Wednesday, February 1, 2012

राजनीतिक झांसे और मतदाताओं के विवेक की जंग

चुनाव मैदान में उतरे प्रत्याशियों के बीच हार-जीत की जंग के साथ ही इस बार राजनीतिक झांसे और मतदाताओं के विवेक के बीच भी जंग हो रही है। चुनाव के मौके पर कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियां घोषणा पत्र जारी कर मतदाताओं से एकमुश्त वायदे करती है। इन घोषणा पत्रों में किए गए वायदे कितने पूरे होते हैं? यह सबको पता है। दरअसल यह एक छलावा मात्र ही होता है। इस बात को मतदात भी अच्छी तरह से जानते-समझते है। सही मायने में कहे तो अब यह मात्र परम्परा का निर्वाह भर ही रह गया है। कभी राजनीतिक पार्टियां चुनाव से ठीक पहले अपना एजेंडा तय करती थी और उससे जनता को अवगत कराने के लिए घोषणा पत्र जारी करती थी। अगर सत्ता में आई तो भरसक कोशिश करती थी कि चुनावी वायदे को पूरा किया जाए। प्रतिपक्षी दल भी सदन और बाहर भी बार-बार सत्ताधारी दल को उसके वायदे को याद कराते रहते थे। जब गठबंधन सरकारों का दौर आया तो चुनावी वायदों को पूरा न कर पाने का ठिकरा सहयोगियों की खींचतान पर फोड़ा जाने लगा। बहाना यह भी होता रहा कि एकल बहुमत नहीं मिला इसलिए हम लाचार है।
इसकी खास वजह यही है कि राजनीतिक दल और नेता दोनों बखूबी समझ चुके हैं अब जनता में उनकी बातों की विश्वसनीयता नहीं रही। जनता भी यह मानती है कि नेता जो कह रहे हैं बाद में या तो उसे भूल जायेंगे या उससे मुकर जायेंगे। वैसे सत्ता में आने के बाद उन्हें अपने निजी स्वार्थ पूर्ति के कामों से इतनी फुर्सत भी नहीं मिल पाती कि वे अपने वायदों को पूरी तरह अथवा थोड़ा-बहुत निभा सकें। यही हाल मतदाताओं का भी है। आम मतदाता जनता है कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव घोषणा पत्र के नाम पर महज झूठे वादे-आश्वासन देते हैं। हर बार कुछ नए वायदे और आश्वासन।
सभी राजनतिक दलों का एजेंडा विकास, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा या स्वास्थय की फिक्र करना अथवा सडक., बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के साधन मुहैया कराना नहीं, बल्कि किसी तरह सत्ता पर कब्जा जमाना और भविष्य के लिए भी सत्ता पर अपने शिकंजे को ढीला न होने देना होता है। सत्ता की आड़ में अपने परिजनों,रिश्तेदारों को सत्ता सुख का अधिक से अधिक लाभ पहुंचाना भी एक मकसद होता है। यह सब करते-करते जब फिर से चुनाव का समय आए तो उस समय फिर किसी विकासात्मक मुद्ïदों की बात करने के बजाए केवल जनभावनाओं के सहारे अपनी चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करने की कवायद भी की जाती है।
जनभावनाओं से खिलवाड़ कर और उन्हें उकसाकर वोट ठगने का चलन वैसे तो पूरे देश में ही प्रचलित है। भारत जैसे विशाल देश में अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों के अलग-अलग तरह के मुद्ïदे हैं तथा नेताओं के पास उनकी भावनाओं को भड़काने के अलग-अलग फार्मूले भी हैं। राजनीतिक दलों को इस संबंध में सब कुछ पता है कि देश के किस राज्य, क्षेत्र, धर्म व समुदाय के लोगों से चुनावों के दौरान किस प्रकार की बातें करनी हैं ताकि मतदाता भावनात्मक रूप से उनके साथ जुड़ सकें।
