये फायदा कमाया जा रहा है।

अखबार अब सकारात्मक और आकर्षक दिखने चाहिये, इसके लिये छायाचित्रों का उपयोग बढ़ा है। स्वाभाविक है कि गरीबी, कुपोषिण, महिला हिंसा और घास की रोटी के छायाचित्र तो सकारात्मक माने ही नहीं जाएंगे (भले ही एक बड़ी आबादी का यह सच्चा चित्र हो) इसलिये उन्हें स्थान नहीं मिलेगा। बहरहाल नई मोटर बाईक, नई कार और हीरों के जेवरात की प्रदर्शनी को जरूर स्थान मिलेगा, क्योंकि वह स्थान विज्ञापन के रूप में खरीदा जाता हैं। अब गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी के लिये कौन स्थान खरीदेगा? मीडिया का ताजा सिद्धांत यह है कि अखबार हर रोज सुबह पढ़ा जाता है, और सुबह-सुबह पाठक के सामने कुछ नकारात्मक नहीं जाना चाहिये। वह कुछ ऐसा देखना चाहता है जिससे ताजगी का अहसास हो। परन्तु क्या यह सही सोच है। वस्तुतः हर सुबह हर पाठक या दर्शक के सामने यह सच पेष किया जाना चाहिये कि समाज में भूख और गरीबी का जाल कितना व्यापक स्तर पर बिछा हुआ है और हिंसा केवल कुछ लोगों का जीवन नहीं बल्कि हमसे इंसानी चरित्र छीन रही है। इस सच्चाई को छिपाने का काम मीडिया न ही करे, तो बेहतर है क्योंकि इसका असर परमाणु बम से ज्यादा घातक और गहरा होगा। पत्रकार भले ही सामाजिक कार्यकर्ता का आवरण न ओढ़े किन्तु उसकी भूमिका कहीं न कहीं जन मुद्दों के पक्ष में खड़े होने की होगी, अन्यथा उसकी फिर कोई विश्वसनीयता शेष न रहेगी ?

हमारा अनुभव यह बताता है कि अब पत्रकार भी जब किसी खबर पर काम करता है तो वह यह नहीं देखता कि इससे कितने जन सरोकार जुड़े हुये हैं, बल्कि उसके भीतर रोप दी गई ‘उत्पादक खबर’ बनाने वाली ग्रंथी यह मापती है कि यह खबर बिकेगी या नहीं। और यह तय हो जाने के बाद ही कि खबर बाजार में टिक पायेगी, उस पर कोई श्रममूलक प्रक्रिया शुरू होती है। कुछ पत्रकार अब भी जिंदा हैं जो सरोकारों की खबरें करते हैं और स्थान पाते हैं, पर कोई उनसे पूछे कि क्या कोई ऐसा दिन है जब वे अपने इस सरोकारी काम के लिये लड़ते-झगड़ते नहीं हैं। ऐसे ही पत्रकारों को खोजकर उनके दिलो-दिमाग को खोलकर रख देने की जरूरत है ताकि उनकी पीड़ा मर न जाये, उनकी तड़प को सब देख सके और जान सके कि सरोकारी संघर्ष अभी भी पूरी तरह से मरा नहीं है। वह लहूलुहान है। एक दिन वह उठ खड़ा होगा और बाजारवादी मीडिया के सामने इतनी चुनौतियाँ खड़ी कर देगा कि तमाम फायदे के सिद्धांत ध्वस्त हो जाएंगे।

व्यक्तिगत रूप से हम बहुत से पत्रकार-लेखक साथियों को जानते हैं, उनसे चर्चा करते रहे हैं पर एक मौके पर आकर हमें लगा कि बहुत से पत्रकार-लेखक साथी जनमुद्दों पर लगातार सोच-विचार करने के साथ ही लेखन करते रहे हैं तो फिर हालात सुधर क्यों नहीं रहे हैं? दरअसल हर क्षेत्र का एक ढांचा होता है, मीडिया का भी एक ढांचा है जहां हर रोज सूचनाओं को संजोकर विश्लेषण रचा जाता है, बिना किसी नागे के। अब सामग्री की कमी नहीं है बल्कि सामग्री के ढेर में से क्या उपयोग में आयेगा यह तय करने में सबसे ज्यादा ऊर्जा लग रही है। इसका मतलब है कि जो यह तय कर रहे हैं कि क्या सामग्री प्रसारित होगी उनके नजरिये पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह तो स्वीकार करना ही होगा कि मीडिया-जनमाध्यमों को एक मूल्यगत विश्लेषण की दरकार है, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि वह(मीडिया) आज भी एक स्वतंत्र रचनात्मक भूमिका निभाने वाला स्तंभ है या फिर वह ज्यादातर राजनीति और अर्थ व्यवस्था के प्रवक्ता की भूमिका निभा कर समाजनीति के मूल्यों को दरकिनार कर रहा है। यह कठिन दौर है फिर भी जन माध्यमों में सक्रिय ऐसे कई संवादकर्मी हैं, जो वास्तव में स्थान और प्रोत्साहन का अभाव होने से बावजूद कहीं न कहीं से रास्ते निकाल रहे हैं क्योंकि अब भी उनके जीवन में ऐसे मूल्य बचे हुए हैं, जिनका समझौता करने के लिए वे तैयार नहीं हैं और संभवतः यह हमारी सबसे बड़ी संभावना भी है। सोषल मीडिया ने यह विष्वास और पुख्ता किया है।

इन्हीं कतिपय जलते सवालों और मुद्दों को लेकर इस पुस्तक का तानाबाना तैयार हुआ है।  सात अध्यायों में इन तमाम सवालों को समेटने का एक छोटा सा यह प्रयास रहा है। ऐसा नहीं है कि ये सारे सवाल हमारे और आपके जेहन में पहले से नहीं रहे हैं या इन सवालों से इत्तर अब कोई सवाल षेष नहीं है। इसीलिए मेरे इस लघु प्रयास में आप सब का संबल मिले, इसकी कामना रहेगी। पत्रकारिता में रूचि रखने वालेपाठकों और पत्रकारिता के अध्ययनार्थियों की संतुष्टि ही इस पुस्तक की सार्थकता और हमारी सफलता होगी। अपने तमाम षुभेच्छुओं, मित्रों जिन्होंने चाहे जिस भी रूप में अपना सहयोग दिया है,उनके प्रति मैं हृदय से आभारी हूं।