Monday, April 14, 2014

सवाल मीडिया के इरादे का …(2) ---------बस बोली लगाने की देरी है----------


भारतीय पत्रकारिता आज असामान्य दौर से गुजर रही है। पत्रकारिता सिर्फ सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का जरिया नहीं रह गई है। अब सूचना और संवाद का व्यापार होने लगा है। पत्रकारिता के जरिये सरकारों का गठन, उत्थान और पतन हो रहा है। एक छोटी-सी अखबारी सूचना से समाज में तनाव, विवाद और संघर्ष पैदा हो रहे हैं। इलेक्ट्रानिक माध्यमों के ब्रेकिंग न्यूज से ऐसा अनेक झड़पों के पैदा होने की संभावना बनी रहती है। समस्याओं के दौरान मीडिया कवरेज न सिर्फ जोखिम भरा होता है बल्कि जोखिम पैदा करने वाला भी होता है। चुनावों के दरम्यान प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यमों में स्थान और समय खरीदने का चलन हो गया है। दल और नेता प्रायोजित सर्वे करवाते हैं। बाद में इसे प्रकाशित और प्रसारित किया जाता है। खबरों में विज्ञापन और विज्ञापने में खबरों का चलन शुरू हो चुका है।
मीडिया और राजनीति का चोली-दामन का संबंध है। एक-दूसरे के बिना इनका काम नहीं चल सकता है। राजनीतिक रिपोर्टिंग करने वालों को लोभ, लालच और भय का सामना भी करना पड़ता है। न सिर्फ कारपोरेट घरानों ने बल्कि नौकरशाही और राजशाही ने भी मीडिया में दलालों और बिचैलियों की एक बड़ी फौज तैयार कर रखी है। जिला स्तरीय प्रतिनिधि से लेकर संवाददाता, डेस्क इंचार्ज और संपादक स्तर तक अपना जाल फैला रखा है। पत्रकारिता के नामचीन हस्तियों को कटघरे में देख ऐसा लगता है कि पत्रकारों की एक बड़ी जमात कारपोरेट और राजनैतिक हाथों में या तो बिक चुकी है, या फिर खुद को बेचने के लिए तैयार खड़ी हैं। बस खरीददार और बोली लगाने की देरी है……

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