Monday, February 27, 2012

बिहार में प्रेस स्वतंत्रता उल्लंघन पर जांच टीम गठित


भारतीय प्रेस परिषद (पीसीआई) अध्यक्ष मार्केंडेय काटजू ने बिहार में प्रेस की स्वतंत्रता के उल्लंघन की शिकायतों पर गौर करने के लिए सोमवार को तीन सदस्यीय जांच दल का गठन किया। काटजू ने यहां एक बयान में कहा कि राजीव रंजन नाग की अध्यक्षता में टीम प्रेस की स्वतंत्रता के उल्लंघन की शिकायतों के सभी पहलुओं की जांच करेगी। उन्होंने कहा कि टीम को इस मुद्दे की... गहन जांच करने और जल्द से जल्द रिपोर्ट सौंपने के लिए कहा गया है। बयान में कहा गया है कि टीम को राज्य सरकार के साथ ही सभी लोगों और संगठनों के विचार पर गौर करना चाहिए। इस संबंध में राज्य सरकार से टीम को पूरा सहयोग करने के लिए अनुरोध किया गया है। काटजू ने कहा कि पिछले हफ्ते उनकी पटना यात्रा के दौरान उन्हें कई शिकायतें मिलीं कि बिहार में पत्रकारों को अपने कर्तव्य का पालन करने तथा निष्पक्ष रिपोर्ट देने में परेशानी का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि उन्हें शिकायतें मिलीं कि पत्रकार भय के कारण अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर पाते और अगर वह ऐसा करते हैं तो उनकी नौकरी चली जाने या स्थानांतरण का खतरा बना रहता है। उन्हें अन्य तरीके से भी परेशान किया जाता है क्योंकि अधिकारी मालिकों पर ऐसा करने के लिए दबाव बनाते हैं। काटजू ने कहा कि सरकार, किसी मंत्री या अधिकारी के खिलाफ खबर प्रकाशित होने पर सरकारी विज्ञापन रद्द कर दिए जाते हैं। अगर यह सही है तो यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए के तहत प्रेस की आजादी का उल्लंघन है। उन्होंने पिछले हफ्ते बिहार सरकार को आड़े हाथों लेते हुए आरोप लगाया था कि राज्य में सरकार के खिलाफ लिखे जाने पर मीडिया को परेशान किया जाता है। उन्होंने कहा था कि बिहार में मीडिया की स्थिति के बारे में उन्हें जो सूचना मिली है, वह अच्छी नहीं है।

Friday, February 24, 2012

कांग्रेस की रणनीतिक हताशा और प्रचार का हथकंडा


राकेश प्रवीर
कांग्रेस नेता और केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के राष्टï्रपति शासन लगाने संबंधी बयान के बाद देश-प्रदेश की राजनीति एक बार फिर गरमा गई है। वैसे कानपुर में दिए अपने इस बयान से कि कांग्रेस की प्रदेश में बहुमत की सरकार बनेगी नहीं तो दूसरा विकल्प राज्यपाल शासन का ही है, के बाद दिल्ली जाकर वे पलट गए। उनका कहना था कि मीडिया उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है। दरअसल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपनी साख बचाने के लिए परेशान है। पार्टी की कोशिश है कि मीडिया में ज्यादा से ज्यादा जगह घेर कर रखा जाए और विरोधी पार्टियों को मीडिया से दूर रखा जाए। यह एक रणनीति का हिस्सा है। दूसरी ओर अपेक्षा अनुरूप माहौल न बनने की हताशा भी इसे कहा जा सकता है। पांचवे चरण के मतदान के दिन यह कहना कि अगर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं बनी तो दूसरे विकल्प के तौर पर राज्यपाल यानी राष्टï्रपति शासन लगेगा, कहीं न कहीं बीच चुनाव में हताशा को भी दिखाता है। ठीक इसके पहले बयानबहादुर दिग्विजय सिंह भी इसी तरह का बयान दे चुके हैं।
वैसे इसे कांग्रेस के प्रचार का हथकंडा भी कहा जा सकता है। मुस्लिम आरक्षण के मुद्ïदे पर कांग्रेस के आला मंत्रियों ने चुनाव आयोग पर वार का सिलसिला अभी थमा भी नहीं था कि राहुल गांधी ने कानपुर में ऐसा कुछ कर दिया जिससे मीडिया में 24 घंटों तक छाये रहे। इसके पहले वाराणसी में भी उन्होंने तल्ख अंदाज में प्रेस कान्फ्रेंस कर सूबे के सभी राजनीतिक दलों को गुंडा,चोर और लूटेरा करार दिया था। मीडिया पर बने रहने के आदी हो चुके भाजपा वाले कांग्रेस की इस कारस्तानी से खासे खफा हैं लेकिन सच्चाई यह है कि चुनाव के इस मौके पर वे कुछ नहीं कर नहीं पा रहे हैं। चुनाव आयोग की ताक त कम करने की कांग्रेसी रणनीति की जानकारी उजागर होने के बाद दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश तक मीडिया एक तरह से कांग्रेस के हवाले हो गया। नतीज यह हुआ कि भाजपा ने भी अपने रूटीन वाले प्रवक्ताओं को पीछे धकेल कर अपने सबसे सक्षम प्रवक्ता को मैदान में उतारा। बात को बहुत दमदार बनाने की कोशिश में अरुण जेटली ने कांग्रेस को सीरियल अपराधी बता दिया और बात को गर्माना चाहा लेकिन बात बनी नहीं। उधर जब चुनाव आयोग ने बिलकुल साफ  कह दिया कि केंद्र सरकार की उस कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा जिसके तहत वह चुनाव आयोग और आचार संहिता को बेअसर करने की कोशिश कर रहे हैं। इस बीच प्रणब मुखर्जी का बयान आ गया कि ऐसी कोई चर्चा नहीं है। अखबार की खबर का भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। दिल्ली की राजनीति के एक बहुत पुराने जानकार पत्रकार ने बताया कि कांग्रेस भी चुनाव आयोग को कमजोर करने का खतरा नहीं लेने वाली है। उसकी तो कोशिश केवल यह है कि रोज ही इस तरह के मुद्ïदे चुनावी मैदान में फेंकती रहे जिससे विपक्ष को मीडिया में कम स कम जगह मिले। इस काम में दक्ष पुराने खिलाड़ी दिग्विजय सिंह तो आजकल गंभीर मुद्रा में चुनाव विमर्श में लग गए हैं जबकि बेनी  प्रसाद वर्मा और सलमान खुर्शीद जैसे लोग मीडिया को घेरने के काम में लगे हुए हैं।  राहुल गांधी भी इस अभियान को बीच-बीच में गति देने से नहीं चूक रहे हैं। लखनऊ में विपक्षी पार्टियोंं के चुनावी वायदों की लिस्ट फाड़ कर मीडिया को अपनी ओर मुखातिब करते हैं तो कानपुर में आचार संहिता का उल्लंघन की खबरोंं की सुर्खियां बनते हैं। विपक्ष भी कांग्रेस की चाल में लगातार फंसता जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में चरणबद्ध करवाए जा रहे विधान सभा के चुनावों के बहुकोणीय मुकाबलों में यूं तो सभी दल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं परन्तु कांग्रेस पार्टी पर जिस प्रकार से आदर्श चुनाव सहिंता के खुल्लम-खुल्ला क्रमिक उल्लंघन के आरोप लग रहे हैं वह एक मिसाल है। इतना ही नहीं चुनाव आयोग जैसी संविधानिक संस्था के अधिकारों और शक्तियों को भी चुनौती देने का का अभियान भी निरंतर जारी है। यह दीगर बात है कि चुनाव आयोग के नर्म रवैये के चलते वह बाद में माफी मांग लेते हैं। क्या चनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था से यह अपेक्षा करना गलत है कि उसे इस सब से बहुत ही सख्ती से पेश आना चाहिए ताकि भविष्य में कोई भी इस प्रकार से नियमों-कानूनों और आचार संहिता का उल्लंधन न कर सके। अल्पसंख्यकों को आरक्षण के नाम पर अनर्गल बयानबाजी करने और आचार संहिता का उल्लंघन के दोषी पाए जाने पर पहले केंिद्रय कानूनमंत्री सलमान खुर्शीद को चुनाव आयोग का नोटिस जिसकी परिणिति महामहीम राष्ट्रपति को शिकायत के बाद माफीनामा और फिर कुछ दिनों बाद उसी प्रकार के उल्लंघन की पुनरावृति के साथ ही चुनाव आयोग की शक्तियों को चुनौती देने का कार्य किया समाजवादी पार्टी से पाला बदल कर कांग्रेस में आये केन्ंिद्रय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने। बेनी वर्मा अभी नोटिस का जवाब अभिषेक मनु सिंघवी से लिखवा कर चुनाव आयोग को देने जा ही रहे थे कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और अन्य पर आदर्श चुनाव संहिता और धारा 144 का उल्लंघन कर निर्धारित क्षेत्र से बाहर रोड शो करने पर के आरोप में वहां के जिला मजिस्ट्रेट हरिओम जिन पर चुनाव कार्यक्रमों के लिए जिला चुनाव अधिकारी का प्रभार भी है द्वारा धारा 144ए 188ए 283 और 290 के तहत मुकदमा दायर करने के आदेशों का समाचार आ गया। कांग्रेस पार्टी द्वारा चुनावों के दौरान इस प्रकार के आचरण से क्या परिलिक्षित हो रहा है। इन सब के पीछे कौन सी सोच कार्य कर रही। उसे अंतत: हासिल क्या होगा जिसके कारण वह 2014 के चुनाव भी दांव पर लगाने को तैयार है। अब मुकदमा दायर होने के बाद कांग्रेस में मानों हडकंप सा मच गया है। राहुल के प्रति वफादारी दिखाने के चक्कर में एक के बाद एक विवादित और अलग-अलग  बयानों की मानों बाढ़ सी आ गई है। दिग्गी राजा का बयान कि जिला प्रशासन ने यह मुकदमा मायावती के दबाव में दायर किया गया है और कांग्रेस इसको लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय जायेगी। इस तरह के बयान स्थिति को और भी हास्यास्पद बना रही है। प्रदेशाध्यक्ष रीता बहुगुणा, कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी सभी के अलग-अलग वक्तव्य इस प्रकरण को और भी विवादों में घसीटने का कार्य कर रहे हैं।
इस सारे प्रकरण को समझने के लिए आवश्यक है कि इसे निष्पक्ष और कानून की दृष्टि से जांचा जाये कि राहुल के रोड शो में क्या किसी भी प्रकार से कानूनों और आदर्श चुनाव सहिंता का उल्लंघन हुआ है या नहीं। कानून या स्थापित नियमों के उल्लंघन को जांचने का कार्य संज्ञान या शिकायत परही किया जाता है।
कानपुर कांग्रेस के जिला प्रमुख महेश दीक्षित जो कि राहुल के रोड शो के आयोजक बताये जा रहे हैं के आवेदन पर जिला प्रशासन ने महाशिवरात्री के पर्व पर शिवालयों और शहर के मुख्य मार्गों पर भीड़ के अंदेशे के चलते रोड शो के लिए 20 किलोमीटर के निर्धारित मार्ग पर ही जो कि 4 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरता है, की अनुमति प्रदान की थी। परंतु इसके विपरीत राहुल गांधी ने लगभग छह घंटों तक 40 किलोमीटर के रास्ते पर जो कि 7 विधानसभाओं से हो कर गुजरता है पर अपने लाव-लश्कर और गाडिय़ों की लम्बी कतार के साथ जिला प्रशासन और चुनाव आयोग के नियमों और आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए रोड शो किया। इस पर अब तर्क यह दिए जा रहे हैं कि 40 किलोमीटर के आवेदन पर 20 किलोमीटर की अनुमति क्यूँ दी जिला प्रशासन ने, या फिर कि निर्धारित संख्या से अधिक गाडिय़ां स्वयं ही कौतुहलवश उनके पीछे-पीछे आ गई थीं जिनको रोकना चुनाव आयोग या प्रशासन का काम है कांगेस पार्टी का नहीं। या फिर कि मुख्यमंत्री मायावती से राजनैतिक प्रतिस्पद्र्घा के चलते मायावती के प्रभाव के कारण ही जिला मजिस्ट्रेट ने यह झूठा मुकदमा दायर किया है आदि-आदि। देश के संविधान और विधि अनुसार सभी नागरिक समान अधिकार रखते हैं और कानून से बड़ा तो कोई भी नहीं है। नेता अपने दलों और कार्यकर्ताओं में अवश्य ही विशेष स्थान रखते होंगे कानून के समक्ष वह एक सामान्य नागरिक ही हैं।
कांग्रेस की ओर से देश के प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदार राहुल गांधी ने यदि यह सब स्वयं किया है तो यह उसकी राजनैतिक अपरिपक्वता को ही परिलक्षित करता है, और यदि यह सब उनके राजनैतिक प्रबंधकों की अज्ञानता और अतिसक्रियता के कारण हुआ है तो उसे अपने उज्जवल भविष्य के लिए ऐसे प्रबंधकों से बचना होगा। राहुल को यह समझना चाहिए कि बनावटी क्रोधीयुवा की छवि निर्माण के चक्कर में उनकी अपनी स्वाभाविक शांत प्रकृति की छवि ही धूमिल हुई है और राजनेता व छात्र नेता के अंतर को समझते हुए चुनाव के दौरान किसी भी प्रकार के कानून के उल्लंघन से बचना चाहिए। देश की जनता अपने किसी भी नेता से इस प्रकार के आचरण की अपेक्षा नहीं रखती जैसा राहुल ने कानपुर में किया है। उसे यह समझने में कठिनाई हो रही है कि क्या यह वही राहुल गांधी है जिसके निर्देशों के कारण ही देश भर में युवा कांग्रेस के चुनाव लोकतांित्र्ंाक तरीके से करवाए जा रहे हैं और हिमाचल युवा कांग्रेस के राज्य स्तरीय चुनावों में लागू चुनाव आचार सहिंता के उल्लंघन की शिकायत पर भारी मतों से विजयी हुए प्रदेश अध्यक्ष और केन्द्रिय मंत्री वीर भद्र सिंह के पुत्र विक्रमादित्य सिंह का चुनाव न केवल अवैध घोषित कर दिया गया बल्कि उसके अगला चुनाव लडऩे के लिए भी अयोग्य कर दिया जाता है। हिमाचल के विक्रमादित्य और राहुल गांधी के कृत्यों में किस प्रकार का अंतर है। दोनों तरफ चुनाव में लागू आदर्श आचार संहिता की उल्लंघना ही कारण है तो फिर समान अपराध के लिए समान सजा क्यूँ नहीं। दरअसल यह कांग्रेस के मीडिया प्रबंधन का ही हिस्सा है। मुद्ïदोंं से इत्तर विवादों के जरिए मीडिया प्रचार हासिल करने की एक अदद चाल है।

