Monday, November 28, 2011

यूपी भाजपा विश्वास के भंवर में


उत्तर प्रदेश में भाजपा विश्वास के सियासी भंवर में फंसी हुई है। आपसी अन्तरकलह, विश्वसनीय नेतृत्व का अभाव, मुद्ïदाहीनता आदि के साथ ही भाजपा को यहां अपनी पिछली गलतियों का खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। पिछली गलतियां ऐसी कि उसका भूत पीछा छोडऩे के लिए तैयार नहीं है। भाजपा का प्रदेश और केन्द्रीय नेतृत्व भले ही चीख-चीख कर यह कह रहे हैं कि इस बार वह किसी भी कीमत पर बसपा का साथ नहीं देंगे और न ही मायावती को मुख्यमंत्री बनाने में उनकी कोई भूमिका होगी। मगर आम मतदाता इससे मानने के लिए तैयार नहीं है। आगामी विधान सभा चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा इसी विश्वास के संकट से जूझना होगा। 
यूपी में भाजपा का  यह संकट कुछ वैसा ही है जैसा कि पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में कांग्रेस का रहा। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी के तूफानी बिहार दौरे और चुनाव प्रचार के बावजूद कांग्रेस दहाई अंक भी नहीं पा सकी। 243 सीटों पर अकेले चुनाव लडऩे वाली कांग्रेस को मात्र चार सीट से ही संतोष करना पड़ा था। दरअसल कांग्रेस की इस दुर्गति के पीछे भरोसे का ही संकट रहा। आम वोटरों को कांग्रेस यह विश्वास दिलाने में विफल रही कि चुनाव के बाद वह लालू प्रसाद यादव के राजद और रामविलास पासवान की लोजपा से गलबहियां नहीं करेगी। तब बिहार में जहां नीतीश के विकास की हवा बह रही थी वहीं लालू प्रसाद यादव के फिर सत्तासीन होने का डर भी लोगों को सता रहा था।
वैसे ठीक एक साल पहले हुए लोकसभा चुनाव 2009 मेंं ही कांग्रेस ने राजद-लोजपा का दामन छोड़ कर खुद के पैर पर खड़ा होने की दिखावटी कोशिश की थी। मगर विधान सभा चुनाव 2010 में कांग्रेस के लाख इनकार के बावजूद जनता यह मानने के लिए तैयार नहीं हुई कि चुनाव के बाद कांग्रेस पलटी नहीं मारेगी। इसके पीछे वजह रही कि साल 1991 से ही कांग्रेस किसी न किसी रूप में लालू-राबड़ी सरकार में सहभागी रही। 2000 मेंं बनी राबड़ी देवी की सरकार में तो कांग्रेस के 21 विधायक मंत्री पद पाकर सत्तासुख भोगते रहे।
तब आम लोगों की समझ में सत्ता समीकरण की ऐसी कोई कसौटी भी नहीं थी जिस पर कांग्रेस के वायदे को परखने का जोखिम उठाया जा सके। दूसरी ओर कांग्रेस का सत्ताभोगी चरित्र भी लोगों को यह भरोसा नहीं दे सका कि अगर वह सरकार बनाने के जादूई आंकड़े को नहीं हासिल कर पाती है तो जिम्मेवार विपक्ष की भूमिका निभायेगी।
ठीक ऐसी ही कुछ स्थिति यूपी भाजपा की भी है। भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी हो या फिर प्रदेश भाजपा के कद्ïदावर नेता राजनाथ सिंह, सभी ने यह भरोसा जरूर दिया है कि इस बार भाजपा पिछली गलतियों को दोहरायेगी नहीं और अगर सरकार नहीं बना पाई तो खुशी-खुशी विपक्ष की भूमिका निबाहेगी। मगर जनता भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है। वाजिब वजह भी है। राजनीति में कोई संन्यासियों नहीं, सत्तालोभियों की जमात होती है। अंकों के खेल में सत्ता लोभ का संवरण आसान नहीं होता। यूपी की तरह ही झारखंड में भी भाजपा ने अपने इसी चरित्र का बार-बार परिचय दिया है। दूसरी तरफ विकल्प भी क्या है? लाख टके का सवाल है कि क्या भाजपा कभी कांग्रेस और सपा के साथ भी जा सकती है? सपाट सा उत्तर है, कतई नहीं। फिर बसपा के साथ जाने के अलावा बचता ही क्या है? फिर ऐसे में बसपा सरकार से ऊबी जनता भाजपा का क्यों साथ देगी? दरअसल यह विश्वास का ही संकट है जो सवालों के शक्ल में उभर रहा है।

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