Wednesday, December 21, 2011

सर्वजन हिताय की सरकार में गरीबों की हकमारी

उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा के आम चुनाव वैसे तो हमेशा ही पूरे देश के लिए उत्सुकता का विषय बने रहते हैं परंतु इस बार खासतौर पर पूरे देश की नजर टिकी हुई है। इसके कई कारण हैं। विगत चुनाव यानी 2007 में  बहुजन समाज पार्टी अपने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी तथा इन दिनों अकेले दम पर अपना कार्यकाल पूरा कर रही है। लिहाजा देश की नजर इस बात पर है कि बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की बात करने वाली बसपा तथा उसकी नेता एवं प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अपने उपरोक्त नारों पर अमल कर पाने में कहां तक खरी उतर पाई हैं। दूसरी ओर यह भी देखने की बात है कि बहुजन हिताय की बात करते-करते सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय का नारा उछालने का उन्हें लाभ हुआ है या नुकसान। दरअसल इसका आकलन भी चुनाव परिणाम आने के बाद ही होगा।
नायाब सोशल इंजीनियरिंग की चुनावी सफलता के बाद सत्ता में सवर्णों की हिस्सेदारी का ढोल पिटा गया। यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि वाकई यह सर्वजन हिताय की सरकार है। मगर जिस तरह से सरकारी योजनाओं में लूट-खसोट हुई है, उससे निश्चित तौर पर गरीबों और जरूरतमंदों की हकमारी हुई है। मनरेगा मेंं बरती गयी अनियमितता या फिर एनआरएचएम के सैकड़ों करोड़ की राशि की लूट-खसोट शासन के तमाम दावे की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। बुंदेलखंड पैकेज की भारी भरकम राशि की बंदरबांट को लेकर भी सरकार की किरकिरी होती रही है। वहां के सैकड़ों किसानों द्वारा की गई आत्महत्याएं और उनके परिजनों की बदहाली की भले ही राष्टï्रीय स्तर पर चर्चा होती रही हो, मगर प्रदेश की मुख्यमंत्री अमूमन इन सब बातों से अनजान बनी रहीं।
सत्ता के बदले समीकरण में मायावती शुरुआत में जितनी ताकतवर बन कर उभरी,कार्यकाल का अन्त आते-आते उतनी ही कमजोर साबित होने लगी। एक-एक कर मंत्रिमंडल की एक चौथाई से ज्यादा मंत्री भ्रष्टïचार के आरोपों में घिरते गये और लोकायुक्त तथा कोर्ट के आदेशों के बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाता रहा। मुख्यमंत्री के करीबी और मंत्रिपरिषद में दूसरे नम्बर पर गिने जाने वाले बाबू सिंह कुशवाहा से लेकर नसीमुद्ïदीन सिद्ïदीकी तक भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिरे और इससे न केवल सत्ता संरक्षित भ्रष्टïाचार का खुलासा हुआ बल्कि स्वयं सत्ता के शीर्ष पर बैठी मुख्यमंत्री भी आरोपों के घेरे में आईं। विपक्ष का वार लगातार जारी रहा। कांग्रेस,भाजपा और सपा का सीधा सा आरोप रहा कि कि मुख्यमंत्री के संरक्षण में ही करोड़ों के घोटाले होते रहे और वह मूकदर्शक बनी रहीं।
मायावती के बरअक्स प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का भ्रष्टïाचार के बाबत तर्क थोड़ी देर के लिए ग्राह्यï भी है कि गठबंधन की मजबूरियों की वजह से उन्हें अपने कथित भ्रष्टïाचारी मंत्रियों पर कार्रवाई करने में देरी हुई। मगर मायावती तो एकल और पूर्ण बहुमत की सरकार की मुखिया हैं। इनके साथ ऐसी कौन सी मजबूरी रही कि सैकड़ों-हजारों करोड़ की लूट होती रही और वह मूक बनी रहीं। इस बाबत उनका यह तर्क भी स्वीकारने लायक नहीं है कि ज्यों ही उन्हें अपने मंत्रियों के भ्रष्टïाचार की जानकारी मिलीं, उन्हें मंत्रिमंडल से निकाल बाहर किया।