Thursday, February 23, 2012

सीएम पद को लेकर सियासी सुर

  • राकेश प्रवीर
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के मतदान का चार चरण पूरा हो चुका है। गुरुवार को पांचवे चरण का चुनाव है। मगर पिछले एक हफ्ïते से सीएम पद को लेकर सियासी दलों ने सुर अलापने शुरू कर दिए है। वैसे उत्तरप्रदेश विधानसभा में किसे बहुमत मिलेगा और किसका राज होगा यह आगामी 6 मार्च को तय होगा। मुख्यमंत्री पद को लेकर अभी से हवा में सभी दलों की ओर से नाम उछाले जा रहे हैं और जुबानी जंग छिड़ी हुई है। बसपा छोड़ कर अन्य सभी पार्टियों ने एक तरह से मुख्यमंत्री पद के दावेदारी को लेकर कई-कई नाम उछाले हैं। चुनावी मुकाबले में भाजपा और कांग्रेस भले ही अब तक तीन और चार नंबर की लड़ाई लड़ रही हैं, मगर कई नामों की चर्चा मुख्यमंत्री पद के लिए इन दलों में होने लगी है। दो दिन पहले भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कह दिया कि पार्टी को बहुमत मिला तो उमा भारती मुख्यमंत्री होंगी। इसके पहले लखनऊ में चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के पूर्व राष्टï्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कलराज मिश्र को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया था। कुर्सी की लड़ाई का ही नतीजा है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता कलराज मिश्र ने उमा भारती को बाहरी बताया था। उन्होंने कहा था कि वह यहां की वोटर नहीं हैं। इसलिए मुख्यमंत्री नहीं बन सकतीं। मगर गौर करें कि उमा भारती को जब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने बुंदेलखंड की चरखारी से चुनाव लड़ाने का फैसला किया उसी दौरान एक तरह से उन्हें बतौर भावी मुख्यमंत्री पेश किया गया। इस मुद्ïदे पर भाजपा का मतभेद भी उभर कर सामने आया। चर्चा शुरू हुई कि उमा भारती को इस तरह से पेश करने की वजह से ही फायरब्रांड नेता विनय कटिहार अब कटे-कटे से रह रहे हैं और भरसक उमा भारती के साथ चुनावी सभा करने से बच रहे हैं। भाजपा के अंदर सूर्य प्रताप शाही की दावेदारी पर भी चर्चा होती रही है। चुनाव प्रचार के शुरुआत में भाजपा का एक खेमा राजनाथ सिंह को भी भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर रहा था। बाद में श्री सिंह ने अपने को इस दौड़ से बाहर बता कर एक तरह से इस मामले का पटाक्षेप कर दिया। मगर उनके कतिपय समर्थकों का मानना है कि पूर्व के अनुभवों के आधार पर उनकी दावेदारी अभी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है।
दूसरे दलों में भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावेदारी को लेकर जुबानी जंग जारी है। कांग्रेस में कई नाम की चर्चा हो रही है जो मुख्यमंत्री पद के दावेदार बताए जाते हैं। कांग्रेस विधायक दल के पूर्व नेता प्रमोद तिवारी और पार्टी की प्रदेश इकाई की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के साथ ही अन्य कतिपय नाम भी है जिनकी बीच-बीच में चर्चा हुई है। कांग्रेस-रालोद के गठबंधन के बाद रालोद के युवा सांसद तथा रालोद संस्थापक चौधरी अजित सिंह के पुत्र जयंत चौधरी की भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भावी मुख्यमंत्री के तौर पर जोरदार चर्चा शुरू हुई। कांग्रेस सांसद बेनी प्रसाद वर्मा भी अपने को इस पद की होड़ से अलग मानने के लिए तैयार नहीं है। समाजवादी पार्टी से कांग्रेस में गए श्री वर्मा कई मौके पर अपनी इस महत्वकांक्षा का इजहार भी कर चुके हैं। यहीं वजह थी कि केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने खुद की दावेदारी जताते हुए बाराबंकी से कांग्रेस सांसद पीएल पुनिया को बाहरी बता दिया था। कहा था कि वह बाहरी हैं किसी रेस में नहीं हैं। मुख्यमंत्री पद की लड़ाई बढ़ी तो केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने कहा सीएम कोई भी हो, लेकिन उसकी चाबी कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के हाथ में ही रहेगी। राहुल गांधी को उन्होंने रिमोट करार दिया था। राहुल के नाम पर सफाई देते हुए कहा था कि जो व्यक्ति प्रधानमंत्री की कुर्सी स्वीकार नहीं कर रहा है वह प्रदेश का मुख्यमंत्री क्यों बनेगा। कांग्रेस से जुड़े युवाओं के बीच कांग्रेसी सांसद जतिन प्रसाद की भी बतौर मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में चर्चा हो रही है।
चुनाव लड़ रही बसपा में ऐसी कोई होड़ नहीं है। मायावती स्वयंभू हैं। उनके आगे किसी में ऐसी हिम्मत भी नहीं नेता प्रतिपक्ष शिवपाल सिंह यादव ने ने कहा था कि समाजवादी पार्टी को बहुमत मिला और सहमति बनी तो अखिलेश यादव उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री हो सकते हैं। मगर चुनाव प्रचार के दौरान ही सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अपने को इस पद की दावेदारी से अलग कर लिया था। अखिलेश ने साफ तौर पर कहा था कि मैं इस रेस में नहीं हूं। नेताजी के पास शासन करने का लंबा अनुभव है। प्रदेश में सरकार बनीं तो अगले मुख्यमंत्री वही होंगे।

Wednesday, February 22, 2012

पश्चिम उत्तर प्रदेश:जाट वोटों के बंटवारे पर लगी है सबकी नजर


उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए अब तक चार चरणों का मतदान हो चुका है लेकिन राज्य में काबिज बसपा को विरोधी दल उखाड़ सकेंगे यह तो 6 मार्च को ही तय होगा। फिलहाल सबके अपने-अपने दावे हैं।  यह बात तय है कि उत्तर प्रदेश में लोकदल-कांग्रेस गठबंधन हो, समाजवादी पार्टी हो या फिर भाजपा सभी के निशाने पर बसपा ही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार माहौल बदला हुआ है। वोटों के जहां नए समीकरण बने हैं वही जातीय गोलबंदी भी पिछली बार से कुछ अलग है। आम धारणा है कि इस बार जाट वोट बंटेंगे। ऐसे में यह देखना लाजिमी होगा कि इसका फायदा किसे हो रहा है।
असल में बसपा के पास 20 फीसदी दलित वोटों के साथ एक मजबूत आधार है। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को 30 फीसदी वोट मिले थे और उसके जरिए पार्टी ने 206 सीटें हासिल की थी, लेकिन इस बार स्थिति ऐसी नहीं है क्योंकि मुस्लिम मतदाता उससे दूर हो रहा है। कथित नायाब सामाजिक समीकरण भी दरक चुका है। इसके मुकाबले में सबसे मजबूत सपा खड़ी है। सपा के पास यादव वोटों के रूप में 10 फीसदी आधार वोट है। उसे करीब 18 फीसदी मुसलमानों का साथ भी मिल रहा है। अन्य पिछड़ी जातियों की गोलबंदी भी सपा के पक्ष में होने की चर्चा है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि करीब 30 फीसदी वोट के साथ इस बार सपा पूरे प्रदेश में अन्य सभी से आगे है।
जहां तक कांग्रेस की बात है तो वह किसी भी जाति में पहली पसंद नहीं दिख रही है। उच्च जातियों में ब्राह्मण, बनिया, राजपूत और कायस्थ की पहली पसंद इस बार भाजपा होने का दावा कर रही है। यह भी कहा जा रहा है कि अगर उसे कहीं भाजपा का उम्मीदवार पसंद नहीं है तो उसके बाद ही वह कांग्रेस को वोट करने की सोचेगा। मुसलमानों की पहली पसंद सपा है और सपा के मजबूत न होने की स्थिति में ही वह कांग्रेस के बारे में सोच रहा है। दलितों की पहली पसंद बसपा है और अगर उसे बसपा की बजाय किसी दूसरे को वोट देना है तो तब वह कांग्रेस के बारे में सोच रहा है। जहां तक टिकटों का सवाल है तो भाजपा ने 150 टिकट उच्च जातियों को दिए हैं, जबकि कांग्रेस ने 85 टिकट ऊंची जातियों को दिए हैं।
बसपा ने जाटों को मिलाने के बाद 125 टिकट उसने ऊंची जातियों को दिए हैं। इसलिए यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बसपा किस तरह 20 फीसदी में दूसरी जातियों को जोड़कर 25 फीसदी तक ले जाती है। वैसे 2009 के लोकसभा चुनावों में उसे 27 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन यह बात भी सच है कि सपा के लिए 10 फीसदी पर 20 फीसदी जोडऩा बसपा से मुश्किल काम है। इसके अलावा स्थानीय मुद्ïदे काफी हद तक हावी हैं और उसमें भी उम्मीदवार का चयन काफी अहम है। पश्चिमी उतर प्रदेश की राजनीतिक नब्ज पहचानने वाले एक विश्लेषक का कहना है कि लोकदल का गढ़ समझने जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत, मेरठ, मुजफ्फरनगर और बिजनौर जिलों में पार्टी की स्थिति को देखें तो उसमें उम्मीदवारों की व्यक्तिगत छवि काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाली है। स्थानीय स्तर पर लोकदल के उम्मीदवारों के चयन को सही नहीं माना जा रहा है। बागपत, बड़ौत, सिवालखास, फतेहपुर सीकरी और सादाबाद सभी जगह पार्टी के बागी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं। वहीं सरधना  हाजी याकूब कुरैशी और शाहनवाज राणा जैसे लोगों को पार्टी में शामिल कर मुसलमानों को अपनी ओर खींचने की कोशिश लोकदल को महंगी पड़ सकती है। इन दोनों उम्मीदवारों की छवि आम जनता में बहुत अच्छी नहीं है। इसके चलते कम से कम सिवालखास, सरधना और बिजनौर में तो जाट वोट पूरी तरह लोकदल को मिलने वाला नहीं है। वैसे भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकदल और कांग्रेस का गठबंधन बहुत सहज नहीं है।
धुर कांग्रेस विरोधी रहा जाट वोट बैंक बहुत आसानी से कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए एकमुश्त वोट नहीं करेगा और वह भाजपा व सपा में बंट सकता है। जहां बसपा उम्मीदवार जाट है तो उसे भी जाट वोट मिल रहा है। इसके अलावा स्थानीय मुद्ïदे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं और कई जगह बसपा को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। मसलन मुजफ्फरनगर की चरथावल सीट पर पार्टी के सांसद कादिर राणा के परिवार के उम्मीदवार को हराने के लिए माहौल बन रहा है। लेकिन एक बात जरूर साफ  होती दिख रही है कि इस बार मुस्लिम मतदाता बसपा से दूर हो रहा है और यही वजह है कि मायावती कांग्रेस पर ज्यादा प्रहार कर रही है ताकि कई जगह सपा की जगह कांग्रेस मुकाबले में दिखे और उसके चलते मुस्लिम वोट सपा व कांग्रेस में बंटे। जिसका फायदा मायावती को मिल सकता है।

