Saturday, January 12, 2013

पाक की दोहरी चाल


भारत के साथ टकराव के दौर में पाकिस्तान के लिए दो चीजें कभी नहीं बदलतीं। पहला है चीन की शरण में जाना और दूसरा संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता की मांग करना। यह रुख उसके राजनैतिक और कूटनीतिक असुरक्षा बोध को प्रकट करता है, जो पांच छोटे-बड़े युद्धों, भारत के विरुद्ध आतंकवाद का सहारा लेने की सरकारी नीति और आपसी विवादों को बार-बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की पृष्ठभूमि के बावजूद बरकरार है। विश्व कूटनीति पर नजर रखने वालों के लिए यह एक दिलचस्प समय है, क्योंकि इस समय पाकिस्तान रोटेशन के आधार पर एक महीने के लिए सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष है। यह कोई संयोग नहीं होगा कि पिछली एक जनवरी को उसने यह पद संभाला और अगले कुछ ही दिनों में कश्मीर में टकराव के हालात बन गए। अध्यक्ष होने के नाते सुरक्षा परिषद का एजेंडा तैयार करने में पाकिस्तान की स्वाभाविक भूमिका है। वह इस अनुकूल स्थिति का प्रयोग अपने कूटनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए करना चाहेगा। खासकर तब जब वहां कश्मीर से जुड़े मामलों में फौज की बात ज्यादा वजन रखती है। सीमा पर टकराव बढ़ना पाकिस्तान को मौका देगा कि वह किसी न किसी बहाने से सुरक्षा परिषद की चर्चाओं में कश्मीर का मुद्दा शामिल करवा सके। हालांकि अतीत में उसे जब भी ऐसी कोशिशों में कामयाबी मिली, अंतिम नतीजा सिफर ही रहा। न जाने क्यों पाकिस्तानी सरकारों को लगता रहा है कि संयुक्त राष्ट्र, इस्लामी सम्मेलन संगठन, अमेरिका, ब्रिटेन या कोई और बाहरी ताकत भारत पर दबाव डालकर उसे कश्मीर मसले पर अपना रुख बदलने के लिए मजबूर कर सकती है। लेकिन जो भारत वैश्विक प्रतिबंधों और निंदा की स्पष्ट आशंका के बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में परमाणु परीक्षण कर सकता है और संयुक्त राष्ट्र के अप्रासंगिक हो चुके प्रस्तावों पर अमल से इंकार कर सकता है, वह ऐसे किसी भी दबाव में कैसे आ जाएगा? ऐसी कोशिशें उसके लिए थोड़ी बहुत असुविधा अवश्य पैदा कर सकती हैं लेकिन वह आर्थिक-राजनैतिक और सैनिक दृष्टि से मजबूत होता चला जाएगा। इसकी पहल होनी चाहिए।

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