उत्तर प्रदेश इस मामले में ऐसा राज्य है जहां अब तक लगभग हर चुनाव भावनाओं की बिसात पर संपन्न होते आए हैं। आमतौर पर धर्म, संप्रदाय, जाति, सवर्ण, दलित तथा अल्पसंख्यक को आधार बनाकर यहां चुनाव होते आ रहे हैं। कोई भी दल इन चुनावी फार्मूलों का अपनाने से परहेज नहीं करता। उत्तर प्रदेश की वर्तमान सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी ने भी अपने अस्तित्व में आने के बाद से लेकर अब तक केवल समुदाय विशेष के लोगों की भावनाओं को भडक़ाने का ही काम किया और इस फार्मूले पर चलते हुए उसे राजनीतिक सफलता भी मिली। वह आज भी जरूरत पडने पर बार-बार अपने इसी जनभावनाओं से खिलवाड़ करने वाले हथकंडों का प्रयोग करने से नहीं चूकती। शायद आगे भी नहीं चूकेगी।
पिछले दिनों चुनाव आयोग ने सरकारी खर्च से सार्वजनिक स्थलों पर लगाई गई हाथियों और मायावती की मूर्तियों को राज्य में विधानसभा चुनाव संपन्न होने तक ढके जाने का निर्देश दिया। चुनाव आयोग के इस फैसले में भी बहुजन समाज पार्टी के नेताओं ने अपना हित तलाशने की कोशिश की और आयोग के इस फैसले को सीधे तौर पर दलितों के स्वाभिमान पर हमला बताने की कोशिश की। सोचने वाली बात है कि उत्तर प्रदेश में अरबों रुपये खर्च कर इस प्रकार के स्मारक बनाने से आखिर दलित समुदाय के विकास या उनके स्वाभिमान का क्या लेना-देना हो सकता है। मतदाताओं विशेषकर दलितों का इन बुतों से कोई वास्ता हो या न हो मगर मूर्तियां ढके जाने के इस प्रकरण को लेकर मु_ीभर बसपा नेताओं को तो राजनीति करने का मौका मिल ही जाता है। दरअसल ऐसे प्रसंग उन्हें दलित भावनाओं से खिलवाड़ करने, उन्हें उकसाने व भडक़ाने का मौका देता है। सोच यह भी रहती है  भावनावश ऐसी गोलबंदी हो कि एक बार फिर सरकार को सत्ता में वापस लाने का मौका मिल जाए।
इसी प्रकार पिछले दिनों बसपा नेता सतीश मिश्र ने एक चुनावी सभा के दौरान राहुल गांधी के उस प्रश्न पर आक्रमण किया कि राहुल अक्सर उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार से यह पूछते रहते हैं कि केंद्र सरकार ने अमुक योजनाओं के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को इतने पैसे भेजे वह पैसे कहां गए? क्या हुए? राहुल के इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर देने के बजाए मायावती के मुख्य सलाहकार सतीश चन्द्र मिश्र ने राहुल पर जवाबी हमला करते हुए उनसे पूछा कि वे यह बताएं कि वह पैसा क्या इटली या जापान से आता है। आखिरकार वह पैसा भी तो हमारा ही पैसा है। मिश्र के इटली शब्द के प्रयोग का आशय आखिर क्या था? भारतीय राजस्व तथा वित्तीय व्यवस्था में धन का आवंटन भारतीय संविधान में दर्ज व्यवस्थाओं के अनुरूप ही किया गया है। निश्चित रूप से प्रत्येक राज्य, केंद्र सरकार को अपने-अपने हिस्से का धन देते हैं तथा आवश्यकता पडने पर वही धन जनता को राज्य के माध्यम से विकास कार्यों के लिए विभिन्न योजनाओं के लिए वापस किया जाता है। ऐसे में इटली या जापान से पैसे आने की बात कहना समझ में नहीं आता। श्री मिश्र से भी यह पूछा जा सकता है कि क्या केंद्र सरकार को या उनके किसी प्रतिनिधि अथवा सांसद को राज्य सरकार से यह पूछने का अधिकार भी नहीं है कि अमुक योजना के लिए भेजा गया धन उस योजना विशेष में लगने के बजाए कहां समा गया, क्या हाथी और मायावती की मूर्तियां स्थापित करने अथवा दलित स्मारकों के निर्माण के लिए ही प्रदेश या देश की जनता अपने खून-पसीने की कमाई टैक्स के रूप में देती है।
