Saturday, December 31, 2011

उत्तर प्रदेश में परिसीमन से बढ़ी प्रत्याशियों की परेशानी

परिसीमन के बाद हो रहे पहले विधानसभा चुनाव के चलते उत्तर प्रदेश की कई पार्टियों के दिग्गजों की सियासी कर्मभूमि बदल गई है। जिससे इस बार उन्हें दूसरे निर्वाचन क्षेत्रों की ओर रुख करना पड़ा है। परिसीमन की वजह से विधान सभा क्षेत्रों के भूगोल में हुए बदलाव से सभी दलों की परेशानियां बढ़ गयी हैं। कई निवर्तमान विधायकों को जहां अपनी पुरानी सीटों को छोड़कर किसी नये क्षेत्र की शरण में जाना पड़ा है वहीं कई की सीट ही समाप्त हो गयी हैं। इसके साथ नवसृजित विधान सभा सीटों में वोटों के समीकरणों में भी भारी उलटफेर हुआ है। वोटों के जातीय समीकरण बदलने से भी प्रत्याशियों की परेशानी बढ़ी हुई है।
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही अब तक देवरिया की कसया सीट से अपनी किस्मत आजमाते रहे हैं लेकिन नए परिसीमन में उनके पुराने निर्वाचन क्षेत्र का वजूद ही समाप्त हो गया है। भाजपा ने शाही को जिले की नई सीट पथरदेवा से मैदान में उतारा है। नई सीट पर नए जातीय समीकरण ने शाही की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। ठीक इसी प्रकार कांग्रेस के दिग्गज नेता अम्मार रिजवी परम्परागत रूप से सीतापुर की महमूदाबाद सीट के बजाय नई विधानसभा सीट सेवता से ताल ठोंक रहे हैं। विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर चार बार विधानसभा और एक बार विधान परिषद का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। परिसीमन में उनकी आजमगढ़ की लालगंज सीट सुरक्षित हो गई है। वह अपने लिए नया ठिकाना ढूंढ रहे हैं। दीदारगंज सीट से उनके चुनाव लडऩे की सम्भावना जताई जा रही है।

कुछ ऐसा ही हाल पांच बार विधायक और तीन बार सांसद रहे मित्रसेन यादव का है। फैजाबाद की मिल्कीपुर सीट से उन्होंने अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था। वह इस सीट से पहली बार विधायक चुने गए थे। विधानसभा के लिए हमेशा वह इसी सीट से लड़े। वह दो बार इस सीट से हारे भी लेकिन सीट नहीं बदली। पर इस बार उनको मिल्कीपुर को अलविदा कहना पड़ गया क्योंकि यह सीट आरक्षित हो गई है। मजबूरन उन्हें बीकापुर सीट का रुख करना पड़ा है।
बसपा के कई मंत्रियों को भी परिसीमन की वजह से अपना इलाका बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा है। संसदीय कार्य, वित्त, चिकित्सा, शिक्षा आदि महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे लालजी वर्मा अम्बेडकरनगर की टांडा सीट से चुने जाते रहे हैं लेकिन पांचवी बार विधानसभा में पहुंचने के लिए उन्हें नई सीट की दरकार है। परिसीमन में उनकी सीट भी बदल गई है।
ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय हाथरस से चुनाव लड़ते रहे हैं लेकिन इस बार परिसीमन में उनकी सीट सुरक्षित हो गई है, इसलिए वह नया ठिकाना तलाश रहे हैं। गोरखपुर की पनियारा विधानसभा सीट वन मंत्री फतेहबहादुर सिंह की परम्परागत सीट रही है। यहां से उनके पिता स्वर्गीय वीर बहादुर सिंह भी चुनाव लड़ते थे। परिसीमन में पनियारा विधानसभा सीट का भूगोल बदल जाने के कारण अब वह कैम्पियरगंज से चुनाव लडऩे को तैयार हैं। नगर विकास मत्री नकुल दुबे की महोना विधानसभा सीट का परिसीमन में वजूद समाप्त हो गया है इसलिए वह इस बार बक्शी का तालाब से किस्मत आजमाएंगे।
इन प्रमुख मंत्रियों के अलावा समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अशोक वाजपेयी अब पिहानी सीट की बजाय हरदोई की सवायजपुर सीट से, विधानसभा में पार्टी के मुख्य सचेतक अम्बिका चौधरी कोपाचीट के स्थान पर फेफना से और प्रदेश के महासचिव एवं पूर्व मंत्री ओमप्रकाश सिंह दिलदारनगर की बजाय अब जमानिया सीट से अपनी किस्मत आजमाएंगे।