यह एक यक्ष सवाल है। बहुमत के गुमान में तानाशाही प्रवृति का पनपना संभव है। मगर यह भी एक हकीकत है कि सत्ता का पट्ट जनता सिर्फ पांच वर्षों के लिए ही देती है। पांच साल बाद जनता फिर हिसाब भी लेती है। जनता के पास भले ही कैग और सीएजी जैसी कोई अडिटिंग सिस्टम नहीं है या फिर आईबी, सीबीआई जैसी कोई जांच एजेंसी भी नहीं है, मगर उसकी नजरों से बचना आसान नहीं है। विपक्ष केआरोपों और मीडिया की टिप्पणियों को झूठला भी दें तो जनता को धोखा देना आसान नहीं है। आमतौर पर राजनेताओं को यह भ्रम होता है कि जनता तो बेचारी और विवश है,चुनाव के मौके पर उसे झांसा देकर बच जायेंगे। मगर जनता को बेवकूफ समझने वालों की सत्ता खिसकते भी देर नहीं लगती है। दरअसल भ्रष्टïचार से सर्वाधिक प्रभावित वह गरीब,बेबस जनता ही होती है जो चुनाव के मौके पर मतदाता की पहचान पाती है और जिसके सामने सत्ता के दावेदार हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते हैं। शहरों में उगी आलीशान कोठियां,चमचमाती गाडिय़ां, मंत्रियों और राजनेताओं के ठाट-बाट,रियल एस्टेट और सैकड़ों फर्जी कम्पनियों में हजारों करोड़ के निवेश आम जनता और गरीबों की हकमारी करके ही संभव हैं। ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि जनता इन सब बातों से अनजान हैं। फर्श से अर्श तक के राजनेताओं की सफर की कहानियों से जनता आजीज आ चुकी हैं।
इस बार यूपी की जनता भी तमाम राजनीतिक समीकरणों और जोड़-तोड़ के बावजूद हालात बदलने को बेताब दिख रही हैं। सत्तारूढ़ बसपा पिछली बार की अपनी सोशल इंजीनियरिंग को इस बार भी कारगर हथियार बनाने की फिराक में है। ब्राह्मïण और दलित सम्मेलन के बाद क्षत्रिय,वैश्य और अल्पसंख्यक सम्मेलन का आयोजन इसी जुगत में रहा। मगर एक बात बसपा प्रमुख को भी गांठ बांध लेनी चाहिए कि मतदाताओं को बार-बार थोथे नारे और आश्वासनों से छला नहीं जा सकता है। हालांकि तीन तीन बार भाजपा से मिलकर सरकार बनाने वाली मायावती ने मुसलमानों को खुद से कब का दूर कर लिया था। फिर भी अब उन्हें मुसलमानों की चिन्ता सता रही हैं। विगत चुनाव में वोटों के नए समीकरण के तहत दलितों के साथ सवर्ण जुड़े तो एक ऐसा ठोस वोट बैंक बन गया जिसके बल पर बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गयी। मगर यहां एक बात बसपा भूल रही है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। जो गैर दलित वोट पिछले चुनाव में बसपा को मिला था वह सपा के कथित जंगल राज से तंग आकर ऐंटी इन्कम्बैंसी फैक्टर की वजह से था। यह इधर उधर होने वाला वोट किसी एक पार्टी या नेता के साथ चिपका नहीं रहता बल्कि हवा का रूख देखकर चुनाव के ऐन मौके पर ही फैसला करता है। प्रदेश में कानून व्यवस्था के नाम पर जंगलराज सपा के अंतिम दौर से भी अधिक कायम हो जाने, नरेगा और केंद्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं में व्यापक भ्रष्टाचार होने, थाने नीलाम होने, खुद बसपा मंत्रियों और विधायकों के गंभीर आरोपों में फसने, जनता की गाढ़ी कमाई के अरबों रुपये पार्कों और स्मारकों पर खर्च करने, किसानों की खेती की जमीन औने-पौने दामों में जबरन अधिग्रहित करने, अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों में मोटी कमाई करने, पुलिस द्वारा फर्जी एनकाउंटरों में यूपी के सबसे अधिक बेकसूरों के मारे जाने के मानव अधिकार आयोग के गंभीर आंकड़ों आदि के बाद बसपा को सत्ता में एक बार फिर लौटने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिये।



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