यूपी चुनाव में बाबा रामदेव भी कसौटी पर


चुनाव के काफी पहले से योग गुरु बाबा रामदेव माहौल को गरमा रहे थे। काले धन और भ्रष्टïाचार पर अपने तीखे तेवर को लेकर बाबा रामदेव ने आम लोगों को भी एक हद तक प्रभावित किया है। अन्ना आंदोलन के दायरे में भी बाबा रामदेव की चर्चा बनी रही। ऐसे में यह देखना लाजिमी है कि बाबा रामदेव का उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में कितना और किस हद तक हस्तक्षेप या प्रभाव रहा। इसका माकूल जवाब तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चल पायेगा, मगर बाबा का प्रयास एक तरह से कांग्रेस को शिकस्त देने की ही रही है। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के साथ ही अन्य नेताओं के साथ बाबा की नोंकझोक कोई नई बात नहीं है। मगर जिस तरह से विगत साल दिल्ली के रामलीला मैदान में आंदोलन कर रहे बाबा रामदेव और उनके समर्थकों के साथ पुलिसिया बर्ताव हुुआ उसके बाद तो बाबा का तेवर ही बदल गया। आज बाबा का सबसे बड़ी दुश्मन कांग्रेस है। ऐसे में बाबा का पूरा अभियान एक तरह से काले धन और भ्रष्टïाचार के मुद्ïदों के बहाने कांग्रेस विरोध में ही केंद्रित है। इसीलिए यह माना जा रहा है कि यूपी चुनाव में बाबा रामदेव की साख भी कसौटी पर है।
चुनाव के दौरान बाबा रामदेव यूपी में सक्रिय है। जगह-जगह उनकी सभाएं हो रही है। आमतौर पर अपनी सभाओं में वह किसी पार्टी का नाम नहीं लेते। मगर चुनाव की गरमागरम अंगीठी पर योग के साथ राजनीति का तड़का लगाने से भी बाज नहीं आते हैं। हाल ही में जब प्रियंका गांधी वाड्रा अपने बच्चों के साथ मंच पर गई तो प्रत्युत्तर में बाबा भी पांच बच्चों को लेकर मंच पर बैठाए। बाबा ने इस मुद्ïदे पर प्रियंका को आड़े हाथों भी लिया।
बाबा की सभाओं में सबकुछ देखने को मिल रहा है। काले धन पर खरी-खोटी के साथ ही कपाल भारती, अनुलोम-विलोम, आयुर्वेदिक उपचार ,चुटकुले और सियासी चुनौती भी। अब तक करीब दो दर्जन सभाएं उनकी यूपी की विभिन्न जगहों में हो चुकी है। हर जगह शरीर की तुलना देश से। बीमारी की जड़ भ्रष्टाचार। यूपी के नेता पिछड़ों की राजनीति के आदी हैं। उत्तर प्रदेश भगवान शिव, राम और कृष्ण की जन्मभूमि है। बाबा का गुस्सा राहुल गांधी के उस बयान पर भी है जिसमें उन्होंने यूपीवासियों को भिखमंगा कहा था। उत्तर प्रदेश को पिछड़ा कहने वालों को भी बाबा कोसने से बाज नहीं आते हैं। योग के गुण बताते हुए वे कृष्ण से होकर वोटिंग मशीन पर आ जाते हैं और कृष्ण ने उंगली पर गोवर्धन उठाया की चर्चा भी शिद्ïदत से करते हैं। मतदान के दिन बटन सोच समझकर दबाइए का खास अपील भी बाबा अपने अंदाज में करते हैँ। चेताते भी है कि लुटेरों को मत चुनिए...फिर आहिस्ते से राजनीति के गलियादे से होकर योग का रुख कर लेते हैं। रामदेव का कहना है कि वह तो देश के सबसे ताकतवर लोगों से पंगा ले रहे हैं,फिर भी कोई तनाव नहीं है। सही को वोट दीजिए पर योग भी कीजिए।
मंच से उतरते ही मीडिया के घेरे में भी बाबा आ जाते हैँ। बाबा दुगनी ऊर्जा से मुखातिब होकर कहते हैं कि कसी के विरोध या पैरवी में नहीं निकला हूं। 121 करोड़ लोगों की बात कर रहा हूं। इंटरनेशनल फकीर हूं। दो सौ देशों में गया। देश का मान बढ़ाया। बाबा की इन बातों से उनके भक्त भाव विभोर हो जाते हैं। तालियां गूंजने लगती है, जिंदाबाद के नार ेभी लगते हैं । बाबा इसे अपनी सबसे बड़ी सफलता मानते हैं। योग गुरु बाबा रामदेव ने  कहा  है कि केंद्र में सत्ताधारी कांग्रेस को अहंकार हो गया है और उसका यह अहंकार उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम आने के बाद टूट जाएगा। दिल्ली से सटे नोएडा में एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान उन्होंने कहा कि कांग्रेस को अहंकार हो गया है और यह ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत बिहार से भी खराब होगी।
रामदेव ने कहा कि कांग्रेस ने शुरू से ही देश को केवल धोखा देने का काम किया है। चुनाव के दौरान उसके मंत्री संवैधानिक संस्थाओं को लगातार चुनौती दे रहे हैं। उनके राजकुमार पर मुकदमा दर्ज किया गया है। इससे साबित होता है कि उनमें अहंकार बहुत अधिक हो गया है। उन्होंने कहा कि पूरे देश में भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ क्रांति के बुलबुले उठ रहे हैं और जनता में आक्रोश है। जनता का यह आक्रोश बढ़े हुए मतदान प्रतिशत के रूप में सामने आ रहा है। रामदेव ने कहा है कि कांग्रेस रामलीला मैदान में हुए अत्याचार पर नहीं रोती, उसे देशभक्तों के मरने का दुख नहीं है लेकिन उनकी मुखिया आतंकवादियों की लाश देखकर जरूर रोती हैं। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पर परोक्ष रूप से निशाना साधते हुए रामदेव ने कहा कि मध्य प्रदेश का कचरा यहां आकर वातावरण को दूषित कर रहा है। पहले गुरु में अहंकार की भावना थी लेकिन अब चेले में भी हो गयी है। प्रियंका गांधी भी बाबा के निशाने पर रहती है। बाबा कहते हैं कि अब तो बेटी भी बाबा को कोसने लगी है। मगर इन सबके बावजूद बाबा यूपी के मतदाताओं को कितना और किस हद तक प्रभावित कर पाए हैं यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा।

बसपा से बिदके ब्राह्मण किधर?


बसपा का पिछला कथित नायाब सोशल इंजीनियरिंग इस बार ध्वस्त है। दलितों के साथ ब्राह्ïमणों का गठजोड़ इस बार दरक चुका है। मगर सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर बसपा से हटे ब्राह्मण इस बार किस तरफ है। क्या कांग्रेस की ओर या भाजपा की ओर। वैसे भाजपा-कांग्रेस दोनों के नेताओं का दावा है कि ब्राह्ïमणों का इस बार आशीर्वाद उसे ही मिल रहा है। मगर यह मात्र चुनावी दावे हैं। हकीकत यही है, यह कोई जरूरी नहीं है। इस प्रदेश में ब्राह्ïमण एक बड़ी सियासी ताकत है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे में इस सवाल का जवाब ढूंढना वाजिब है कि आखिर ब्राह्ïमण जा किधर रहे हैं?
भारतीय जनता पार्टी कभी ब्राह्मणों और बनियों की पार्टी कही जाती थी लेकिन पिछले कुछ वर्षो में ब्राह्मण उससे ऐसे रूठे कि वह बनियों की पार्टी होकर रह गई। ऐसे में जबकि जाति आधारित राजनीति की प्रयोगशाला बने देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में चुनाव है, भाजपा ने रूठे ब्राह्मणों को फिर साथ लाने की कवायद पुरजोर तरीके से की है और इसके लिए उसने सहारा लिया है चाणक्य के नाम का। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा,विष्णु,महेश है... का नारा देकर दलितों और ब्राह्मणों की नई सोशल इंजीनियरिंग तैयार की और इसके सहारे सत्ता पर काबिज हुई। इस बार भी उसकी यही कोशिश है लेकिन नारा बदलकर ब्राह्मण भाईचारा हो गया है। अपने इस समीकरण को बनाए रखने के लिए बसपा ने फिर से अपने महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा को आगे किया है। ब्राह्मणों को खोने की चिंता के मद्देनजर वह जगह-जगह ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन की है और  इस बार नारा दिया गया है-ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा...।
ब्राह्मणों के बसपा से हुए कथित मोहभंग को देखते हुए भाजपा एक बार फिर से अपने इस पुराने वोट बैंक को पाने की कोशिशों में जुट गई है। पार्टी ने इसके लिए चाणक्य का सहारा लिया है और ब्राह्मण शंख बजाएगा... हाथी जंगल जाएगा का नारा बुलंद किया जा रहा है। भाजपा चाणक्य जनस्वाभिमान मंच के बैनर तले प्रदेश भर में ब्राह्मणों का सम्मेलन कर रही है। अब तक ऐसे 29 सम्मेलनों का आयोजन किया जा चुका है। वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी, अनंत कुमार, संजय जोशी, करूणा शुक्ला और विनोद पांडेय जैसे ब्राह्मण नेता इस प्रकार के आयोजनों में शिरकत कर चुके हैं। बिहार से भी हरेन्द्र प्रताप और राजा राम पांडेय जैसे नेताओं को यूपी के ब्राह्ïमणों के बीच पैठ बनाने की जिम्मेदारी दी गयी है। मंच के संयोजक के. के. शुक्ला कहते है कि बसपा ब्राह्मणों का स्वाभिमान बढ़ाने का दावा करती है लेकिन सच्चाई यह है कि उसने ब्राह्मणों का स्वाभिमान गिराया है। बसपा अध्यक्ष मायावती ने नोएडा से लखनऊ तक दलित महापुरुषों की मूर्तियां लगवाईं और पार्क बनवाए लेकिन उन्होंने एक भी ब्राह्मण महापुरुष के लिए ऐसा कुछ नहीं किया।उ न्होंने कहा, बसपा आज ब्राह्मण भाईचारे की बात कर रही है लेकिन यह कैसा भाईचारा है कि चाणक्य, परशुराम, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे ब्राह्मण महापुरुष उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। पिछले चुनाव में ब्राह्मण बसपा के साथ भले हो लिए थे लेकिन इस दफे प्रदेश का ब्राह्मण मतदाता खामोश है। ब्राह्मणों का आशीर्वाद पाने के लिए भाजपा जहां जहां उनके बीच पैठ बना रही है वहीं कांग्रेस भी रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी और मोहन प्रकाश जैसे ब्राह्मण नेताओं को सामने कर उसकी ओर टकटकी लगाए देख रही है। उत्तर प्रदेश के मौजूदा विधानसभा चुनाव में हर दल अपनी जीत मुकम्मल करने के लिए जातीय समीकरण गढ़ रहा है। माना जा रहा है कि समाजवादी पार्टी के साथ मुसलमानों और यादवों यानी एमवाई का मजबूत वोट बैंक इस बार है, जो एक तरह से सपा का अपना पुराना समीकरण भी रहा है तो बसपा फिर से ब्राह्मणों को जोडऩे के लिए तमाम तरह की मशक्कत कर रही है। मगर कहा जा रहा है कि इस बार उसका पिछला समीकरण ध्वस्त हो चुका है।  भाजपा अगड़े और अन्य पिछड़ा वर्ग को साथ जोड़कर चुनावी वैतरणी पार करने में लगी है। बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कराने से लेकर उमा भारती को यूपी का प्रभारी बनाने और फिर चरखारी से चुनाव लड़ाने के पीछे भाजपा की मंशा एक और जहां पिछड़े लोघ समुदाय के मतों की गोलबंदी करना रहा है वहीं अपने परम्परागत वोट बैंक ब्राह्ïमणों की ओर भी उसकी नजर लगी रही है। वैसे उत्तर प्रदेश की जातिगत राजनीति की इस प्रयोगशाला में ब्राह्मण किसे अपना आशीर्वाद देगा यह स्पष्ट नहीं दिख रहा है, लेकिन इतना तो दिख रहा है कि जिसके साथ उसका आशीर्वाद जाएगा ऊंट उसी करवट बैठेगा।
एक अनुमान के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 16 फीसदी वोट अगड़ी जातियों के हैं। इसमें आठ फीसदी ब्राह्मण, पांच फीसदी राजपूत और तीन फीसदी अन्य हैं। 35 फीसदी पिछड़ी जातियों में 13 प्रतिशत यादव, 12 प्रतिशत कुर्मी और 10 प्रतिशत अन्य हैं। इसके अलावा 25 फीसदी दलित, 18 फीसदी मुसलमान, 5 फीसदी जाट मतदाता हैं।
मायावती ने पिछले चुनाव में 20 फीसदी दलित और आठ फीसदी ब्राह्मणों को जोड़कर सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला तैयार किया था और पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। आमतौर पर यह माना जाता है कि 28 से 30 प्रतिशत वोट जिसने साध लिया उसकी यहां बल्ले-बल्ले हो सकती है।



Saturday, February 18, 2012

AN ANOTHER PICX WITH LOKSABHA SPEAKER MEERA KUMAR...