प्रदेश अध्यक्षों की भी होगी अग्निपरीक्षा


सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के साथ-साथ उनके प्रदेश अध्यक्षों की भी अग्निपरीक्षा होगी। उनके सामने अपने दल को बढ़त दिलाने और दलीय प्रत्याशियों की जीत के लिए चुनाव प्रचार करने के साथ-साथ खुद का चुनावी मैदान जीतने की भी चुनौती है।
पिछले कुछ सालों की राजनीति में यह पहला मौका है जब समाजवादी पार्टी को छोड़ कर अन्य सभी राजनीतिक दलों के प्रदेश अध्यक्ष चुनाव मैदान में ताल ठोकेंगे। विधानसभा चुनाव में केवल उनके दल की ही नहीं बल्कि उनकी लोकप्रियता की भी मतदाताओं की कसौटी पर परीक्षा होगी। दल को अगर चुनावी कामयाबी मिलती है तो पार्टी पर उनकी पकड़ और मजबूत होगी,वरना चुनाव बाद उन्हें अपने ही दल में विरोध का सामना करना भी पड़ सकता है।
कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी जहां लखनऊ कैंट सीट से चुनाव लड़ रही हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही देवरिया की पथरदेवा सीट से इस बार अपनी किस्मत अजमा रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी  के प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य कुशीनगर की पडरौना सीट से व राष्ट्रीय लोक दल के प्रदेश अध्यक्ष बाबा हरदेव सिंह आगरा की एत्मादपुर सीट से जबकि पीस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अब्दुल मन्नान बलरामपुर की उतरौला सीट से चुनावी मैदान में होंगे।
समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। वह कन्नौज से सांसद हैं। सपा पदाधिकारियों का कहना है कि वह विधानसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशियों को जीत दिलाकर सपा की सरकार बनाने के महत्वाकांक्षी अभियान में लगे हैं। वह भले ही खुद चुनाव नहीं लड़ रहे हैं मगर अपने प्रत्याशियों को जीताने की गुरुत्तर जिम्मेवारी उनके कंधों पर हैं। दूसरी ओर बिहार में सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में स्थापित जनता दल युनाइटेड की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष सुरेश निरंजन भैया का बुंदेलखंड की किसी सीट से और इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष कालीचरण सोनकर का इलाहाबाद जनपद की किसी सीट से चुनाव लडऩा लगभग तय बताया जा रहा है।
राजनीतिक दलों के प्रदेश अध्यक्षों ने चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद जहां अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में अपनी धमक बढ़ा दी वहीं सूबे के अलग-अलग क्षेत्रों में अपने दलीय प्रत्याशियों के पक्ष में चुनाव प्रचार भी शुरू कर दिया है। सात चरणों मेंं होने वाले चुनाव के मद्ïदेनजर कमोबेश सभी दलों के प्रदेश अध्यक्षों ने अपने-अपने क्षेत्रों के साथ ही अन्य क्षेत्रोंं के लिए भी अपने कार्यक्रम को अंतिम रूप देना शुरू कर दिया हैं। इसके अलावा प्रदेश अध्यक्षों को अपने राष्टï्रीय नेताओं के कार्यक्रमों और चुनावी सभाओं की सफलता की जिम्मेवारी का भी निर्वाह करना पड़ेगा। बड़े दलों के प्रदेश अध्यक्षों को थोड़ी सहुलियत भी है कि उनके यहां स्टार प्रचारकों की भरमार है, मगर छोटे दलों की दुशवारियां कुछ अलग तरह की है।
ऐसे मेंं यह माना जा रहा है कि सभी दलों केप्रदेश अध्यक्षों को दोहरी जिम्मेवारी का निर्वाह करना पड़ेगा। एक ओर जहां उन्हें अपने क्षेत्र के मतदाताओं को समय देना होगा वहीं पूरे प्रदेश के चुनाव पर भी उन्हें नजर रखनी होगी।

Wednesday, December 28, 2011

पश्चिम में बसपा पस्त,सपा मस्त

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समूचे रूहेलखंड में इस बार बसपा की मुश्किलें बढ़ी हुई हैं। राज्य विधानसभा चुनाव के पहले चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रूहेलखंड की 60 सीटों पर आगामी चार फरवरी को मतदान होगा। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में अव्वल रही सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी और नम्बर दो पर रही समाजवादी पार्टी ने आगामी चुनाव के लिये बाकायदा प्रचार और जनसंपर्क शुरू कर दिया है जबकि भारतीय जनता पार्टी,जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस-राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन ने भी कमर कस ली है। बसपा जो पिछले चुनाव में इस क्षेत्र में अव्वल रही थी,इस बार उसके लिए स्थितियां यहां काफी बदल गयी है। परिसीमन की वजह से क्षेत्रों के नये स्वरूप के साथ ही कांग्रेस-रालोद के गठबंधन की वजह से भी वोटों के समीकरण बदले हैं। सपा की सक्रियता और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के अभियान की वजह से वोट बैंकों के नए सिरे से बनने-बिगडऩे की संभावना व्यक्त की जा रही है। बदले चुनावी समीकरण की वजह से कई सीटों पर जहां मुकाबले रोचक होने का अनुमान है वहीं चुनाव परिणाम भी पिछले चुनाव से अलग होने की संभावना जतायी जा रही है। माना जा रहा है कि पिछले चुनाव में रूहेलखंड से 27 सीटें जीतने वाली बसपा की राह आसान नहीं है और उसको इस बार खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। वहीं सपा के हौसलें बुलंद हैं।
बसपा और सपा ने राज्य विधानसभा के आगामी चुनाव के पहले चरण की अधिसंख्य सीटों के लिये अपने उम्मीदवारों के नाम घोषित कर दिये हैं। घोषित प्रत्याशी ऊहापोह और टिकट रहने-कटने की तमाम आशंकाओं के बावजूद अपनी सक्रियता बरकरार रखे हुए हैं। वहीं दूसरी ओर भाजपा को 32 और कांग्रेस-रालोद गठबंधन को 30 सीटों पर अभी अपनी उम्मीदवारी तय करनी है। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस के संभावित उम्मीदवारों की धमाचौकड़ी क्षेत्र में जरूर शुरू है,मगर सपा, बसपा की तुलना में उनका चुनाव प्रचार अभियान जोर नहीं पकड़ पाया है। प्रदेश की अन्य क्षेत्रीय और छोटी पार्टियां भी इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए बेताब है। उनके नेताओं और प्रत्याशियों की बैठकें और प्रचार अभियान भी जारी है। कई क्षेत्रीय दल मजबूत और दमखम वाले प्रत्याशियों की तलाश में जुटे हैं ताकि मैदान में उनकी उपस्थिति दर्ज हो।
वर्ष 2007 के चुनाव में इन नौ जिलों में से मुरादाबाद मंडल के बिजनौर जिले के तहत आने वाली सभी सात सीटों पर बसपा ने जीत हासिल की थी। केन्द्रीय मंत्री चौधरी अजित ङ्क्षसह की अगुवाई वाले राष्ट्रीय लोकदल को तब इन नौ जिलों में एक भी सीट नहीं मिली थी। इस बार भले ही वे कांग्रेस से गलबहिया कर चुनाव मैदान में उतरे हैं, मगर उनके दल के पक्ष में क्षेत्र में कोई माहौल बनता नहीं दिख रहा है। इस बार भी रालोद इन क्षेत्रों में सिफर ही रहे तो कोई आश्चर्य नहीं। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी के अभियान के बावजूद पश्चिमी प्रदेश के इन इलाकों में कांग्रेस की हवा बनती नहीं दिख रही है। पिछड़ों और मुसलमानों के गठजोड़ से सपा के हौसले इस बार इन क्षेत्रों में बुलंद दिख रहे हैं। भाजपा प्रत्याशियों को लेकर बनी असमंजस की स्थिति से भाजपा को नुकसान हो रहा है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले चरण में बरेली और  मुरादाबाद मंडलों तथा लखनऊ  मंडल के लखीमपुर खीरी जिले की 26-26 एवं लखनऊ  मंडल के लखीमपुर खीरी जिले की आठ सीटों के लिए मतदान होगा। नये परिसीमन से पहले वर्ष 2007 में हुये उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान बरेली मंडल के तहत आने वाले बदायूं, शाहजहांपुर, बरेली और पीलीभीत तथा मुरादाबाद मंडल के तहत आने वाले रामपुर,मुरादाबाद, जे.पी.नगर और बिजनौर जिले तथा लखनउ मंडल के लखीमपुर खीरी समेत नौ जिलों में राज्य विधानसभा की 57 सीटें थीं, इनमें से बसपा को 27, सपा को 17, भाजपा  को 09, डी.पी.यादव के राष्ट्रीय परिवर्तन दल को दो तथा कांग्रेस एवं अन्य को एक एक सीट मिली थी। नए परिसीमन के बाद बिजनौर,जेपीनगर,रामपुर और लखीमपुर में एक-एक सीट बढ़ी है जबकि दूसरी ओर शाहजहांपुर में एक सीट कम हुई है।

