Tuesday, December 25, 2012

यह आंदोलन नहीं गुस्सा है



आजकल आप किसी भी नुक्कड़ या सार्वजनिक स्थानों पर खड़े हो जाएं तो वहां आपको दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार की हालिया घटना और उसके बाद के घटनाक्रम पर चर्चा करते लोग मिल जाएंगे। घटना के विरोध में तीखे स्वर और पुलिस तथा सरकार की विफलताओं पर भी आपको तल्खी देखने-सुनने को मिलेगी। प्रदर्शनकारियों पर हुए लाठीचार्ज का मामला हो या फिर प्रदर्शनकारियों की कथित पिटाई से एक कांस्टेबल की मौत का,हर व्यक्ति अपने गुस्से का इजहार करता मिलेगा। इस गुस्से को दिल्ली से लेकर पटना और अन्य सुदूरवर्ती इलाकों तक महसूसा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बलात्कार की यह कोई पहली घटना है। बलात्कार की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन 16 दिसम्बर की रात चलती बस में सामूहिक बलात्कार के बाद लड़की को गंभीर हालत में जिस तरह से सड़क पर फेंका गया, उससे लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। लोग बड़ी तादाद में सड़कों पर निकले और उनकी नाराजगी सबने देखी। दरअसल यह नाराजगी आम लोगों की थी। कोई संगठन, पार्टी या सुनियोजित समूह इसके पीछे नहीं था। मगर यह गुस्सा कारगर रहा। इस गुस्से ने कई नए बदलावों को सामने लाया है। संभव है कि आने वाले दिनों में इसके सार्थक परिणाम भी आए। जनता के विरोध को देखते हुए सरकार ने यौन उत्पीड़न मामलों में मौजूदा कानूनों की समीक्षा के लिए एक अधिसूचना जारी की। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय समिति से मौजूदा कानूनों में संभावित संशोधन पर 30 दिनों में सुझाव मांगे गए हैं। प्रदर्शनकारियों पर दिल्ली पुलिस ने बल प्रयोग किया,मामले की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को दुहाई देनी पड़ी कि उनकी भी बेटियां हैं। लचर कानून व्यवस्था पर सवाल उठे और दिल्ली पुलिस आयुक्त को हटाने की मांग हुई लेकिन गाज गिरी दो सहायक पुलिस आयुक्तों पर। दरअसल इस गुस्से से बचने के लिए ही और भी कई कदम उठाए गए हैं।

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