ALONG WITH LOKSABHA SPEAKER MRS MEERA KUMAR...


हताश जनता का लोकतंत्र पर विश्वास

उत्तर प्रदेश की सियासत में कई पड़ाव आये हैं। बदलाव के कई दौर भी यहां की राजनीति में आई है। पर आजादी के बाद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर मतदान अपने आप में एक एक सियासी करिश्मा है। भ्रष्टाचार से हताश जनता का चुनावी लोकतंत्र पर ऐसा विश्वास वाकई सलाम करने के लायक है। इतिहास के पन्ने उलटने पर पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के सियासी गलियारों में मुद्ïदों की गर्माहट, नेताओं के चेहरे और पार्टी की लहर कोई भी कभी ऐसा करिश्मा नहीं कर पाया। भगवा उन्माद, मंडल-कमंडल का उत्तेजक माहौल और राम मंदिर निर्माण के प्रति बहुसंख्य हिन्दू समाज की कटिबद्धता में भी उत्तर प्रदेश में 57 प्रतिशत ही मतदान हुआ था। आपातकाल के बाद इंदिरा गाँधी के तानाशाही के जवाब में भी केवल 55 प्रतिशत  मतदाताओं ने ही अपना आक्रोश व्यक्त किया था। राम रथ पर सवार हो कर उत्तर प्रदेश की कुर्सी हथियाने वाली भजपा को सिंहासन से उतारने के लिए 1993 में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने मिल कर सामाजिक न्याय और दलित राजनीति का मिश्रण तैयार किया था।  कशीराम और मुलायम सिंह का साझा चेहरा व सांप्रदायिक शक्ति को रोकने की गुहार भी 60 फीसदी का जादुई आंकड़ा नहीं पार करा सकी। उत्तर प्रदेश की बेहद पेचीदा सियासी जमीन पर  1999 में अटल बिहारी बाजपेई का कारगिल विजयी  चेहरा भी 53 प्रतिशत से ज्यादा वोटरों को घर से बहार नहीं निकाल सका था। पर इस बार ऐसा कोई हंगामा चेहरा या मुद्ïदा नहीं है। अन्ना के बीमार होने और चुनाव में कैम्पेन न करने से भ्रष्ट्राचार का मुद्ïदा भी केंद्रीय भूमिका नहीं पा सका और न ही कांग्रेस विरोधी लहर बहती हुई दिख रही है। बस अलसाए हुए सियासी गलियारे में बढ। शायद यही वजह है जो सपा इस बढ़े हुए मतदान को बसपा विरोधी लहर मान रही है और इस पर अपना हक जाता रही है। वहीं कांग्रेस को इसमें राहुल और प्रियंका का चमत्कार दिख रहा है और वो उत्तर प्रदेश में खुद को 22 साल बाद फिर से प्रदेश की सियासत में लौटते हुए देख रहे हैं।  उनका तर्क है की बढ़ा हुआ मतदान युवा मतदाताओं की देन है और ये युवा राहुल गाँधी की सरपरस्ती में उत्तर प्रदेश की तकदीर बदलने को उतावला है। लेकिन यहीं पर अन्ना आन्दोलन का दृश्य उभर आता है जब देश का युवा सड़कों पर था और उसका गुस्सा सबसे ज्यादा राहुल गाँधी पर फूट रहा था। सड़कों पर विरोध करने उतरा युवा नारे लगा रहा था  कि- देश का युवा यहाँ है, राहुल गाँधी कहाँ है...। साथ ही साथ राहुल की सभाओं में उछालते जूते और लहराते हुए काले बैनर और झंडे इस  तर्क को गले से उतरने नहीं देते कि राहुल गाँधी के करिश्मे ने उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को मथ दिया है और वोट का सारा मख्खन कांग्रेस के करीने लगने वाला है। कांग्रेस और बसपा के निपटने के बाद नजर भजपा की ओर जाती है जो ये कह रही है कि मतदाता इस बार कांग्रेस और बसपा के भ्रष्टाचार से अजीज आ चुकी है और सपा से उसे कोई उम्मीद नहीं है इसलिए साफ  सुथरी सरकार और कुशल  नेतृत्व के  लिए मतदाता अबकी बार भाजपा का रुख कर रहा है। भाजपा का दावा भी रेत का महल है क्योंकि जिस तरह से बाबू सिंह कुशवाहा को अन्दर बहार किया गया और जनता को बेवकूफ  समझ कर उन्हें भाजपा का चुनाव प्रचार करने के लिए उतरा गया उससे तो यही लगता है कि जनता  इस बार भाजपा को अपने बुद्धि विवेक का परिचय करा के ही दम लेगी।  कर्नाटका के यद्ïदुराप्पा का केस अभी सियासी गलियारों में मौजूद ही था कि विधान सभा में पोर्न फिल्म देखते हुए पाए गए भाजपा के मंत्रियों ने मुश्किलें और बढ़ा दीं। खैर, भाजपा इसे कोई मुद्ïदा नहीं मन रही है और दावा कर रही है कि इसका कोई असर चुनाव में देखने को नहीं मिलेगा।
बढे मतदाताओं पर दावेदारी में सपा भी पीछे नहीं है। सपा का कहना है कि जनता के दर्द को सपा ने समझ लिया है और उसके घोषणा पत्र में जनता के सब दुखों का निवारण है जो इस बार सपा के लिए एक अंडरकरंट  बहा रहा है। अबकी बार विधान भवन में साइकिल का ही बोलबाला होगा। सपा का ये मानना कितना सही है ये तो वक्त ही बताएगा।  इन मुख्य पार्टियों के अलावा सभी छोटी पार्टियां और दागी-बागी निर्दलीय प्रत्याशी वोट कटवा की भूमिका में नजऱ आ रहे  है।  इनकी अधिकतम सफलता सत्ता में भागीदारी तक ही सीमित है। हमाम  में सब नंगे हैं। भ्रष्टाचार, अनाचार और अत्याचार से दो चार होता मतदाता किस ओर सियासी गाड़ी खींच रहा है किसी को कोई खबर नहीं है। सब शंका के शिकार हो रहे हैं। कयासबाजी का बाजार गर्म है।  बढ़े मतदाताओं में सबसे ज्यादा संख्या महिलाओं और युवाओं की है। और ये ऐसे वोटर हैं जिनके बारे में सियासी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। ये किसी भी ओर मुड़ सकते हैं। कुल मिला कर शांत सतह  के नीचे मची हलचल को भाँपते हुए यही कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की चुनावी जमीन के नीचे बहता हुआ वोट का अंडरकरंट अबकी बार सबको चौंका सकता है और सत्ता की ऐसी तस्वीर बना सकता है जिसके बारे में पहले नहीं सोचा गया  रहा होगा।
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प्रोमिला जीत गई, मगर सरकार की हुई फजीहत


यह निश्चिततौर पर सीनियर आईएएस ऑफिसर प्रोमिला शंकर की जीत है। मगर इसी के साथ उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार की फजीहत भी है। केन्द्र सरकार के कार्मिक व पेंशन एवं लोक शिकायत मंत्रालय की टिप्पणी से राज्य सरकार बेआबरू हुई है। पिछले वर्ष सितम्बर में पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर प्रदेश सरकार ने इस सीनियर आईएएस ऑफिसर को निलंबित कर दिया था। अफसरशाही के इतिहास की शायद यह पहली घटना है जब प्रदेश सरकार की संस्तुति और सहमति की जरूरत समझे बिना केन्द्र सरकार ने सीधे हस्तक्षेप कर उसकी कार्रवाई को अनुचित,अनावश्यक और पूर्वाग्रहजनित ठहराया है। आईएएस ऑफिसर पर लगाए गए चार्ज को भी सिरे से नाकार दिया गया है।
राष्टï्रीय राजधानी प्रक्षेत्र, नोएडा में कमीशनर के पद पर तैनात 1976 बैच की आईएएस अधिकारी प्रोमिला शंकर यूपी कैडर में वर्तमान मुख्यसचिव अनूप मिश्रा से भी सीनियर हैं। बिना पूर्व अनुमति के मुख्यालय छोडऩे और कोलम्बो (श्रीलंका) की यात्रा करने के आरोप में कार्रवाई करते हुए प्रदेश सरकार ने पिछले साल 9 सितम्बर को प्रोमिला शंकर को निलंबित कर दिया था। प्रोमिला शंकर पर सरकार की ओर से आरोप लगाया गया कि वह 5 और 6 सितम्बर को पूर्व अनुमति के बिना मुख्यालय से अनुपस्थिति रहीं और विदेश की यात्रा की। प्रदेश सरकार ने अखिल भारतीय सेवा 1969 के नियम 8 के तहत उनके खिलाफ कार्रवाई करते हुए निलंबित करने का फरमान जारी किया। राज्य सरकार का यह तर्क था कि श्रीमती शंकर ने सूचित किया था कि वह दो दिन यानी 5 और 6 सितम्बर को आकस्मिक अवकाश पर रहेंगी मगर उन्होंने विदेश की यात्रा की जो अखिल भारतीय सेवा (आचरण) अधिनियम 1968 के नियम 3 के विपरीत है।
मगर प्रदेश सरकार ने यह कार्रवाई ठीक तब की जब श्रीमती शंकर ने एक दिन पहले यमुना एक्सप्रेसवे प्राधिकरण पर अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें उन्होंने सरकार की अनेक अनियमितताओं को इंगित किया था और साथ ही जमीन अधिग्रहण की खामियों को भी उजागर किया था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट मेंं यह भी कहा था कि प्राधिकरण राष्टï्रीय राजधानी प्रक्षेत्र बोर्ड की औपचारिक अनुमति के बिना ही यमुना टाउनशीप योजना को अमलीजामा दे रहा है। इसी के बाद सरकार ने उन्हें निलंबित करने का तय किया और इसके लिए उनकी दो दिनों की छुट्ïटी को आधार बनाया गया। इस बाबत केन्द्र सरकार के अपीलीय प्राधिकार ने राज्य सरकार के  खिलाफ प्रोमिला शंकर की अपील को सुनने के बाद इस मसले पर विचार करना तय किया। श्रीमती शंकर इसी 29 फरवरी को सेवानिवृत्त होने वाली हैं। केन्द्र सरकार का मानना है कि श्रीमती शंकर के खिलाफ अनावश्यक, अकारण आरोप लगाए हैं और इसका संबंध किसी भी तरह से भ्रष्टïाचार, जनहित, अनैतिक कर्म, सरकारी धन के विनियोजन या अनियमितता, गंभीर लापरवाही या कर्तव्यहीनता से नहीं है। केन्द्र सरकार के अपीलीय प्राधिकार के इस फैसले का स्वागत करते हुए श्रीमती शंकर ने कहा है कि अब मैं अपने ऑफिस में वापस आ गई हूं और एकतरह से यह मेरी जीत है। मगर मैं इस लड़ाई को छोडऩे वाली नहीं हूं। अपनी अस्मिता और स्वाभिमान के लिए मैं उनमें से किसी को भी छोडऩे वाली नहीं हूं जिन्होंने मुझे अपमानित करने की साजिश रची थी।