Monday, December 26, 2011

पूर्वांचल में होगी बसपा की असली अग्निपरीक्षा

चुनाव की घोषणा के साथ ही पूर्वी उत्तर प्रदेश का राजनीतिक तापमान चढऩे लगा है। आंकड़ों के लिहाज से पूर्वी उत्तर प्रदेश का पिछला चुनाव परिणाम बसपा में पक्षा में था। यहां की कुल 177 सीटों में से 97 सीटों पर बसपा ने तब कब्जा जमाया था। हाल की राजनीतिक स्थितियों और बनते-बिगड़ते चुनावी समीकरणों में अगर बसपा अपनी विगत की स्थिति को बरकरार नहीं रखती है तो सबसे ज्यादा नुकसान भी उसे पूर्वांचल में ही उठाना पड़ सकता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि पूर्वांचल में ही इस बार बसपा की कड़ी अग्निपरीक्षा होने वाली है।
राज्य बंटवारे का दांव चल कर बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस क्षेत्र की दीर्घ लम्बित मांग को हवा देने की कोशिश जरूर की मगर इस चुनाव में उन्हें इसका कितना लाभ मिल पायेगा, यह कहना अभी कठिन है। मुख्यमंत्री मायावती द्वारा पूर्वांचल सहित चार अलग राज्य बनाने और उत्तर प्रदेश के विभाजन का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा गया था। केन्द्र सरकार ने प्रस्ताव पर कुछ सवाल उठाये हैं मगर इस प्रस्ताव से पैदा हुयी राजनीतिक आग की आंच से सभी राजनीतिक दल प्रभावित हैं। लोकमंच के नेता तो इसे अपनी आरम्भिक जीत बता कर श्रेय लेने की होड़ में जुट गए हैं और उनकी योजना है कि विधान सभा चुनाव में पूर्वांचल विरोधियों की करारी पराजय हो। अमर ङ्क्षसह ने इस मुद्दे को पूर्वांचल के विकास से जोड़ कर यह कहना शुरू कर दिया है कि बिजली पूर्वी उत्तर प्रदेश पैदा करे और रोशनी बादलपुर और सैफई में हो। पूर्वांचल की उपेक्षा अब बर्दाश्त नहीं की जायेगी।
उल्लेखनीय है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिध्दार्थनगर जिले के इटावा विधान सभा के कांग्रेसी विधायक ईश्वर चन्द शुक्ला ने सबसे पहले पूर्वांचल को अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव विधान सभा में बहस के लिए पेश किया था मगर कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा राज्य सरकार के उत्तर प्रदेश विभाजन के प्रस्ताव को लौटा देने के बाद कांग्रेस के हाथ से यह मुद्ïदा निकल गया। वैसे कांग्रेस फिलवक्त इस मुद्ïदे न तो विरोध और न समर्थन की रणनीति अख्तियार की हुई है। बसपा सुप्रीमो इस मुद्ïदे को इस चुनाव में पूरी तरह कैश करना चाहती थीं मगर केन्द्र के रवैये से उनकी मंशा पूरी होती नहीं दिख रही है। इस अंचल के छोटे राजनीतिक दल पीस पार्टी,उलेमा कौंसिल और अमर ङ्क्षसह के नेतृत्व वाली लोकमंच के अलावा भारत समाज पार्टी जैसे दलों की ओर से पूर्वांचल के विकास और वर्तमान सरकार में होती रही उपेक्षा को मुद्ïदा बना कर उछालने से बड़े दलों के समक्ष परेशानी पैदा हो सकती है।
यदि वर्ष 2007 में हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव को आधार बनाया जाय तो पूर्वांचल की 177 सीटों में से बसपा को 97 सीटे मिली थी यानि बसपा को पूरे प्रदेश से मिली कुल 206 सीटों में 47 प्रतिशत हिस्सेदारी पूर्वांचल की थी। पूर्वांचलवासियों के बीच एक चर्चा यह भी है कि पूर्वांचल से मिली इतनी बड़ी सफलता के बावजूद बसपा सुप्रीमो यहां के विकास को लेकर उदासीन बनी रहीं और एक तरह से यहां के लोग उपेक्षित ही रहे।
यह भी दीगर है कि वर्तमान चुनाव में बसपा अपनी 97 सीट में से एक भी सीट खोना नहीं चाहेगी। वर्ष 2007 के चुनाव में पूर्वांचल में  सपा 44, भाजपा 19 और कांग्रेस को मात्र सात सीटें प्राप्त हुई थीं। इस तरह बसपा अगर पूर्वांचलवासियों को अपने पक्ष में करने में सफल नहीं हो पाती है तो सर्वाधिक नुकसान भी उसे ही उठाना पड़ेगा।
वर्ष 2002 के चुनाव में भी बसपा को इतनी कामयाबी नहीं मिली थीं जितनी इस क्षेत्र में वर्ष 2007 में मिली।       उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव वर्ष 2002 में बसपा को कुल 98 सीटें ही मिली थी और सपा को 143 सीटें मिली थी जबकि भाजपा को 88 और कांग्रेस को कुल 25 सीटें मिली थीं। पूर्वांचल के मुद्दे पर इस अंचल की 177 सीटों पर आरम्भिक रूप से बसपा को ज्यादा जूझना होगा। यह अलग बात है कि यह पहला अवसर है जब सत्ता में रहते हुए बसपा चुनाव मैदान में होगी और उसे सत्ता विरोधी लहर का सामना करना होगा। इसके साथ ही सर्वाधिक विधायक जीता कर देने वाले पूर्वांचल की उपेक्षा और विकासहीनता के सवाल भी होंगे।

