Wednesday, August 28, 2019

देश के साथ 1962 में वामपंथियों की गद्दारी


चीन से मिली पराजय के बाद 26 जनवरी 1963 
को दिल्ली के रामलीला मैदान पर गणतंत्र दिवस समारोह आयोजित हुआ था। उस समारोह में जब लता मंगेशकर ने कवि प्रदीप द्वारा रचित और चितलकर रामचंद्र द्वारा संगीतबद्ध गीत “ऐ मेरे वतन के लोगों” गाया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू सहित मैदान में उपस्थित सभी लोग रो पड़े थे। इस गीत के मर्म ने कितने भारतीयों को अब तक कितना रुलाया और मायूस किया है, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता। लेकिन उस शर्मनाक पराजय की स्मृति में 1962 के गद्दारों को याद करना जरुरी है जो आज भी भारत के वजूद को मिटाने पर तुले हुए है।
आज़ादी के संघर्ष के दौरान देशद्रोही वामपंथियों की अंग्रेजों से यारी जगत प्रसिद्ध है। अंग्रेजों के जाने के बाद भी वामपंथियों का भारत विरोध थमा नहीं बल्कि वे लगातार भारत विरोधियों के हाथों में खेलते रहे। लम्बे संघर्ष और बलिदानों के पश्चात् भारत को मिली आज़ादी वामपंथियों को कभी रास नहीं आई। वे लगातार लेलिन और माओ के इशारे पर भारत को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे। आजाद भारत लगातार विदेशी षड़यंत्र का शिकार बना और आज़ादी मिलने के तुरंत बाद कई युद्ध झेलने को मजबूर हुआ। एक तरफ पाकिस्तान लगातार हमले पर हमले किये जा रहा था तो दूसरी तरफ चीन भी भारत को अपना शिकार बनाने के फ़िराक बनाने में जुटा था।
पश्चिमी जीवनशैली जीवन जीनेवाले लेकिन वामपंथियों के विचारों से प्रभावित नेहरु के हिंदी-चीनी भाई भाई के नीति के मूल में भी वामपंथियों का ही दिमाग काम कर रहा था। लेकिन कौन जानता था कि भाईचारा की आड़ में भारत के वजूद को मिटाने का अभियान चल रहा है। 1962 का युद्ध हुआ और इस भारत-चीन युद्ध के दौरान भारतीय कम्युनिस्टों ने अपनी असली पहचान उजागर करते हुए चीन सरकार का समर्थन किया। वामपंथियों ने यह दावा किया कि “यह युद्ध नहीं बल्कि यह एक समाजवादी और एक पूंजीवादी राज्य के बीच का एक संघर्ष है।” कलकत्ता में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बंगाल के सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने तब चीन का समर्थन करते हुए कहा था – “चीन कभी हमलावर हो ही नहीं सकता (China cannot be the aggressor)”. ज्योति बसु के समर्थन में तब लगभग सारे वामपंथी एक हो गए थे। सभी वामपंथियों का गिरोह इस युद्ध का तोहमत तत्कालीन भारत सरकार के नेतृत्व की कट्टरता और उत्तेजना के मत्थे मढ़ रहे थे। कुछ वामपंथी थे जिन्होंने भारत सरकार का पक्ष लिया, उनमे एसए डांगे प्रमुख थे। लेकिन डांगे के नाम को छोड़ दें तो अधिकांश वामपंथियों ने चीन का समर्थन किया। ई एम एस नम्बुरिपाद (E.M.S. Namboodiripad), ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत के अलावा कुछ प्रमुख नाम जो चीन के समर्थन में नारे लगाने में जुटे थे उनमे बी टी रानादिवे (B. T. Ranadive) , पी. सुंदरय्या (P. Sundarayya), पीसी जोशी (P. C. Joshi), बसवापुन्नैया (Basavapunnaiah) शामिल है।
बंगाल के वामपंथी तो भारत-चीन युद्ध के समय खबरिया चैनलों की तर्ज़ पर सारी सूचनाये इकठ्ठा करके भेदिये का काम कर रहे थे। युद्ध से बुरी तरह टूटने के बावजूद वामपंथी मोह में फंसे नेहरु ने इन देशद्रोहियों को फांसी पर लटकाने के वजाए सभी गद्दारों को जेल भेजने का काम किया। सभी जानते है कि 62 के युद्ध में मिली हार नेहरू को बर्दास्त नहीं हुआ और अंततः उनकी मौत की वजह बनी। दिनकर ने तब कहा था – “जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनका भी अपराध”। ये वामपंथी भले ही आज मुख्यधारा में शामिल होने का नाटक करते हो। राजनितिक दल बनाकर लोकसभा, विधानसभा का चुनाव लड़ने, भारतीय संविधान को मानने और भारत भक्त बनने के दावें करते हों, इनकी भारत के प्रति निष्ठा पर यकीन करना बड़ा मुश्किल लगता है। सोवियत संघ रूस के बिखरने से वामपंथ और वामपंथी मिटने के कगार पर है, क्योंकि आज न तो इन्हें वामपंथी देशों से दाना-पानी चलाने को पैसा मिल रहा है और न ही राजनीतिक समर्थन। फिर भी भारत विरोध के इनके इरादे कमजोर नहीं हुए है। आज के समय में ये जल-जंगल-जमीन की लडाई के नाम पर भारत के प्राकृतिक संसाधन पर कब्ज़ा ज़माने और भारत की लोकतान्त्रिक ढांचे को ख़त्म करने का लगातार षड्यंत्र रच रहे है। भारत विरोधी सारे संगठनों के गिरोह के तार उन्ही लोगो से जुड़े है जो आज़ादी से पहले अंग्रेजो का और आज़ादी के बाद भारत विरोधियों का साथ देते रहे है। इनके इरादे आज भी देश की सरकार को उखाड़कर, भारत की संस्कृति-सभ्यता को मटियामेट करने व भारत नाम के देश का अस्तित्व मिटने का ही है। मानवाधिकारों की लडाई लड़ने का ढोंग रचने वालें भारतीय वामपंथी आज भी नक्सलियों और माओवादियों के द्वारा जब निर्दोष लोग मारे जाते है, तब इनके मुहं से एक शब्द सुनाई नहीं पड़ते। जब चीन अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता है, तब भी वे चुप ही रहते हैं।
वैसे समय में जब हम 1962 के युद्ध के जख्मों को याद कर रहे है, इन गद्दारों से जुड़े संगठनों की भूमिका को याद करना और उसे नयी पीढ़ी को बताना जरुरी है। आज चीन एकतंत्रीय तानाशाही के माध्यम से विश्व की महाशक्ति बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। इसके लिए वह सारे हथकंडे अपना सकता है जो उसने 1962 में आजमाया था। चीन द्वारा साम्राज्यवादी राजनीतिक और आर्थिक नीति अपनाने की वजह से आज भारत के संप्रभुता और सुरक्षा के समक्ष गंभीर खतरे उत्पन्न हो गए है। लेकिन भारत की सरकार लगातार चीनी मंसूबों को कामयाब होने दे रही है और उत्पन्न खतरे को दरकिनार कर चीन का पिछलग्गू बना हुआ है। भारत सरकार की इस नीति से 62 के युद्ध में शहीद हुए भारतभक्त सैनिको की आत्मा आज भी शांति की तलाश में है।
(प्रवक्ता.कॉम से साभार)

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