Thursday, February 16, 2012

राहुल जी, शकीरा का शौहर अब नहीं रहा


  • राकेश प्रवीर
 राहुल जी, शकीरा का शौहर अब नहीं रहा...। हां, वही शकीरा जिसने करीब एक माह पहले मसौली फसाद की चर्चा के साथ जीवन-मौत से जूझ रहे अपने पति की जिन्दगी बचाने और फसादियों को सजा दिलाने की आपसे गुहार लगाई थी। गांव वालों ने चंदा कर गुरुवार को फसाद पीडि़त रेहान को सुपुर्दे-खाक कर दिया। संभव है पसमांदा मुस्लिम बिरादरी की शकीरा खातून अब आपसे गुहार नहीं लगाए, दोषियों को सजा दिलाने की फरियाद भी नहीं करे। करीब छह साल पहले मसौली में फसादियों के बर्बर हमले में रेहान बुरी तरह से जख्मी हो गया था। चोट की वजह से उसके पेट में ट्ïयूमर बन गए थे। दाने-दाने को मोहताज शकीरा की किस्मत कलावती से थोड़ी अलग निकली। याद है न, कलावती की आवाज कभी आपने संसद में उठाई थी। तब पूरे देश का ध्यान एकबारगी आपकी कलावती की ओर गया था और संवेदना का उत्कर्ष आपमें मुखर था। मगर शकीरा बदनसीब ठहरी... अब शौहर का साया भी नहीं रहा।
करीब महीने भर पहले कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी से की गई पिछड़े मुस्लिम समाज की शकीरा की फरियाद चुनावी शोर में अनसुनी रह गई। उम्मीद और भरोसे के साथ करीब एक महीने पहले बहराइच के कैसरगंज निवासी मो. रेहान की बीबी शकीरा खातून ने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को एक पत्र लिख कर मसौली फसाद की पीड़ा बयां की थी। न्याय की उम्मीद के साथ करीब छह वर्ष पुरानी घटना मगर ताजे जख्मों के अहसास के साथ सीबीआई जांच और पीडि़तों को वाजिब मुआवजे की गुहार भी लगाई थी। उक्त पत्र में शकीरा ने कांग्रेस के कद्ïदावर नेता व सांसद बेनी प्रसाद वर्मा और उनके पुत्र राकेश वर्मा पर यह आरोप लगाया है कि उन दोनों के उकसावे पर ही उक्त फसाद की मसौली में शुरुआत हुई थी जिसमें फसादियों ने उसके पति के साथ न केवल लूटपाट की बल्कि दरिंदगी के हद तक मारा पीटा भी। उसके बाद से वह जीवन-मौत से जूझ रहा था। शकीरा में वोटबैंक बनने की हैसियत नहीं थी, सो कोई उसके शौहर के इलाज में मदद के लिए आगे नहीं आया।
शकीरा का आरोप रहा कि इस घटना के बाद बेनी प्रसाद वर्मा और उनके बेटे के दबदबे के कारण जहां स्थानीय प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की वहीं पीडि़तों को कोई सहायता भी नहीं मिली जबकि इस घटना में सआदतगंज बैराज के नजदीक फसादियों ने बस से बाहर निकाल कर हाफिज अबुतल्लाह अंसारी की गोली मार कर हत्या कर दी थी। इस समुदाय के अन्य कई लोगों के साथ भी मारपीट और लूटपाट की गई थी।
शकीरा ने राहुल गांधी को लिखे अपने पत्र में आरोप लगाया है कि अफवाह के जरिए क्षेत्र के दबंग नेता बेनी प्रसाद वर्मा और उनके पुत्र राकेश वर्मा ने फसाद भड़काया और बसों को रोक-रोक कर मुस्लिमों के साथ मारपीट और लूटपाट की गई। यह सब एक साजिश के तहत किया गया। बेनी प्रसाद वर्मा के करीबी भाजपा की राज लक्ष्मी वर्मा को रामनगर विधान सभा क्षेत्र से राजनीतिक लाभ दिलाने के लिए फसाद कराए गए थे। शकीरा के अनुसार तब बेनी प्रसाद वर्मा के पुत्र राकेश वर्मा को निर्दलीय मुस्लिम प्रत्याशी महफूज किदवई से कड़ी टक्कर मिली थी। इसी की प्रतिक्रिया में सोची-समझी साजिश के तहत फसाद कराए गए थे। इसी साल 12 जनवरी को लिखे अपने पत्र में शकीरा ने राहुल गांधी से गुहार लगाई है कि आप उक्त घटना की सीबीआई जांच कराएं और पीडि़तों को न्याय दिलाएं। साथ ही उसके पति और परिवार की आर्थिक मदद भी की जाए। निष्पक्ष जांच के लिए बेनी प्रसाद वर्मा और उनके पुत्र राकेश वर्मा को कांग्रेस से निकाला जाए। मगर अफसोस, अब तक इस दिशा में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की गई। पिछड़े मुस्लिम समुदाय की शकीरा की आवाज चुनावी शोर में दब कर रह गई है।

Wednesday, February 15, 2012

...गर भाजपा सत्ता में आती दिखी तो कांग्रेस को समर्थन-मुलायम

समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने बुधवार को पहली बार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस से संभावित गठबंधन का स्पष्ट संकेत देते हुए कहा कि चुनाव के बाद अगर भाजपा सत्ता में आने की स्थिति में दिखी तो वह कांग्रेस को समर्थन देंगे।  वहीँ राहुल ने बुधवार को लखनऊ में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए समाजवादी पार्टी के वादों की लिस्ट फाड़ी। चुनावी मंच पर लिस्ट फाड़ते हुए राहुल का कहना था कि कोई भी पार्टी वादे पूरी नहीं करती तो घोषणा पत्र का क्या काम। हम घोषणा पत्र नहीं बनाते बल्कि वादे पूरा करने में यकीन रखते हैं। यूपी में जारी विधानसभा चुनाव के तीसरे चरण के मतदान के दौरान सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के इस बयानसे  सियासी माहौल गरमा गया।  हालांकि मुलायम अब इस बयान से पलट गए हैं। उन्होंने कहा है कि केंद्र के लिए उन्होंने सपोर्ट देने की बात कही थी।
भाजपा ने मुलायम के इस बयान पर कांग्रेस और सपा दोनों पर निशाना साधा है वहीं कांग्रेस ने सफाई दी है। मुलायम ने हमीरपुर में चुनावी रैली के दौरान पत्रकारों से बातचीत में कहा, 'चुनाव बाद यदि किसी सूरत में भाजपा और कांग्रेस में चुनाव करना पड़े तो सांप्रदायिक तत्‍वों को सत्ता से बाहर रखने के लिए उनकी पार्टी कांग्रेस का समर्थन कर सकती है।' सपा मुखिया के इस चौंकाने वाले बयान पर कांग्रेस नेता रेणुका चौधरी ने कहा कि गठबंधन के बारे में अभी कुछ भी कहना जल्‍दबाजी होगी। गौरतलब है कि इससे पहले कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी के अलावा राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह समेत तमाम कांग्रेसी नेताओं ने साफ किया है कि उनकी पार्टी का यूपी में सरकार बनाने के लिए न तो किसी पार्टी से पहले से गठबंधन है और न ही भविष्‍य में होगा। वहीँ  भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने मुलायम सिंह के बयान पर कहा कि यूपी की जनता जानती है कि कांग्रेस और सपा एक-दूसरे के बहुत नजदीकी हैं। उन्‍होंने कहा, 'दोनों पार्टियां नाटक कर रही हैं। इनका चुनाव से पहले ही अंदरूनी गठबंधन हो गया है।' 
 राहुल द्वारा फाड़े गए वादों की लिस्ट में सपा के अलावा कई अन्य पार्टियों के वादों की लिस्ट भी शामिल थी।  राहुल गांधी के इस कारनामे का सभी दलों ने विरोध दर्ज कराया। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए कहा कि राहुल पहले शिष्टाचार सीख लें, राहुल चुनावी सभाओं में सिर्फ ढोंग कर रहे हैं। इसके पहले यादव ने हमीरपुर जिले की हमीरपुर सदर तथा राठ सीट से सपा प्रत्याशियों के समर्थन में आयोजित जनसभाओं में कहा कि प्रदेश में सपा की लहर चल रही है और वह चुनाव के बाद राज्य में अपने बलबूते पर सरकार बनाएगी। उन्होंने कहा कि चुनाव के बाद अगर भाजपा सत्ता में आने की स्थिति में दिखी तो वह कांग्रेस को समर्थन देंगे। कई चुनाव सर्वेक्षणों में उभरी सियासी सूरत के मद्देनजर चुनाव के बाद सपा और कांग्रेस के गठबंधन की संभावना संबंधी अटकलों के बीच यादव का यह बयान काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। यादव ने कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि अब ज्यादा समय नहीं बचा है। मतदाता तैयार हैं, वे बस उन्हें घर से निकालकर मतदान केंद्र तक ले जाने का काम करें और जनसंपर्क बढ़ाकर ज्यादा से ज्यादा लोगों को सपा की नीतियों से अवगत कराएं। उन्होंने दोहराया कि चुनाव के बाद प्रदेश में सपा की सरकार बनने पर गुंडागर्दी खत्म हो जाएगी और हर माफिया को जेल भेजा जाएगा।

मतदान का यह उत्सव प्रयोजन से परे नहीं

  • राकेश प्रवीर
मतदान का यह उत्सव प्रयोजन से परे नहीं है। मानो मतदाताओं ने तंत्र को ठीक करने की ठान ली हो। उत्तर प्रदेश में तीन चरणों के मतदान संपन हो चुके है। पहले चरण में जहां बारिश और मौसम की खराबी के बावजूद 62 से 64 प्रतिशत वोट पड़े वहीं दूसरे चरण में 59 से 60 फीसदी मतदान हुआ। तीसरे चरण में भी रिकार्ड मतदान उन जिलों में हुए जहां का पिछला रिकार्ड मायूसी भरा था। सोनभद्र और अन्य सीमाई जिलों के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भी वोटरों में खासा उत्साह देखा गया तो बुद्घिजीवियों के गढ़ इलाहाबाद भी अपने पिछले मतदान प्रतिशत से काफी आगे निकल गया। खास बात यह रही है की जिन जिलों में मतदान हुए है वहां पिछले विधानसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत का अर्धशतक भी नहीं लग सका था। इस लिहाज से मतदान के इन आंकड़ों को अगर करिश्माई या जादूई कहें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ये बढ़ता मतदान किस ओर जा रहा है किसी को कोई खबर नहीं है। राजनीति के पंडितों की भविष्यवाणियां एक तरह से आकलनों के भंवर में उतरा रही है।
आमतौर पर मतदान के बढ़े प्रतिशत को बदलाव से जोड़ कर विश्लेषित किया जाता रहा है। उत्तर प्रदेश में भी बदलाव की बयार बहने की बात कही जा रही है। बदलाव की यह चाहत सत्ताजनित आक्रोश व प्रदेश के पिछड़ेपन की कोख से फूटी है। वोटों के पुराने समीकरण ध्वस्त होते हुए से दिख रहे हैं। नए समीकरण गढ़े गए हैं। कथित नायाब सोशल इंजीनियरिंग भी कहीं गुम है। कुल मिला कर हर कोई इस बार मतदान में एक इनरकरंट के अहसास से अह्ïलादित है। हवा का रूख सबको अपने पक्ष में लग रहा है।
मुद्ïदों पर गौर किया जाए तो प्रदेश स्तर पर ऐसा कुछ भी नहीं रहा है जिसके आधार पर यह मान लिया जाए कि अमूक मुद्ïदा की वजह से ही मतों का ध्रुवीकरण हुआ है, या हो रहा है। एक तरह से भ्रष्टïाचार को मुद्ïदे के तौर पर उछाला जरूर गया है, मगर भ्रष्टïाचार के तलाब के ठहरे हुए पानी में एक छोटे दायरे की उर्मियां ही बन पाई है। वजह साफ है, भ्रष्टïाचार को लेकर शोर मचाने वाले दलों के दामन भी पाकसाफ नहीं है। अन्य मुद्ïदों के मुहरे भी लुटे-पीटे से दिख रहे हैं। हां, जातीय गोलबंदी की चर्चा जरूर सतह पर है। कहा जा रहा है कि पेशेवर अपराधी भी जाति की गोद में बैठ कर चुनावी जीत की उड़ान भरने की जुगत में है। ऐसे लोगों को जाति का साथ मिल भी रहा है। पूर्वांचल में नारा भी दिया गया है-घर से घाट तक का साथ। यानी जीवन से मरण तक साथ निभाने का वायदा। एक अंदाज में धमकी भी।
इन सबके बावजूद मतदान प्रतिशत बढऩे के कई उत्प्रेरक कारक रहे हैं। इसके लिए चुनाव आयोग की वाह-वाही करने के साथ ही संचार माध्यमों और मीडिया की पीठ भी थपथपा दी जाए तो काई हर्ज नहीं। स्वयंसेवी संगठनों की पहलकदमी के साथ ही अन्ना के आन्दोलन से पनपी जागरूकता को एक भी कारक माना जा सकता है। विश्लेषकों की माने तो चुनावी लोकतंत्र पर से जनहताशा के बादल छटे हैं। यह लोकतंत्र के लिए शुभ है। संभव है कि दूर बैठ कर तंत्र को कोसने वालों ने इस बार तंत्र को ठीक करने की ही ठान ली हो।

Tuesday, February 14, 2012

क्या भूलूँ क्या याद करू

 
मोतिहारी यानि पूर्वी चंपारण जिले के सवधन्यमान वरीय पत्रकार श्री इश्वरी प्रसाद साहू जी का निधन हो गया... और इसके साथ ही उस क्षेत्र में पत्रकारिता का एक युग समाप्त हो गया.श्री इश्वरी साहू जी अपने ४० वर्षो की  पत्रकारिता एवं सामाजिक जीवन में एक मिल के पत्थर थे.उनकी बेलग-बेलौस  पत्रकारिता, एक निर्भीक, स्वक्छ, साफ- सुथरी छवि ...बस अब यादों में सीमट गई है. वे मात्र एक व्यक्ति नहीं संस्था थे.आज से करीब पच्चीस वर्ष पहले मैंने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत उनके सान्निध्य में ही की  थी. सही मायने में वे मेरे पाथेय   और अभिभावक थे.  जीवन के कई कठिन दौर में उनका स्नेह मेरे साथ रहा.अचानक उनके चले जाने की सुचना मोतिहारी के ही एक पत्रकार भाई इम्तेयाज़ अहमद के एक पोस्ट से मिला जिसे उन्होंने फेसबुक पर किया था. थोड़ी देर के  लिए सन्न रह गया. सारी  चेतनाएं शांत हो गई, आँखें भर आई और यादों में खो गया. उनके निधन से ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मैंने अपने एक ऐसे गार्जियन, मित्र को खो दिया जिस की भरपाई शायद कभी  नहीं हो  पायेगी.साहू जी की उम्र  ८२ वर्ष थी, मगर वे जीवन पर्यंत जवान रहे..पत्रकारिता में आने वाले हर युवा को उनसे स्नेह और सहयोग मिला. शहर के सामाजिक कार्यों में भी भी हमेशा उनकी सक्रियता रहती थी. सबसे स्नेहिल व्यव्हार उनकी खासियत  थी.समझ  में नहीं आ  रहा है की क्या-क्या याद करूँ ...जीवन की कुछ वायदे कभी पूरे  नहीं होते और व्यक्ति एक तरह से नियति की डोर से बंधा होता है...आज मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है...अपने श्रधेय अभिभावक सामान और पत्रकारिता के पाथेय श्री ईश्वरी बाबू से कभी वायदा किया था कि उनके अंतिम समय में उनके पास रहूँगा...चाकरी कि विवशता ने मुझे लखनऊ में ला छोड़ा है...और आज जब फेसबुक खोला तो अचानक मोतिहारी के ही एक पत्रकार मित्र भाई इम्तेयाज़ अहमद कि एक पोस्ट पर नजर पड़ी और मै सन्न रह गया...ईश्वरी बाबू अब नहीं रहे, सहसा विश्वास नहीं हुआ.हम सबके जीवन कि यंही नियति है...मेरी विनम्र श्रधांजलि... ईश्वर   उनकी आत्मा को चीर शांति दे और हम सबको इस दुःख को सहने कि शक्ति दे...