Friday, December 23, 2011

मुसलमानों के साथ छल कर रही हैं मायावती

ऑल इंडिया मुस्लिम फोरम के संस्थापक व विधिवेत्ता डा. नेहालुद्दीन अहमद का मानना है कि पिछड़े मुसलमानों के आरक्षण को लेकर केन्द्र सरकार के साथ ही उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी छल कर रही हैं। उन्होंने  कहा कि कांग्रेस और बसपा प्रमुख मायावती की ओर से आगामी चुनाव के मद्ïदेनजर लाभ लेने के लिए पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने के नाम पर राजनीतिक बाजीगरी की जा रही है। इससे मुसलमानों को सचेत रहने की जरूरत है। भाजपा के संग बार-बार गठजोड़ करने वाली मायावती भरोसे लायक नहीं है। पिछड़े मुसलमानों की पीड़ा को सबसे पहले ऑल इंडिया मुस्लिम फोरम ने ही 1994 में उठाया था। तब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ही थीं। फोरम की मांग पर सहमति जताते हुए उन्होंने लखनऊ में हुई अपनी एक रैली में मुस्लिमों को आरक्षण देने की घोषणा भी कर दी। मगर बाद में अपनी ही घोषणा से भाजपा के दबाव पर पलटी मार गयी। तब फोरम ने मुख्यमंत्री मायावती के होर्डिंग और पोस्टरों को कालिख पोतना शुरू किया। फोरम के आंदोलन से घबड़ा कर मायावती ने दमनात्मक कार्रवाई शुरू की और उनके सहित फोरम के अन्य नेताओंं को गिरफï्तार करवा लिया। मगर बाद में जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मुस्लिम फोरम द्वारा सुझाये फार्मूला को स्वीकार किया और पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण लागू किया। उसके बाद प्रदेश में पिछड़े मुसलमानों को सरकारी सेवाओं में 7 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलने लगा,जिसे बाद में आबादी के आधार पर बढ़ा कर 8.44 फीसदी किया गया।

उन्होंने कहा कि उस समय उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी के आधार पर मुस्लिम फोरम की मांग थी कि पिछड़ों के लिए मंडल कमीशन के आधार पर निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण में से 8.44 प्रतिशत पिछड़े मुसलमानों के लिए तय किया जाए। इस मांग को लेकर 17 अक्तूबर 1994 को ऑल इंडिया मुस्लिम फोरम ने लखनऊ में एक कन्वेंशन का आयोजन भी किया था जिसमें उस समय के कई प्रमुख मुस्लिम नेताओं मसलन पश्चिम बंगाल के मंत्री कलीमुद्ïदीन,पर्सनल लॉ बोर्ड के मुजाहिदुल इस्लाम कासमी,अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एम आर खुसरो तथा पत्रकार कुलदीप नैय्यर आदि ने भाग लिया। डा. नेहालुद्दीन के अनुसार तब वहां जुटे अधिसंख्य लोगों ने पिछड़े मुसलमानोंं के लिए आरक्षण का विरोध किया था। मगर बाद में 1997 में फोरम की इस मांग को पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने जहां अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया वहीं सीपीएम के अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने उत्तर प्रदेश में इसका समर्थन किया।
डा. नेहालुद्ïदीन ने कहा कि दक्षिण के कई राज्यों में पिछड़े मुसलमानों की आबादी के आधार पर अलग-अलग प्रतिशत में आरक्षण के प्रावधान किए गए है। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल और बिहार में भी नीतीश कुमार की सरकार ने कोटा विथ इन कोटा के तहत ही पांच प्रतिशत आरक्षण पिछड़े मुसलमानों को दिया गया है। इन राज्यों में पिछड़े मुसलमानों को इसका लाभ भी मिल रहा है।
फिलवक्त केन्द्र सरकार द्वारा पिछड़ों के लिए निर्धारित कोटा के अन्तर्गत ही अल्पसंख्यकों के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान से संबंधित कैबिनेट से पास प्रस्ताव  को डा. नेहालुद्दीन ने मुस्लिमों के साथ धोखा बताया। उन्होंने कहा कि आगामी महीनों में देश के पांच राज्यों मेंं होने वाले विधान सभा चुनावों मेंं लाभ लेने की मंशा से की गयी यह कार्रवाई है। पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण की जगह अल्पसंख्यकोंं के लिए किए जा रहे इस प्रावधान से मुसलमानों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। मुसलमान एक बार फिर ठगे जा रहे हैं। ठीक इसी तरह पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण का कोटा बढ़ाने की मांग कर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी चुनावी चाल चल रही हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि यह संविधान संशोधन के बिना संभव नहीं है। ऐसी मांग कर वह एक बार फिर प्रदेश के मुसलमानों को भ्रमित करना चाह रही है। मगर मुसलमानों को सचेत रहने की जरूरत है। किसी झांसे में आने की जगह उन्हें आगामी चुनाव में अपने मतों का प्रयोग सोच समझ कर करना चाहिए,ताकि ऐसी सरकार यहां बने जो उनके हितों का ख्याल रखे।