वैसे जनभावनाएं भडक़ाने का काम केवल बसपा ही नहीं कर रही, बल्कि सभी राजनीतिक दल इसी माध्यम को मतदाताओं से वोट ठगने का सबसे सुगम रास्ता समझने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी जिसने कि रामजन्म भूमि मुद्ïदे के नाम पर दो दशकों तक पूरे देश में नफरत और वैमनस्य का वातावरण बनाया तथा अपने आपको इसी मंदिर मुद्ïदे के द्वारा देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित किया, यहां तक कि केंद्र में राम मंदिर के नाम पर ही 6 वर्षों तक सत्ता का सुख भी भोगा एक बार फिर अब वह रामराज की चर्चा कर प्रदेश में भ्रष्टïाचारमुक्त सुशासन की बात कर रही है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश चुनावों में पार्टी ने प्रवक्ता के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को इस गरज से आगे कर दिया है शायद प्रदेश के अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने जैसा असंभव सा लगने वाला काम संभव हो सके। वैसे अपनी नीतियों,सिद्घांतों और आदर्शों की चर्चा करते नहीं थकने वाली भाजपा को जातीय वोट भी चाहिए। जातीय राजनीति को चमकाने के लिए ही भाजपा के रणनीतिकारों ने बाबू सिंह कुशवाहा जैसे दागी और बसपा से निकाले नेता तथा बादशाह सिंह जैसे हिस्ट्रीसिटर को गले लगा लिया। दूसरी ओर हिन्दुओं को आकर्षित करने की चाल से भी भाजपा बाज आने को तैयार नहीं है।
राज्य में हो रहे चुनावों के दौरान भाजपा ने पूरे राज्य में रैली, जनसभाएं आदि आयोजित करने का कार्यक्रम बनाया है वहीं आम लागों की धार्मिक भावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए पूरे राज्य में एक ही दिन व समय पर महाआरती जैसा गैर राजनीतिक आयोजन भी किए जाने का ऐलान किया गया है। मजे की बात तो यह है कि चुनावी बेला में महाआरती की यह घोषणा भी और किसी ने नहीं बल्कि नकवी ने ही की है।
प्रदेश में सक्रिय अन्य राजनीतिक दल भी राज्य के विकास या जन समस्याओं पर बहस करने के बजाए मतदाताओं की भावनाओं को भडक़ाने व उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं। विकास का राग अलापने वाली कांग्रेस और उसके युवराज राहुल गांधी को भी लगता है कि सैम पित्रोदा को बढ़ई बता देने मात्र से सूबे के तमाम पिछड़ी जातियां कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद हो जायेगी। एक ओर तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दिक्षित खुले तौर पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा करती है कि उन्हें गुजरात की जनता ने बार-बार इसलिए मौका दिया कि वे वहां विकास कार्य किए और यह भी कि अब जनता का ट्रेंड बदल चुका है जो विकास करेगा उसे ही जनता वोट देगी। दूसरी ओर जातीय और धार्मिक आधार पर मतों को प्रभावित करने के लिए कोशिशें भी निरन्तर पार्टी नेताओं की ओर से जारी है।
देखना होगा कि इस बार जनता विभिन्न राजनीतिक दलों के विभिन्न नेताओं द्वारा हर बार दिए जाने वाले झांसे का शिकार होती है और जातीय-धार्मिक भावनाओं  में बहकर मतदान करती है या अपनी क्षेत्रीय समस्याएं, प्रत्याशियों की छवि को दृष्टिïगत रखते हुए भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा बन कर स्वयं अच्छे या बुरे राजनीतिक दल की पहचान करने की कोशिश करती है। वाकई  मतदाताओं के  लिए भी यह परीक्षा का ही दौर है,क्योंकि सभी राजनीतिक पार्टियां चिकनी-चुपड़ी वायदों और झांसे के सहारे उनका मत हासिल करना चाह रही है।

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