Monday, February 13, 2012

विदेशी बैंकों में भारतीयों का 25 लाख करोड

केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने कहा  है कि विदेशी बैंकों में सर्वाधिक काला धन भारतीयों का जमा है और यह धनराशि करीब 500 अरब डालर यानि लगभग 25 लाख करोड रूपये के बराबर है। सीबीआई के निदेशक अमर प्रताप सिंह  ने भ्रष्टाचार निरोधक एवं संपत्ति की जब्ती के बारे में इंटरपोल के एक वैश्विक कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए यह खुलासा किया। उन्होंने कहा कि इन काले धनों की वापसी की कानूनी प्रक्रिया जटिल है इसलिए इंटरपोल के सदस्य देशों से मदद की अपेक्षा है।  विदेशी बैंकों में जमा कालेधन के बारे में पहली बार औपचारिक जानकारी देते हुए श्री सिंह ने कहा कि स्विटजरलैण्ड. लीच्टेंस्टीन,. ब्रिटिश वॢजन आइलैण्ड,. मारिशस तथा कुछ अन्य देशों में भारी मात्रा में अवैध धन जमा है। स्विट्जरलैण्ड में जमा काले धन में सबसे ज्यादा धन भारतीयों का है। हाल ही में हुए टू जी स्पैक्ट्रम घोटाले. 2010 के राष्ट्रकुल खेल घोटाले जैसे हाई प्रोफाइल घोटालों की जांच के दौरान सीबीआई को पता चला है कि बडी मात्रा में धनराशि दुबई, सिंगापूर  और मारिशस ले जायी गई और वहां से स्विट्जरलैंड एवं अन्य ऐसे ही ..टैक्स हेवन.. देशों में  भेजी गई. उन्होंने कहा कि इस तरह के घन की वापसी में कई तरह की समस्याएं आती हैं क्यों कि जिन देशों में यह घन जमा है वहां की सरकारों में सहयोगत्मक इच्छा शक्ति का अभाव रहा है।  उन्होंने कहा कि ऐसे धन की वापसी में दूसरी समस्या सम्बंधित  देशों की जटिल कानूनी प्रक्रिया भी है इसलिए इसके लिए विशेषज्ञ की आवश्यकता है. उन्होंने यह भी कहा कि दो से अधिक देशों के बीच मामला फंसने पर यह प्रक्रिया और जटिल हो जाती है।

साहब सलमान इतने नादान नहीं है मुसलमान

राकेश प्रवीर
बटला हाउस मुठभेड़ कांड पर आजमगढ़ में दिए गए केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के बयान से कांग्रेस अभी उबरी भी नहीं थी कि मुस्लिम आरक्षण को लेकर की जार रही उनकी बयानबाजी ने एक नई मुसीबत खड़ी कर दी है। चुनाव आयोग के सख्त रवैये और इस बाबत राष्टï्रपति को पत्र लिख कर निर्णायक कार्रवाई की मांग के बाद तो केन्द्र सरकार की मुश्किलें भी बढ़ गई। यह दीगर है कि सलमान खुर्शीद ने इस बाबत प्रधान मंत्री डा. मनमोहन सिंह से टेलीफोन पर बातें की है, मगर इस पूरे प्रकरण में जहां आरएसएस को कांग्रेस पर हमला करने का मौका मिला है वहीं भाजपा सहित अन्य विपक्षी दल भी कांग्रेस को घेरने में जुट गए हैं। इससे कांग्रेस के साथ ही केन्द्र सरकार की मुश्किल भी गहराती जा रही है।
विपक्ष के साथ-साथ कांग्रेस के सहयोगी भी इससे खफा हैं। इस मुद्ïदे पर चारों तरफ से घिरी कांग्रेस पर अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस ने भी हमला बोल दिया है। खुर्शीद की टिप्पणी पर चुटकी लेते हुए आरएसएस ने कहा है कि जिहादी आतंकवादियों के लिए सोनिया गांधी के आंसू अब मुसलमानों को पिघला नहीं पाएंगे। गौरतलब है कि आजमगढ़ की एक सभा में सलमान खुर्शीद ने कहा था कि बटला हाउस मुठभेड़ की तस्वीरें देख कर सोनिया गांधी की आंखों में आंसू आ गए थे। आरएसएस मुखपत्र पांचजन्य के संपादकीय में कहा गया है कि कानून मंत्री ने आजमगढ़ की एक सभा में सोनिया गांधी के आंसुओं का सहारा लेते हुए कहा है कि बटला हाउस कांड की तस्वीरें देखकर सोनिया रो पड़ी थीं। यानी मुठभेड़ में मारे गए मुस्लिम युवकों के लिए सोनिया गांधी की संवेदनाएं फूट पड़ीं। कांग्रेस चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं से सोनिया गांधी के आंसुओं की कीमत वोट के रूप में वसूलना चाहती है। कांग्रेस जानती है कि उत्तर प्रदेश में उसका मज़हबी आरक्षण का पत्ता पिट गया है। ऐसे में पार्टी नेता बेचैन हैं कि मुसलमानों को बरगलाने के लिए और क्या तरीके अपनाए जाएं। खुर्शीद का बयान उसी रणनीति का एक हिस्सा है। आरएसएस ने कहा है कि यूपी के मुसलमान इतने नादान नहीं हैं कि वे इनकी चालबाजियों को नहीं समझें। ये आंसू शायद ही उन्हें पिघला पाएं।
कांग्रेस की मुस्लिम परस्त राजनीति की आलोचना करते हुए संघ ने कहा है कि वोट और सत्ता के लिए कोई पार्टी इतनी गिर सकती है कि एक ओर तो वह मुस्लिम संवेदनाओं को खंरोचने में लगी है, जबकि दूसरी ओर देश के लिए गंभीर खतरा बन गए जिहादी आतंकवाद की सचाई से मुंह फेर रही है। आतंकवादियों द्वारा की जा रही हत्याओं का शिकार हुए हजारों निर्दोष नागरिकों और इससे निपटने में अपनी जान की बाजी लगा रहे देशभक्त जाबांज जवानों के लिए उसकी आंखे कभी नम नहीं होतीं। सोनिया के साथ ही प्रधानमंत्री को भी आड़े हाथ लेते हुए पांचजन्य में कहा गया है कि ऑस्ट्रेलिया में गिरफ्तार डॉ. हनीफ की चिंता में प्रधानमंत्री को रात भर नींद नहीं आती, लेकिन जिहादी आतंकदियों से लड़ते समय शहीद हुए दिल्ली पुलिस के सीनियर अधिकारी मोहन चंद्र शर्मा के लिए संवेदना का एक शब्द भी न तो प्रधानमंत्री के पास है और न सोनिया गांधी और उनके दिग्विजय सिंह तथा सलमान खुर्शीद जैसे सिपहसालारों के पास। वहीं दूसरी ओर अब भाजपा भी खुर्शीद के बयान को चुनाव आयोग के निर्देशों की अवहेलना और अवमानना से जोड़कर हमलावर हो गयी है। रविवार को उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार में आए भाजपा के वरिष्ठï नेता व पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने खुर्शीद मसले पर केन्द्र की कांग्रेस सरकार को जमकर कोसा। आडवाणी ने साफ शब्दों में कहा कि इसके पहले कभी इस तरह से चुनाव आयोग का माखौल नहीं उड़ाया गया था। उन्हें कहा कि प्रधानमंत्री को इस मुद्ïदे पर जवाब देना चाहिए और ऐसे मंत्री को अविलम्ब बर्खास्त करना चाहिए जो खुले तौर पर संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की अवहेलना और अवमानना कर रहा है। लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी सलामान खुर्शीद के बार-बार के बयानोंं को आपत्तिजनक ठहराते हुए मांग की कि प्रधानमंत्री को उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। भारतीय भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने केंद्रीय कानून एवं अल्पसंख्यक मंत्री सलमान खुर्शीद के बयान और उनके खिलाफ निर्वाचन आयोग की ओर से राष्ट्रपति को भेजे पत्र प्रकरण पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी एवं प्रधानमंत्री मनमोहन ङ्क्षसह की चुप्पी पर हैरानी जताते हुए सोमवार को कहा कि यह विषय गंभीर है और इससे संवैधानिक संकट पैदा हो सकता है। श्री प्रसाद ने कहा कि संवैधानिक संस्थाओं का मखौल उड़ाने में कांग्रेस के मंत्री माहिर हैं। उन्होंने कहा कि किसी वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री के खिलाफ पहली बार चुनाव आयोग ने इतनी तीखी टिप्पणी की है। देश की जनता खुर्शीद प्रकरण पर ईमानदार एवं प्रभावी कदम की आशा कर रही है। 2009 के संसद के चुनाव के पहले कांग्रेस सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग बनाने की घोषणा की थी लेकिन चुनाव आयोग ने रोक लगा दी थी।  विधानसभा चुनावों की घोषणा के पूर्व मुसलमानों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर कांग्रेस ने मुसलमान मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की भरपूर कोशिश की लेकिन इस पर भी न्यायालय ने रोक लगा दी। श्री प्रसाद ने कहा कि लगता है कि देश की पूरी सियासत मुसलमानों के लिए हो गयी है। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश की सियासत में क्या हो रहा है समझ से परे है। तुष्टीकरण के नाम पर वोटों के लिए असंवैधानिक काम किया जा रहा है जो सरासर गलत है।

Saturday, February 11, 2012

युवा उत्साह में दिखे बदलाव के संकेत



  • राकेश प्रवीर
 पहले चरण की तरह दूसरे चरण का मतदान प्रतिशत भी उत्साह जगाने वाला रहा। करीब 60 फीसदी मतदान साल 2007 से 17 प्रतिशत अधिक रहा। गुनगुनी धूप में चेहरे पर चमक लिए उमड़ी युवाओं की भीड़ ने यह साफ कर दिया कि उनकी यह पहल बदलाव के लिए है। एक ऐसा बदलाव, जो महज व्यक्ति तक नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन में भी सहायक हो। ये वे युवा थे, जिन्होंने पहली बार अपने मत का प्रयोग किया है। चाहत और उम्मीदें उनकी आंखों में साफ झलक रही थीं। निश्चित तौर पर न तो ये परंपरागत वोटर हैं और न ही व्यवस्था से हताश-निराश। बल्कि आत्मविश्वास और चाहत से लबरेज आकांक्षाओं के साथ यह उनकी सकारात्मक पहल थी। एक ऐसी पहल, जिसका आह्ïवान युवा राजनीति के प्रतीक अखिलेश यादव और राहुल-प्रियंका ने इनसे किए थे। युवा आईकॉन बने इन नेताओं ने लक्षित भी तो इन्हें ही किया था। इस चरण के करीब 1.94 करोड़ मतदाताओं में शामिल लगभग 47 लाख युवा मतदाता सूबे की तस्वीर बदलने में निर्णायक हो सकते हैं। इन्हीं उम्मीदों के साथ राजनीति के युवा नेतृत्व ने इन्हें टारगेट भी किया था। आमतौर पर यह माना जा रहा है कि ये युवा मतदाता इस चरण की करीब 40 सीटों के परिणाम को प्रभावित करेंगे।
पिछले करीब पांच महीने से अपनी क्रांतिरथ यात्राओं से युवाओं को झकझोर रहे सपा के राज्य अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के साथ ही युवाओं के इस उत्साह के लिए चुनाव आयोग को भी श्रेय देना चाहिए। जगह-जगह लगे चुनाव आयोग के होर्डिंग्स और बैनर इन युवाओं को ही मतदान के लिए उद्वïेलित कर रहे थे...सेना के जवानों को प्रतीक बनाकर युवाओं से ही तो कहा जा रहा था कि देश की खातिर ये अपनी जान देते हैं...आप मतदान भी नहीं करेंगे...। इसके साथ ही आयोग का यह भी आह्ïवान था कि पहले मतदान, फिर जलपान...। नतीजा रहा कि मतदान शुरू होने के दो घंटे के अंदर ही मतदान का औसत प्रतिशत करीब 20 पर पहुंच गया। व्यवस्थागत खामियों की हल्की झलकियों के बावजूद युवा उत्साह ने अपना रंग दिखाया और शाम होते-होते मतदान प्रतिशत को 60 के मुकाम पर पहुंचा दिया।
दूसरे चरण का मतदान पूर्वांचल के उन क्षेत्रों में था, जो आमतौर पर मठ, मनी और मसल पॉवर के लिए जाने जाते हैं। पूर्वांचल के गोरखपुर, महाराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, आजमगढ़, मऊ, बलिया, गाजीपुर और संतकबीर नगर में शनिवार को 59 सीटों के लिए मतदान हुए। सभी सीटों पर दोपहर 4 बजे तक करीब 53 फीसदी मतदान हो चुका थे। देवरिया में एक बजे तक सबसे अधिक 40 प्रतिशत मतदान हुआ था। इससे पहले सुबह 11 बजे तक 19 फीसदी और 9 बजे तक केवल 7.40 फीसदी मतदान हुआ था। मतदान का बढ़ा यह प्रतिशत राजनीति के युवा नेतृत्व में विश्वास भी भर रहा है। अखिलेश हों या राहुल, दोनों का आह्ïवान व्यवस्था परिवर्तन का ही है। निश्चिततौर पर युवाओं को यह आह्ïवान भाया है।