HE BAHMAN...:

CHAURAHA:

CHAURAHA

CHAURAHA

Thursday, December 22, 2011

सत्ता के उन्माद में फला-फूला भ्रष्टाचार

बीमारू प्रदेश की सूची में शामिल उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने का नारा भी कभी उछाला गया था। राजनीतिक दलों ने इस नारे केआधार पर जनता को गोलबंद करने का प्रयास  किया। अविकास और पिछड़ेपन से परेशान देश की सबसे बड़ी आबादी वाले इस प्रदेश में तब बदलाव और विकास की छटपटाहट देखी गयी। मगर जातीय राजनीति के भड़काऊ नारे में सब कुछ उलझ कर रह गया। दलित चेतना के उभार के बाद सर्वजन के लुभावने नारे के साथ बहुमत की सरकार बनाने वाली माया सरकार से प्रारंभिक दिनों में उम्मीदें तो जगी मगर सत्ता रूपी हाथी की मदमस्त चाल ने शुरुआती दिनों से ही जनता की उम्मीदों और भरोसे को कुचलना शुरू कर दिया। घोटालों और वित्तीय अनियमितताओं के भंवर में विकास के सपने दम तोडऩे लगे। तब सत्ता के उन्माद में ही भ्रष्टïाचार फलने-फूलने लगा जो अब चुनावी मौके पर सरकार के गले की हड्ïडी बन गया है,जिसे निगलना या उगलना मुख्यमंत्री मायावती के लिए आसान नहीं है।
ऐसे में यही कहा जा सकता है कि सत्ता के गुरूर में उत्तर प्रदेश की चिंता न तो जनता के भरोसे को जीत कर सत्तासीन हुई बसपा प्रमुख मायावती को रही और न ही उनके हुक्मरानों को। जनता को इसका अहसास थोड़े दिन बाद ही हो गया मगर जनता के वोट से चुने गये नेताओं पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। सत्ता से बेदखल हुई मुख्य प्रतिपक्षी दल की भूमिका निबाह रही सपा जनता के इन्हीं सवालों को लेकर जब सड़कों पर उतरी तो उसे कोरा राजनीति बताते हुए कुचलने का प्रयास किया गया। मगर राजनीति के इस धींगामुश्ती में प्रदेश हर क्षेत्र में लगातार पिछड़ता चला गया। उत्तर प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचारमुक्त शासन के दावे की कलई नियंत्रक महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में ही परत दर परत खुल गयी थी। बाद के दिनों में भ्रष्टïाचार के किस्से सरेआम हुए तो लोकायुक्त और कोर्ट की सक्रियता भी सामने आयीं। शुरू में ही सीएजी का आरोप था कि मायावती सरकार ने भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किए है जिससे कि राजस्व हानि पर अंकुश लगाया जा सके। इसके साथ ही तब सीएजी ने सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर भी उंगली उठाई थी। दरअसल तब चेतने का समय था। मगर राजनीति के भूलभुलैया में सीएजी की रिपोर्ट और उसके जरिए उठाये गए मुद्ïदों को दबा दिया गया।  सीएजी ने मुख्यमंत्री के चहेते स्मारक स्थलों के खर्च में अनियमितता से सरकारी खजाने को करोड़ों रुपये की चपत लगने का भी खुलासा किया था। बाद के दिनों में उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसे स्मारकों और पार्कों पर की गयी फिजूलखर्जी पर टिप्पणी की थी।
विपक्षी राजनीतिक दलों ने सीएजी की रिपोर्ट पर मुहर लगाते हुए कहा था कि इस रिपोर्ट ने प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचार की पोल खोल दी है। 13 मई 2007 को सूबे में मुख्यमंत्री मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। सरकार ने दावा किया था कि उत्तर प्रदेश को उनकी सरकार भ्रष्टाचारमुक्त शासन देगी लेकिन बीते साढ़े चार सालों में राज्य में सबसे अधिक भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए हैं और इसी के आधार पर आज यह टिप्पणी भी की जाती है कि मौजूदा सरकार देश की भ्रष्टïतम सरकारों में से एक है। आज बसपा सरकार के लिए भ्रष्टाचार का मुद्ïदा गले की हड्डी बन गया है तो वही विपक्ष के लिए वरदान भी। भ्रष्टाचार की शिकायत के कारण मुख्यमंत्री मायावती को कई मंत्रियों को हटाना पड़ा तो विपक्षी दलों ने इसी मुद्दे को लेकर विधानसभा के विगत के विभिन्न सत्रों में ही नहीं बल्कि सड़कों और अब अपनी चुनावी सभाओं में भी सरकार पर करारा हमले कर रहे हैं।  गौर करे कि तब सीएजी ने अपनी रिपेार्ट में उल्लिखित किया था कि प्रदेश सरकार विभिन्न वित्तीय नियमों और प्रविधियों के पालन में अनियमितताएं बरत रही हैं जिससे वित्तीय घोटाले और गबन की संभावनाएं बढ़ गयी है। तब सरकार ने सीएजी की रिपोर्ट पर सचेत होकर कोई कार्रवाई नहीं की और एक तरह से उसकी मनमानी जारी रही। आज भी सरकार के पास सीएजी द्वारा उठाये गए सैकड़ों मामलों की जांच और कार्रवाई लंबित हैं। इन्हीं लापरवाहियों की वजह से सरकार को वित्तीय राजस्व का भारी भरकम नुकसान भी उठाना पड़ा और उसके कई मंत्रियों को कार्यकाल के बीच में ही पदच्यूत होना पड़ा है।  