Wednesday, February 15, 2012

मतदान का यह उत्सव प्रयोजन से परे नहीं

  • राकेश प्रवीर
मतदान का यह उत्सव प्रयोजन से परे नहीं है। मानो मतदाताओं ने तंत्र को ठीक करने की ठान ली हो। उत्तर प्रदेश में तीन चरणों के मतदान संपन हो चुके है। पहले चरण में जहां बारिश और मौसम की खराबी के बावजूद 62 से 64 प्रतिशत वोट पड़े वहीं दूसरे चरण में 59 से 60 फीसदी मतदान हुआ। तीसरे चरण में भी रिकार्ड मतदान उन जिलों में हुए जहां का पिछला रिकार्ड मायूसी भरा था। सोनभद्र और अन्य सीमाई जिलों के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भी वोटरों में खासा उत्साह देखा गया तो बुद्घिजीवियों के गढ़ इलाहाबाद भी अपने पिछले मतदान प्रतिशत से काफी आगे निकल गया। खास बात यह रही है की जिन जिलों में मतदान हुए है वहां पिछले विधानसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत का अर्धशतक भी नहीं लग सका था। इस लिहाज से मतदान के इन आंकड़ों को अगर करिश्माई या जादूई कहें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ये बढ़ता मतदान किस ओर जा रहा है किसी को कोई खबर नहीं है। राजनीति के पंडितों की भविष्यवाणियां एक तरह से आकलनों के भंवर में उतरा रही है।
आमतौर पर मतदान के बढ़े प्रतिशत को बदलाव से जोड़ कर विश्लेषित किया जाता रहा है। उत्तर प्रदेश में भी बदलाव की बयार बहने की बात कही जा रही है। बदलाव की यह चाहत सत्ताजनित आक्रोश व प्रदेश के पिछड़ेपन की कोख से फूटी है। वोटों के पुराने समीकरण ध्वस्त होते हुए से दिख रहे हैं। नए समीकरण गढ़े गए हैं। कथित नायाब सोशल इंजीनियरिंग भी कहीं गुम है। कुल मिला कर हर कोई इस बार मतदान में एक इनरकरंट के अहसास से अह्ïलादित है। हवा का रूख सबको अपने पक्ष में लग रहा है।
मुद्ïदों पर गौर किया जाए तो प्रदेश स्तर पर ऐसा कुछ भी नहीं रहा है जिसके आधार पर यह मान लिया जाए कि अमूक मुद्ïदा की वजह से ही मतों का ध्रुवीकरण हुआ है, या हो रहा है। एक तरह से भ्रष्टïाचार को मुद्ïदे के तौर पर उछाला जरूर गया है, मगर भ्रष्टïाचार के तलाब के ठहरे हुए पानी में एक छोटे दायरे की उर्मियां ही बन पाई है। वजह साफ है, भ्रष्टïाचार को लेकर शोर मचाने वाले दलों के दामन भी पाकसाफ नहीं है। अन्य मुद्ïदों के मुहरे भी लुटे-पीटे से दिख रहे हैं। हां, जातीय गोलबंदी की चर्चा जरूर सतह पर है। कहा जा रहा है कि पेशेवर अपराधी भी जाति की गोद में बैठ कर चुनावी जीत की उड़ान भरने की जुगत में है। ऐसे लोगों को जाति का साथ मिल भी रहा है। पूर्वांचल में नारा भी दिया गया है-घर से घाट तक का साथ। यानी जीवन से मरण तक साथ निभाने का वायदा। एक अंदाज में धमकी भी।
इन सबके बावजूद मतदान प्रतिशत बढऩे के कई उत्प्रेरक कारक रहे हैं। इसके लिए चुनाव आयोग की वाह-वाही करने के साथ ही संचार माध्यमों और मीडिया की पीठ भी थपथपा दी जाए तो काई हर्ज नहीं। स्वयंसेवी संगठनों की पहलकदमी के साथ ही अन्ना के आन्दोलन से पनपी जागरूकता को एक भी कारक माना जा सकता है। विश्लेषकों की माने तो चुनावी लोकतंत्र पर से जनहताशा के बादल छटे हैं। यह लोकतंत्र के लिए शुभ है। संभव है कि दूर बैठ कर तंत्र को कोसने वालों ने इस बार तंत्र को ठीक करने की ही ठान ली हो।

No comments:

Post a Comment