Wednesday, February 8, 2012

खलनायक बनी बारिश ने बढ़ाया मतदाताओं का गुस्सा

  • राकेश प्रवीर---
यूपी विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के दौरान सुबह जहां मतदाता मौसम का मिजाज देख डरे-दुबके रहे, वहीं दोपहर में धूप खिलने के साथ पानी और कीचड़ की परवाह किए बिना लोग घरों से निकले। रात और सुबह की बारिश ने एक तरह से जब उन्हें जमीनी हकीकत का अहसास कराया तो पहले खीझ फिर गुस्से का इजहार भी दिखा। कीचड़ सने पांव के साथ मतदान केंद्र पर जाने वाले मतदाताओं ने व्यवस्था को कोसा और अमूमन उसके खिलाफ मतदान किया। कई जिलों से मिली जानकारी के अनुसार मतदाताओं का गुस्सा इस बात को लेकर भी रहा कि अगर उनके गांव-गलियों और सड़कों पर ध्यान दिया गया होता तो कीचड़ में लथपथ होकर उन्हें नंगे पांव बूथ तक नहीं आना पड़ता। सुबह तक खलनायक बनी बारिश दोपहर में उकसाऊ बन गई। एक तरह से पूर्वांचल और अवध क्षेत्र के इन जिलों में यह अविकास और उपेक्षाजनित गुस्सा भी था।
देर रात और सुबह हुई झमाझम बेमौसम की बारिश ने गांव की गलियों-पगडंडियों और कच्ची सड़कों को पानी से भर दिया। मतदान को लेकर तमाम तरह की आशंकाएं भी तैरने लगीं। शायद 62 फीसदी मतदान के लिए बारिश को वजह भी मानी जाए। संभव था कि मौसम साफ रहता तो यह प्रतिशत कहीं और ज्यादा होता। बदलाव को तैयार मतदाताओं का यह जज्बा ही रहा कि पानी और कीचड़ के बावजूद वे घरों से निकले। कई क्षेत्रों में महिलाएं और युवकों में मतदान को लेकर उत्साह देखा गया।
मतदान का प्रतिशत भले पंजाब और उत्तराखंड की तरह 70 तक नहीं पहुंच सका, मगर मतदाताओं का खीझ मिश्रित उत्साह आयोग की कोशिशों पर खरा दिखा। बीते दिनों पंजाब और पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में मतदाताओं का उत्साह परवान पर रहा। पंजाब में जहां 77 फीसद तो उत्तराखंड के कई हिस्सों में मौसम की प्रतिकूलताओं के बावजूद 70 प्रतिशत मतदान हुआ था। उम्मीद की जा रही थी कि इस बार उत्तर प्रदेश में भी मत प्रतिशत बढ़ेगा। वैसे प्रदेश के पिछले रिकार्ड को देखते हुए 62 प्रतिशत मतदान को कम नहीं कहा जा सकता है। इस बार मतदाताओं में जागरूकता बढ़ी है। 10 जिलों के 1.71 करोड़ वोटरों ने 862 उम्म्मीदवारों की किस्मत ईवीएम में लॉक कर दी। 6 मार्च को चुनाव परिणाम आ जाएंगे। मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी के मुताबिक पहले चरण में करीब 62फीसदी मतदान हुआ है। बारिश थमने के बाद धूप खिलने से लोग मतदान के लिए घरों से निकले। शाम तक मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की लंबी कतारें देखी गईं।
दिन चढऩे के साथ मतदान का प्रतिशत भी बढऩे लगा। बीती रात और बुधवार की सुबह से हो रही बारिश के कारण कम लोग मतदान के लिए निकले, लेकिन बाद में मतदान केंद्रों पर लोगों की कतार बढऩे लगी। सुबह नौ बजे तक जहां 5.17 फीसदी मतदान हुआ था, वहीं 11 बजे मतदान 13.38 फीसदी पर पहुंच गया। राज्य निर्वाचन आयोग के अधिकारियों के मुताबिक तीन बजे मतदान का प्रतिशत बढ़कर 42 फीसदी हो गया। शाम पांच बजे तक करीब 62 फीसदी मतदान हुआ।



Thursday, February 2, 2012

चुनाव में जनभावनाओं को भड़काने का खेल

चुनाव के दौरान जनभावनाओं को भड़का कर वोट हासिल करने का खेल खतरनाक दौर में पहुंच चुका है। यह नहीं कहा जा सकता है कि इस खेल में कोई एक या खास दल ही शामिल है। सभी राजनीतिक पार्टियों को मौके की तलाश रहती है। हां, यह दीगर है कि कभी जातीय उन्माद को हवा देकर राजनीति करने वाली बसपा इस खेल में आज सबसे आगे है। कभी जातिबोधक नारों से विद्वेष फैलाने वाली बसपा अब दलित स्वाभिमान की बात करते नहीं थकती है। बसपा की दलीलें भी इस मुतल्लिक काबिलेगौर है। बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी की बेशुमार मूर्तियों और पार्टी प्रमुख मायावती की प्रतिमाओं के निर्माण के पीछे भी बसपा का कुछ ऐसा ही तर्क है। पार्कों और फव्वारों को लेकर भी यही कहा जाता है कि इससे दलित स्वाभिमान और गौरव को बढ़ावा मिलता है। मायावती की मूर्तियों के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाने की ललक को इसी स्वाभिमान से जोड़ कर देखने की बात कही जाती है। गरीबी और पिछड़ेपन के दंश से अब तक नहीं उबरने वाले समाज के इस हिस्से को दरअसल भावनात्मक रूप से छलने के लिए ही इस तरह के प्रपंच रचे जाते हैं।
 पिछले दिनों चुनाव आयोग ने सरकारी खर्च से सार्वजनिक स्थलों पर लगाई गई हाथियों और मायावती की मूर्तियों को राज्य में विधानसभा चुनाव संपन्न होने तक ढके जाने का निर्देश दिया। चुनाव आयोग के इस फैसले में भी बहुजन समाज पार्टी के नेताओं ने अपना हित तलाशने की कोशिश की और आयोग के इस फैसले को सीधे तौर पर दलितों के स्वाभिमान पर हमला बताने की कोशिश की। सोचने वाली बात है कि उत्तर प्रदेश में अरबों रुपये खर्च कर इस प्रकार के स्मारक बनाने से आखिर दलित समुदाय के विकास या उनके स्वाभिमान का क्या लेना-देना हो सकता है। मतदाताओं विशेषकर दलितों का इन बुतों से कोई वास्ता हो या न हो मगर मूर्तियां ढके जाने के इस प्रकरण को लेकर मु_ीभर बसपा नेताओं को तो राजनीति करने का मौका मिल ही जाता है। दरअसल ऐसे प्रसंग उन्हें दलित भावनाओं से खिलवाड़ करने, उन्हें उकसाने व भडक़ाने का मौका देता है। सोच यह भी रहती है  भावनावश ऐसी गोलबंदी हो कि एक बार फिर सरकार को सत्ता में वापस लाने का मौका मिल जाए।
इसी प्रकार पिछले दिनों बसपा नेता सतीश मिश्र ने एक चुनावी सभा के दौरान राहुल गांधी के उस प्रश्न पर आक्रमण किया कि राहुल अक्सर उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार से यह पूछते रहते हैं कि केंद्र सरकार ने अमुक योजनाओं के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को इतने पैसे भेजे वह पैसे कहां गए? क्या हुए? राहुल के इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर देने के बजाए मायावती के मुख्य सलाहकार सतीश चन्द्र मिश्र ने राहुल पर जवाबी हमला करते हुए उनसे पूछा कि वे यह बताएं कि वह पैसा क्या इटली या जापान से आता है। आखिरकार वह पैसा भी तो हमारा ही पैसा है। मिश्र के इटली शब्द के प्रयोग का आशय आखिर क्या था? भारतीय राजस्व तथा वित्तीय व्यवस्था में धन का आवंटन भारतीय संविधान में दर्ज व्यवस्थाओं के अनुरूप ही किया गया है। निश्चित रूप से प्रत्येक राज्य, केंद्र सरकार को अपने-अपने हिस्से का धन देते हैं तथा आवश्यकता पडने पर वही धन जनता को राज्य के माध्यम से विकास कार्यों के लिए विभिन्न योजनाओं के लिए वापस किया जाता है। ऐसे में इटली या जापान से पैसे आने की बात कहना समझ में नहीं आता। श्री मिश्र से भी यह पूछा जा सकता है कि क्या केंद्र सरकार को या उनके किसी प्रतिनिधि अथवा सांसद को राज्य सरकार से यह पूछने का अधिकार भी नहीं है कि अमुक योजना के लिए भेजा गया धन उस योजना विशेष में लगने के बजाए कहां समा गया, क्या हाथी और मायावती की मूर्तियां स्थापित करने अथवा दलित स्मारकों के निर्माण के लिए ही प्रदेश या देश की जनता अपने खून-पसीने की कमाई टैक्स के रूप में देती है।
वैसे जनभावनाएं भडक़ाने का काम केवल बसपा ही नहीं कर रही, बल्कि सभी राजनीतिक दल इसी माध्यम को मतदाताओं से वोट ठगने का सबसे सुगम रास्ता समझने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी जिसने कि रामजन्म भूमि मुद्ïदे के नाम पर दो दशकों तक पूरे देश में नफरत और वैमनस्य का वातावरण बनाया तथा अपने आपको इसी मंदिर मुद्ïदे के द्वारा देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित किया, यहां तक कि केंद्र में राम मंदिर के नाम पर ही 6 वर्षों तक सत्ता का सुख भी भोगा एक बार फिर अब वह रामराज की चर्चा कर प्रदेश में भ्रष्टïाचारमुक्त सुशासन की बात कर रही है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश चुनावों में पार्टी ने प्रवक्ता के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को इस गरज से आगे कर दिया है शायद प्रदेश के अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने जैसा असंभव सा लगने वाला काम संभव हो सके। वैसे अपनी नीतियों,सिद्घांतों और आदर्शों की चर्चा करते नहीं थकने वाली भाजपा को जातीय वोट भी चाहिए। जातीय राजनीति को चमकाने के लिए ही भाजपा के रणनीतिकारों ने बाबू सिंह कुशवाहा जैसे दागी और बसपा से निकाले नेता तथा बादशाह सिंह जैसे हिस्ट्रीसिटर को गले लगा लिया। दूसरी ओर हिन्दुओं को आकर्षित करने की चाल से भी भाजपा बाज आने को तैयार नहीं है।
राज्य में हो रहे चुनावों के दौरान भाजपा ने पूरे राज्य में रैली, जनसभाएं आदि आयोजित करने का कार्यक्रम बनाया है वहीं आम लागों की धार्मिक भावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए पूरे राज्य में एक ही दिन व समय पर महाआरती जैसा गैर राजनीतिक आयोजन भी किए जाने का ऐलान किया गया है। मजे की बात तो यह है कि चुनावी बेला में महाआरती की यह घोषणा भी और किसी ने नहीं बल्कि नकवी ने ही की है।
कांग्रेस भी विकास की बात करते-करते अचाचन जातीय स्वाभिमान को जगाने का उपक्रम करने लगी है। देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद मुस्लिमों के आरक्षण प्रतिशत को बढ़ाने के बयान में जब घिरे तो उन्हें सच्चर कमिटी की अनुशंसाओं को लागू किए जाने की बात याद आ गयी। राहुल गांधी को भी अपनी जनसभाओं में यह बताने की जरूरत महसूस हुई कि सैम पित्रोदा की जाति बढ़ई है। जैसे कि इस खुलासे के बाद कोई बड़ा धमाका होगा और कांग्रेस की नैया पार हो जायेगी। छोटे दलों में शुमार पीस पार्टी को भी लगता है कि मुस्लिम दांव खेल कर वह मुसलमानों को अपने पक्ष में कर लेगी। पीस पार्टी मुस्लिम मुख्यमंत्री के जुमले को हवा देने में जुटी है। उसका तर्क है कि प्रदेश में अब तक एक भी मुसलमान मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाया है,जबकि यहां के मुसलमान ही सत्ता का खेल बनाते-बिगाड़ते रहे हैं। दरअसल यह मतदाताओं की भावनाओं के दोहन का खेल है।