वित्तीय वर्ष 2009-10 के दौरान सरकार ने 18 फीसदी अधिक राजस्व पारित किया था, सीएजी ने सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर उंगली उठाते हुए कहा था कि निर्धारित खर्चें में से 168216 करोड़ रुपए अधिक खर्च किए गये। साल के अंतिम माह में बजट का अधिक खर्च किए जाने को सीएजी ने वित्तीय प्रबंधन में गंभीर खामी करार दिया था। सीएजी ने सरकार से कहा था कि वह सभी महकमों के बजट की प्रक्रिया को तथा अपने अनुत्पादक व्ययों में कटौती कर अपने व्यय पैटर्न को सुदढ़ करें। मगर सरकार को इसकी सुधि कहां रही।
सीएजी ने कई सरकारी विभागों में खामियां पाई थीं।  पशुपालन विभाग की अनेक खामियां उजागर भी की थीं।  सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह था कि विभाग का पशु जैविय औषधि संस्थान बिना लाइसेंस के संचालित हो रहा था जो अपराध है। दूसरी ओर पशु चिकित्सा अधिकारियों तथा पशुधन प्रसार अधिकारियों की कमी के कारण 77 पशु चिकित्सालय और पशु सेवा केंद्र संचालित नहीं  पाए गए थे जिनके बजट का कुल व्यय का 44 से 83 प्रतिशत वित्तीय वर्ष के अंतिम माह मार्च में खर्च किए गये थे। इसके अलावा भारत सरकार से मिली संपूर्ण धनराशि राज्य सरकार ने अवमुक्त भी नहीं की थी। 9.05 करोड़ रुपये खातों में अनियमिति रूप से रखे गये थे। सीएजी के अनुसार लोक निर्माण विभाग का आंतरिक नियंत्रण कमजोर था। सड़कों के चौड़ीकरण एवं सुदृढ़ीकरण पर 68.63 करोड़ रुपये बेवजह खर्च किए गये थे। राज्य सड़क निधि का संचालन न होने के कारण 998.41 करोड़ रुपये अप्रैल 2005 से अप्रयुक्त पड़ा था। आवासीय, गैर आवासी भवनों की मरम्मत पर 9.27 करोड़ रुपये का अनियमित व्यय किया गया था, जबकि स्वीकृतियों के अधीन न आने वाले मदों पर 11.15 करोड़ रुपए का व्यय किया गया था। कंप्यूटराइज्ड डेटा बैंक तथा प्रबंधन सूचना प्रणाली के अभाव में सड़कों का चयन संदेहास्पद था। रिपोर्ट में कहा गया था कि नगरीय स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के नाम पर अधिकारियों द्वारा मनमानी की गई है। यहां तक कि पांच ट्रामा सेंटरों के बनने से पहले ही इसके उपकरण क्रय कर लिए गये थे। एंटी रेबीज टीकों की खरीद में क्रय नीति का पालन न करने से 3.60 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भुगतान हुआ था। 2007-09 के बीच सात नवसृजित जिलों औरैया, बागपत, बलरामपुर, कौशांबी, संत कबीरनगर, संत रविदास नगर और श्रावस्ती में सौ शैया वाले अस्पतालों के निर्माण का निर्णय लिया गया था लेकिन नवंबर 2010 तक इनके 15 से लेकर 65  प्रतिशत तक कार्य अपूर्ण थे जबकि कार्यदायी संस्था को इस बाबत 88.55 करोड़ रुपये जारी किये जा चुके थे।  इसी तरह सात जिलों में चीरघरों के निर्माण की तिथि निर्धारित किए बिना ही 1.03 करोड़ रुपये की स्वीकृति प्रदान कर दी गयी थी इनमें औरैया, कुशीनगर और संत कबीरनगर में भूमि विवाद के कारण निर्माण कार्य प्रारंभ नहीं हुआ था तथा बाल एवं क्षय रोग चिकित्सालयों के निर्माण में भूमि सुनिश्चित किए बिना ही लखनऊ और गोरखपुर में कार्यदायी संस्था के निजी खाते क्रमश:12 करोड़ और पांच करोड़ रुपये डाल दिए गये थे जो दो साल से अधिक समय तक अनुप्रयुक्त रही।
सीएजी की रिपोर्ट  आने के बाद एकबार फिर मायावती सरकार पर विपक्ष ने हमले तेज किए। सीएजी रिपोर्ट के आधार पर माया सरकार को घेरते हुए तब भाजपा विधान परिषद सदस्य हृदय नारायण दीक्षित ने कहा था कि एक तरह से सीएजी ने विपक्ष द्वारा लगाए गये बसपा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों की पुष्टि कर दी हैं। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह यादव ने भी कहा था कि सीएजी रिपोर्ट से उत्तर प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचार की पोल खुल गई है। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है जो भ्रष्टïाचार से अछूता हो। अब यह देखना होगा कि विपक्षी दल भ्रष्टïाचार के इस मुद्ïदे को किस हद तक चुनावी धार दे पाते है।

