Monday, April 7, 2014

मीडिया घरानों की प्रतिस्पर्धा * न्यूज़ पेपर और प्राइस वार *


अखबारों के आवरण मूल्य में अस्वाभाविक कमी के पीछे भी प्रतिद्वंद्विता की असमान स्थितियां ही हैं और यह खेल मुख्यतः बड़ी पूंजीवाले संस्थान ही खेलते हैं। आजादी के बाद से ही इस प्रवृत्ति ने ध्यान आकर्षित किया था और प्रथम प्रेस आयोग ने सुझाव भी दिया था कि अखबारों की आवरण कीमतों का निर्धारण उनकी कुल पृष्ठों की संख्या के आधार पर निर्धारित हो। आयोग ने एकाधिकार को रोकने के लिए तो यह भी सुझाया था कि अखबारों में समाचार और विज्ञापनों का अनुपात 60 व 40 का हो पर आयोग की शायद ही किसी सिफारिश को माना गया हो।
यहां याद किया जा सकता है कि आस्ट्रेलियाई मीडियापति रूपर्ट मुर्डाख ने कम दामों में अखबार बेचने के तरीके का सबसे घातक इस्तेमाल इंग्लैंड के बाजारों पर कब्जा करने के लिए किया था। उसकी देखा-देखी टाइम्स आफ इंडिया ने यह तरीका पहली बार दिल्ली के बाजार पर कब्जा करने के लिए अपनाया था। यह तरीका अब भी किसी न किसी रूप में जगह-जगह जारी है। इसके चलते छोटे अखबार, जिन्हें विज्ञापन कम मिलता है और जो अपनी आय के लिए मुख्यतः बिक्री पर निर्भर रहते हैं, देखते ही देखते बाजार से बाहर हो जाते हैं और बंद होने या बिकने की स्थिति में आ जाते हैं।
बहुसंस्करणों का मसला तो और भी गंभीर है और इसके आयाम भी कई हैं। सबसे पहले यह छोटे मीडिया समूहों के अस्तित्व से जुड़ा मसला है। यह बात नई दुनिया के ताजा उदाहरण से एक बार फिर स्पष्ट हो जाती है। बड़े अखबारों के संस्करण अपनी बेहतर पूंजीगत स्थिति, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन और संसाधनों के चलते गैर महानगरीय केंद्रों के कम पूंजी के स्वतंत्र अखबारों को देखते ही देखते या तो बाजार से बाहर कर देते हैं या उन्हें इतने पैसे का प्रस्ताव दे दिया जाता है कि उनके पास बिकने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं रहता। नई दुनिया के साथ काफी हद तक यही हुआ। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका जैसे अखबारों ने उसके लिए स्थिति कठिन बना दी थी। दूसरी ओर दैनिक जागरण अपना विस्तार मध्यप्रदेश में करना चाहता था पर अपने नाम से नहीं कर सकता था और नये ब्रांड को स्थापित करना आसान नहीं था, क्योंकि आज नया अखबार शुरू करने और उसे स्थापित करने के लिए कम से कम एक हजार करोड़ की पूंजी चाहिए। ऐसे में पुराने नाम को खरीदना सबसे अच्छा सौदा था।.........

No comments:

Post a Comment