Wednesday, February 1, 2012

राजनीतिक झांसे और मतदाताओं के विवेक की जंग

चुनाव मैदान में उतरे प्रत्याशियों के बीच हार-जीत की जंग के साथ ही इस बार राजनीतिक झांसे और मतदाताओं के विवेक के बीच भी जंग हो रही है। चुनाव के मौके पर कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियां घोषणा पत्र जारी कर मतदाताओं से एकमुश्त वायदे करती है। इन घोषणा पत्रों में किए गए वायदे कितने पूरे होते हैं? यह सबको पता है। दरअसल यह एक छलावा मात्र ही होता है। इस बात को मतदात भी अच्छी तरह से जानते-समझते है। सही मायने में कहे तो अब यह मात्र परम्परा का निर्वाह भर ही रह गया है। कभी राजनीतिक पार्टियां चुनाव से ठीक पहले अपना एजेंडा तय करती थी और उससे जनता को अवगत कराने के लिए घोषणा पत्र जारी करती थी। अगर सत्ता में आई तो भरसक कोशिश करती थी कि चुनावी वायदे को पूरा किया जाए। प्रतिपक्षी दल भी सदन और बाहर भी बार-बार सत्ताधारी दल को उसके वायदे को याद कराते रहते थे। जब गठबंधन सरकारों का दौर आया तो चुनावी वायदों को पूरा न कर पाने का ठिकरा सहयोगियों की खींचतान पर फोड़ा जाने लगा। बहाना यह भी होता रहा कि एकल बहुमत नहीं मिला इसलिए हम लाचार है।
इसकी खास वजह यही है कि राजनीतिक दल और नेता दोनों बखूबी समझ चुके हैं अब जनता में उनकी बातों की विश्वसनीयता नहीं रही। जनता भी यह मानती है कि नेता जो कह रहे हैं बाद में या तो उसे भूल जायेंगे या उससे मुकर जायेंगे। वैसे सत्ता में आने के बाद उन्हें अपने निजी स्वार्थ पूर्ति के कामों से इतनी फुर्सत भी नहीं मिल पाती कि वे अपने वायदों को पूरी तरह अथवा थोड़ा-बहुत निभा सकें। यही हाल मतदाताओं का भी है। आम मतदाता जनता है कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव घोषणा पत्र के नाम पर महज झूठे वादे-आश्वासन देते हैं। हर बार कुछ नए वायदे और आश्वासन।
सभी राजनतिक दलों का एजेंडा विकास, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा या स्वास्थय की फिक्र करना अथवा सडक., बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के साधन मुहैया कराना नहीं, बल्कि किसी तरह सत्ता पर कब्जा जमाना और भविष्य के लिए भी सत्ता पर अपने शिकंजे को ढीला न होने देना होता है। सत्ता की आड़ में अपने परिजनों,रिश्तेदारों को सत्ता सुख का अधिक से अधिक लाभ पहुंचाना भी एक मकसद होता है। यह सब करते-करते जब फिर से चुनाव का समय आए तो उस समय फिर किसी विकासात्मक मुद्ïदों की बात करने के बजाए केवल जनभावनाओं के सहारे अपनी चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करने की कवायद भी की जाती है।
जनभावनाओं से खिलवाड़ कर और उन्हें उकसाकर वोट ठगने का चलन वैसे तो पूरे देश में ही प्रचलित है। भारत जैसे विशाल देश में अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों के अलग-अलग तरह के मुद्ïदे हैं तथा नेताओं के पास उनकी भावनाओं को भड़काने के अलग-अलग फार्मूले भी हैं। राजनीतिक दलों को इस संबंध में सब कुछ पता है कि देश के किस राज्य, क्षेत्र, धर्म व समुदाय के लोगों से चुनावों के दौरान किस प्रकार की बातें करनी हैं ताकि मतदाता भावनात्मक रूप से उनके साथ जुड़ सकें।
उत्तर प्रदेश इस मामले में ऐसा राज्य है जहां अब तक लगभग हर चुनाव भावनाओं की बिसात पर संपन्न होते आए हैं। आमतौर पर धर्म, संप्रदाय, जाति, सवर्ण, दलित तथा अल्पसंख्यक को आधार बनाकर यहां चुनाव होते आ रहे हैं। कोई भी दल इन चुनावी फार्मूलों का अपनाने से परहेज नहीं करता। उत्तर प्रदेश की वर्तमान सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी ने भी अपने अस्तित्व में आने के बाद से लेकर अब तक केवल समुदाय विशेष के लोगों की भावनाओं को भडक़ाने का ही काम किया और इस फार्मूले पर चलते हुए उसे राजनीतिक सफलता भी मिली। वह आज भी जरूरत पडने पर बार-बार अपने इसी जनभावनाओं से खिलवाड़ करने वाले हथकंडों का प्रयोग करने से नहीं चूकती। शायद आगे भी नहीं चूकेगी।
पिछले दिनों चुनाव आयोग ने सरकारी खर्च से सार्वजनिक स्थलों पर लगाई गई हाथियों और मायावती की मूर्तियों को राज्य में विधानसभा चुनाव संपन्न होने तक ढके जाने का निर्देश दिया। चुनाव आयोग के इस फैसले में भी बहुजन समाज पार्टी के नेताओं ने अपना हित तलाशने की कोशिश की और आयोग के इस फैसले को सीधे तौर पर दलितों के स्वाभिमान पर हमला बताने की कोशिश की। सोचने वाली बात है कि उत्तर प्रदेश में अरबों रुपये खर्च कर इस प्रकार के स्मारक बनाने से आखिर दलित समुदाय के विकास या उनके स्वाभिमान का क्या लेना-देना हो सकता है। मतदाताओं विशेषकर दलितों का इन बुतों से कोई वास्ता हो या न हो मगर मूर्तियां ढके जाने के इस प्रकरण को लेकर मु_ीभर बसपा नेताओं को तो राजनीति करने का मौका मिल ही जाता है। दरअसल ऐसे प्रसंग उन्हें दलित भावनाओं से खिलवाड़ करने, उन्हें उकसाने व भडक़ाने का मौका देता है। सोच यह भी रहती है  भावनावश ऐसी गोलबंदी हो कि एक बार फिर सरकार को सत्ता में वापस लाने का मौका मिल जाए।
इसी प्रकार पिछले दिनों बसपा नेता सतीश मिश्र ने एक चुनावी सभा के दौरान राहुल गांधी के उस प्रश्न पर आक्रमण किया कि राहुल अक्सर उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार से यह पूछते रहते हैं कि केंद्र सरकार ने अमुक योजनाओं के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को इतने पैसे भेजे वह पैसे कहां गए? क्या हुए? राहुल के इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर देने के बजाए मायावती के मुख्य सलाहकार सतीश चन्द्र मिश्र ने राहुल पर जवाबी हमला करते हुए उनसे पूछा कि वे यह बताएं कि वह पैसा क्या इटली या जापान से आता है। आखिरकार वह पैसा भी तो हमारा ही पैसा है। मिश्र के इटली शब्द के प्रयोग का आशय आखिर क्या था? भारतीय राजस्व तथा वित्तीय व्यवस्था में धन का आवंटन भारतीय संविधान में दर्ज व्यवस्थाओं के अनुरूप ही किया गया है। निश्चित रूप से प्रत्येक राज्य, केंद्र सरकार को अपने-अपने हिस्से का धन देते हैं तथा आवश्यकता पडने पर वही धन जनता को राज्य के माध्यम से विकास कार्यों के लिए विभिन्न योजनाओं के लिए वापस किया जाता है। ऐसे में इटली या जापान से पैसे आने की बात कहना समझ में नहीं आता। श्री मिश्र से भी यह पूछा जा सकता है कि क्या केंद्र सरकार को या उनके किसी प्रतिनिधि अथवा सांसद को राज्य सरकार से यह पूछने का अधिकार भी नहीं है कि अमुक योजना के लिए भेजा गया धन उस योजना विशेष में लगने के बजाए कहां समा गया, क्या हाथी और मायावती की मूर्तियां स्थापित करने अथवा दलित स्मारकों के निर्माण के लिए ही प्रदेश या देश की जनता अपने खून-पसीने की कमाई टैक्स के रूप में देती है।
वैसे जनभावनाएं भडक़ाने का काम केवल बसपा ही नहीं कर रही, बल्कि सभी राजनीतिक दल इसी माध्यम को मतदाताओं से वोट ठगने का सबसे सुगम रास्ता समझने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी जिसने कि रामजन्म भूमि मुद्ïदे के नाम पर दो दशकों तक पूरे देश में नफरत और वैमनस्य का वातावरण बनाया तथा अपने आपको इसी मंदिर मुद्ïदे के द्वारा देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित किया, यहां तक कि केंद्र में राम मंदिर के नाम पर ही 6 वर्षों तक सत्ता का सुख भी भोगा एक बार फिर अब वह रामराज की चर्चा कर प्रदेश में भ्रष्टïाचारमुक्त सुशासन की बात कर रही है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश चुनावों में पार्टी ने प्रवक्ता के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को इस गरज से आगे कर दिया है शायद प्रदेश के अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने जैसा असंभव सा लगने वाला काम संभव हो सके। वैसे अपनी नीतियों,सिद्घांतों और आदर्शों की चर्चा करते नहीं थकने वाली भाजपा को जातीय वोट भी चाहिए। जातीय राजनीति को चमकाने के लिए ही भाजपा के रणनीतिकारों ने बाबू सिंह कुशवाहा जैसे दागी और बसपा से निकाले नेता तथा बादशाह सिंह जैसे हिस्ट्रीसिटर को गले लगा लिया। दूसरी ओर हिन्दुओं को आकर्षित करने की चाल से भी भाजपा बाज आने को तैयार नहीं है।
राज्य में हो रहे चुनावों के दौरान भाजपा ने पूरे राज्य में रैली, जनसभाएं आदि आयोजित करने का कार्यक्रम बनाया है वहीं आम लागों की धार्मिक भावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए पूरे राज्य में एक ही दिन व समय पर महाआरती जैसा गैर राजनीतिक आयोजन भी किए जाने का ऐलान किया गया है। मजे की बात तो यह है कि चुनावी बेला में महाआरती की यह घोषणा भी और किसी ने नहीं बल्कि नकवी ने ही की है।
प्रदेश में सक्रिय अन्य राजनीतिक दल भी राज्य के विकास या जन समस्याओं पर बहस करने के बजाए मतदाताओं की भावनाओं को भडक़ाने व उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं। विकास का राग अलापने वाली कांग्रेस और उसके युवराज राहुल गांधी को भी लगता है कि सैम पित्रोदा को बढ़ई बता देने मात्र से सूबे के तमाम पिछड़ी जातियां कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद हो जायेगी। एक ओर तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दिक्षित खुले तौर पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा करती है कि उन्हें गुजरात की जनता ने बार-बार इसलिए मौका दिया कि वे वहां विकास कार्य किए और यह भी कि अब जनता का ट्रेंड बदल चुका है जो विकास करेगा उसे ही जनता वोट देगी। दूसरी ओर जातीय और धार्मिक आधार पर मतों को प्रभावित करने के लिए कोशिशें भी निरन्तर पार्टी नेताओं की ओर से जारी है।
देखना होगा कि इस बार जनता विभिन्न राजनीतिक दलों के विभिन्न नेताओं द्वारा हर बार दिए जाने वाले झांसे का शिकार होती है और जातीय-धार्मिक भावनाओं  में बहकर मतदान करती है या अपनी क्षेत्रीय समस्याएं, प्रत्याशियों की छवि को दृष्टिïगत रखते हुए भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा बन कर स्वयं अच्छे या बुरे राजनीतिक दल की पहचान करने की कोशिश करती है। वाकई  मतदाताओं के  लिए भी यह परीक्षा का ही दौर है,क्योंकि सभी राजनीतिक पार्टियां चिकनी-चुपड़ी वायदों और झांसे के सहारे उनका मत हासिल करना चाह रही है।