Wednesday, December 21, 2011

सर्वजन हिताय की सरकार में गरीबों की हकमारी

उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा के आम चुनाव वैसे तो हमेशा ही पूरे देश के लिए उत्सुकता का विषय बने रहते हैं परंतु इस बार खासतौर पर पूरे देश की नजर टिकी हुई है। इसके कई कारण हैं। विगत चुनाव यानी 2007 में  बहुजन समाज पार्टी अपने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी तथा इन दिनों अकेले दम पर अपना कार्यकाल पूरा कर रही है। लिहाजा देश की नजर इस बात पर है कि बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की बात करने वाली बसपा तथा उसकी नेता एवं प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अपने उपरोक्त नारों पर अमल कर पाने में कहां तक खरी उतर पाई हैं। दूसरी ओर यह भी देखने की बात है कि बहुजन हिताय की बात करते-करते सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय का नारा उछालने का उन्हें लाभ हुआ है या नुकसान। दरअसल इसका आकलन भी चुनाव परिणाम आने के बाद ही होगा।
नायाब सोशल इंजीनियरिंग की चुनावी सफलता के बाद सत्ता में सवर्णों की हिस्सेदारी का ढोल पिटा गया। यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि वाकई यह सर्वजन हिताय की सरकार है। मगर जिस तरह से सरकारी योजनाओं में लूट-खसोट हुई है, उससे निश्चित तौर पर गरीबों और जरूरतमंदों की हकमारी हुई है। मनरेगा मेंं बरती गयी अनियमितता या फिर एनआरएचएम के सैकड़ों करोड़ की राशि की लूट-खसोट शासन के तमाम दावे की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। बुंदेलखंड पैकेज की भारी भरकम राशि की बंदरबांट को लेकर भी सरकार की किरकिरी होती रही है। वहां के सैकड़ों किसानों द्वारा की गई आत्महत्याएं और उनके परिजनों की बदहाली की भले ही राष्टï्रीय स्तर पर चर्चा होती रही हो, मगर प्रदेश की मुख्यमंत्री अमूमन इन सब बातों से अनजान बनी रहीं।
सत्ता के बदले समीकरण में मायावती शुरुआत में जितनी ताकतवर बन कर उभरी,कार्यकाल का अन्त आते-आते उतनी ही कमजोर साबित होने लगी। एक-एक कर मंत्रिमंडल की एक चौथाई से ज्यादा मंत्री भ्रष्टïचार के आरोपों में घिरते गये और लोकायुक्त तथा कोर्ट के आदेशों के बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाता रहा। मुख्यमंत्री के करीबी और मंत्रिपरिषद में दूसरे नम्बर पर गिने जाने वाले बाबू सिंह कुशवाहा से लेकर नसीमुद्ïदीन सिद्ïदीकी तक भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिरे और इससे न केवल सत्ता संरक्षित भ्रष्टïाचार का खुलासा हुआ बल्कि स्वयं सत्ता के शीर्ष पर बैठी मुख्यमंत्री भी आरोपों के घेरे में आईं। विपक्ष का वार लगातार जारी रहा। कांग्रेस,भाजपा और सपा का सीधा सा आरोप रहा कि कि मुख्यमंत्री के संरक्षण में ही करोड़ों के घोटाले होते रहे और वह मूकदर्शक बनी रहीं।
मायावती के बरअक्स प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का भ्रष्टïाचार के बाबत तर्क थोड़ी देर के लिए ग्राह्यï भी है कि गठबंधन की मजबूरियों की वजह से उन्हें अपने कथित भ्रष्टïाचारी मंत्रियों पर कार्रवाई करने में देरी हुई। मगर मायावती तो एकल और पूर्ण बहुमत की सरकार की मुखिया हैं। इनके साथ ऐसी कौन सी मजबूरी रही कि सैकड़ों-हजारों करोड़ की लूट होती रही और वह मूक बनी रहीं। इस बाबत उनका यह तर्क भी स्वीकारने लायक नहीं है कि ज्यों ही उन्हें अपने मंत्रियों के भ्रष्टïाचार की जानकारी मिलीं, उन्हें मंत्रिमंडल से निकाल बाहर किया।
यह एक यक्ष सवाल है। बहुमत के गुमान में तानाशाही प्रवृति का पनपना संभव है। मगर यह भी एक हकीकत है कि सत्ता का पट्ट जनता सिर्फ पांच वर्षों के लिए ही देती है। पांच साल बाद जनता फिर हिसाब भी लेती है। जनता के पास भले ही कैग और सीएजी जैसी कोई अडिटिंग सिस्टम नहीं है या फिर आईबी, सीबीआई जैसी कोई जांच एजेंसी भी नहीं है, मगर उसकी नजरों से बचना आसान नहीं है। विपक्ष केआरोपों और मीडिया की टिप्पणियों को झूठला भी दें तो जनता को धोखा देना आसान नहीं है। आमतौर पर राजनेताओं को यह भ्रम होता है कि जनता तो बेचारी और विवश है,चुनाव के मौके पर उसे झांसा देकर बच जायेंगे। मगर जनता को बेवकूफ समझने वालों की सत्ता खिसकते भी देर नहीं लगती है। दरअसल भ्रष्टïचार से सर्वाधिक प्रभावित वह गरीब,बेबस जनता ही होती है जो चुनाव के मौके पर मतदाता की पहचान पाती है और जिसके सामने सत्ता के दावेदार हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते हैं। शहरों में उगी आलीशान कोठियां,चमचमाती गाडिय़ां, मंत्रियों और राजनेताओं के ठाट-बाट,रियल एस्टेट और सैकड़ों फर्जी कम्पनियों में हजारों करोड़ के निवेश आम जनता और गरीबों की हकमारी करके ही संभव हैं। ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि जनता इन सब बातों से अनजान हैं। फर्श से अर्श तक के राजनेताओं की सफर की कहानियों से जनता आजीज आ चुकी हैं।
इस बार यूपी की जनता भी तमाम राजनीतिक समीकरणों और जोड़-तोड़ के बावजूद हालात बदलने को बेताब दिख रही हैं। सत्तारूढ़ बसपा पिछली बार की अपनी सोशल इंजीनियरिंग को इस बार भी कारगर हथियार बनाने की फिराक में है। ब्राह्मïण और दलित सम्मेलन के बाद क्षत्रिय,वैश्य और अल्पसंख्यक सम्मेलन का आयोजन इसी जुगत में रहा। मगर एक बात बसपा प्रमुख को भी गांठ बांध लेनी चाहिए कि मतदाताओं को बार-बार थोथे नारे और आश्वासनों से छला नहीं जा सकता है। हालांकि तीन तीन बार भाजपा से मिलकर सरकार बनाने वाली मायावती ने मुसलमानों को खुद से कब का दूर कर लिया था। फिर भी अब उन्हें मुसलमानों की चिन्ता सता रही हैं। विगत चुनाव में वोटों के नए समीकरण के तहत दलितों के साथ सवर्ण जुड़े तो एक ऐसा ठोस वोट बैंक बन गया जिसके बल पर बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गयी। मगर यहां एक बात बसपा भूल रही है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। जो गैर दलित वोट पिछले चुनाव में बसपा को मिला था वह सपा के कथित जंगल राज से तंग आकर ऐंटी इन्कम्बैंसी फैक्टर की वजह से था। यह इधर उधर होने वाला वोट किसी एक पार्टी या नेता के साथ चिपका नहीं रहता बल्कि हवा का रूख देखकर चुनाव के ऐन मौके पर ही फैसला करता है। प्रदेश में कानून व्यवस्था के नाम पर जंगलराज सपा के अंतिम दौर से भी अधिक कायम हो जाने, नरेगा और केंद्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं में व्यापक भ्रष्टाचार होने, थाने नीलाम होने, खुद बसपा मंत्रियों और विधायकों के गंभीर आरोपों में फसने, जनता की गाढ़ी कमाई के अरबों रुपये पार्कों और स्मारकों पर खर्च करने, किसानों की खेती की जमीन औने-पौने दामों में जबरन अधिग्रहित करने, अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों में मोटी कमाई करने, पुलिस द्वारा फर्जी एनकाउंटरों में यूपी के सबसे अधिक बेकसूरों के मारे जाने के मानव अधिकार आयोग के गंभीर आंकड़ों आदि के बाद बसपा को सत्ता में एक बार फिर लौटने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिये।



