Tuesday, April 29, 2014

विश्वसनीयता पर सवाल

मीडिया की विश्वसनीयता पर तरह-तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। एक आम मतदाता (नागरिक) को भी लगने लगा है कि मीडिया बैलेंस नहीं है। कई तार्किक सवाल भी किए जाने लगे हैं। ये सारे सवाल एक तरह से मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर हो रहे हैं। कतिपय सवालों में अतिरेक हो सकता है मगर सारे सवाल निरर्थक नहीं है। आम मतदाताओं की सोच में जो पार्टी या उम्मीदवार कहीं दिख भी नहीं रहा है वह टीवी और समाचार पत्रों में छाया हुआ है। कुछ खास रैलियों को खास कवरेज दिया जा रहा है। स्पेशल इंटरव्यू भी धंधई शक्ल अख्तियार कर चुका है। आम लोग इसे मीडिया मैनेजमेंट, पेड न्यूज या फिर किसी और तरह से देख रहे हैं। राजनीतिक दलों के विज्ञापनों को लेकर आम लोगों के सवाल न के बराबर है, मगर समाचार के रूप में परोसे जा रहे छद्म विज्ञापनी सामग्रियों पर उनकी पैनी नजर है। आपके-हमारे तर्क अलग-अलग हो सकते हैं, मगर उनकी समझदारी पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।
पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश भाजपा के कददावर नेता लालजी टंडन ने पेड न्यूज का मुददा उठाया था। तब स्वनामधन्य पत्रकार प्रभाष जोशी इससे काफी आहत हुए थे और इसके खिलाफ अभियान चलाए। पूरे देश में धूम-धूम कर उन्होंने कहा कि ऐसे में तो मीडिया और पत्रकारिता का बंटाधार हो जाएगा। तब सवाल न्यूज स्पेश बेचने का था। देश के कई नामी अखबार और मीडिया घराना आरोपों के घेरे में थे। एक तरह से मीडिया की यह घोखाधड़ी थी। आमतौर पर मीडिया के विभिन्न स्वरूपों पर निराधार और मनगढंत खबरें प्रसारित-प्रकाशित कर आम लोगों को गुमराह करने का आरोप लगता रहा है।
चुनाव जैसे मौकों पर मीडिया की ऐसी करतूतों पर सवाल उठना इसलिए भी लाजिमी है कि मतदातओं को गुमराह करने की इस कार्रवाई का सीधा असर हमारे लोकतंत्र पर पड़ रहा है। एक तरह से भोले-भाले मतदाताओं को गुमराह कर किसी भ्रष्ट और अयोग्य के पक्ष में माहौल बनाने के इस खेल से करोड़ों का वारा-न्यारा किया जा रहा है। इस खेल में कौन-कौन शामिल है और इसका कितना दूरगामी असर होगा, कथित आरोपों में कितनी सच्चाई है, यह जांच और बहस का मुददा हो सकता है। जनता भले ही भोली है, मगर सही समय पर अपना सही निर्णय देने से चुकती भी नहीं है.... किसी को गफलत में रहने की जरूरत है.... शायद इस बार यह भ्रम भी टूटे कि मीडिया ही सरकार बनाती है.....

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