बसपा को भारी पड़ेगा दलितों में बिखराव और ब्राह्मïणों का बिदकना


ब्राह्मणों का एक बड़ा तबका बसपा से बिदक चुका है। बसपा प्रमुख मायावती भी फिलवक्त दलितों और ब्राह्मणों को लेकर पसोपेश की स्थिति में हैं। वह विचलित हैं कि 66 खानों में बंटे दलित जहां बिखर रहे हैं वहीं ब्राह्मण समाज भी बसपा का साथ छोड़कर अपना नया ठिकाना तलाश रहा है। यह हकीकत है कि ब्राह्मणों का बसपा से मोहभंग हो गया है। ब्राह्मणों के साथ ही बसपा को विगत चुनाव में साथ देने वाले अन्य सवर्ण जातियां भी अपने को छली-ठगी हुई सी महसूस कर रही हैं। मायावती की ओर से सामाजिक भाईचारे के नाम पर पिछले महीने आयोजित ब्राह्मïण सम्मेलन हो या 18 दिसम्बर को आयोजित वैश्य,क्षत्रिय और मुस्लिम सम्मेलन, इनमें जुटी भीड़ में दलित ही हाबी रहें। यही नहीं अब दलितों का एक बड़ा वर्ग भी बसपा से मुंह मोड़ रहा है। इसकी वजह बसपा के कार्यकर्ताओं और विधायकों के बीच बढ़ती दूरी है। हालत यह है विधायक अपनी जाति के खोल से बाहर नहीं निकल पर रहे हैं और इसको लेकर बसपा के कार्यकर्ता भी अब अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं। गैरबिरादरी के बसपा कार्यकर्ताओं के साथ क्षेत्रीय विधायक आमतौर पर टरकाऊ रवैया अपनाये रहते हैं।
मायावती ने अपनी पार्टी में सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला लागू करके वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल की थी। इससे पहले मायावती सिर्फ अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग की नेता थीं और अगड़ी जाति के लोगों और पार्टियों को वह मनुवादी कहती थीं। उनके तिलक, तराज़ू और तलवार... जैसे तीखे नारे बसपा के बैनरों पर लिखे और सभाओं में गूंजते सुनाई पड़ते थे। अपनी तीखी आलोचना के कारण ही वह अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग में बेहद लोकप्रिय हो गई थीं। वर्ष 1995, 1997 और 2002 में भाजपा और सपा के साथ चुनाव के बाद के गठबंधन में उन्हें मुख्यमंत्री बनने के तीन बार अवसर मिले। मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती को महसूस हुआ कि जब तक सर्वसमाज के लोगों की भागीदारी उनकी पार्टी में नहीं होगी तब तक उन्हें अकेले दम पर सरकार बनाने वाला पूर्ण बहुमत नहीं मिल सकता। एक सत्य यह भी था कि सत्ता में बैठे अधिकारीगण भी सर्वजातियों से थे, इसलिए उनकी योजनाओं के कार्यान्वयन में अगड़ी जाति के कई अधिकारी बाधक बन जाते थे। इस पर मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला लागू किया और अगड़ी जाति के लोगों को पार्टी में प्रवेश के साथ महत्व देना भी शुरू किया। इस फार्मूले को लागू करने में उन्होंने नीचे से लेकर ऊपर तक फेरबदल करके पार्टी का विस्तार किया और पार्टी का चेहरा ऐसा बनाया कि सबको दिखाई दे कि बहुजन समाज पार्टी में सही मायने में सर्वसमाज प्रतिष्ठापित है। बसपा सुप्रीमो ने इसी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के तहत पार्टी में मुसलमानों को भी तरजीह देने की कोशिश की। 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से सबसे ज़्यादा 20 ब्राह्मणों को प्रत्याशी बनाया गया था, 14 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी खड़े किए गए थे, प्रदेश की 80 में से 17 सीटें संवैधानिक व्यवस्था के तहत पहले से ही अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए सुरक्षित थीं। बसपा ने छह महिलाओं को भी लोकसभा चुनाव में उतारा था। सभी राजनीतिक दलों ने सभी जाति और वर्ग के लोगों के लिए अपनी पार्टी के दरवाजे खोल रखे थे। हालांकि कांग्रेस को ब्राह्मण समाज, वाल्मीकि समाज, आंशिक रूप से मुस्लिम और क्षत्रिय समाज की पार्टी माना जाता रहा है। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी को वैश्य समाज, कट्टर हिंदूवादी मानसिकता वाले समाज, आदिवासी समाज,  समतावादी पार्टी बसपा को अनुसूचित वर्ग की पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल को जाट समाज की पार्टी, समाजवादी पार्टी को यादव और मुस्लिम समाज की पार्टी माना जाता रहा है। 2007 के विधान सभा चुनाव के मद्ïदेनजर सर्व समाज को जोडऩे की राजनीतिक दृष्टि से मायावती की एक सार्थक पहल थी। इसका पूरे प्रदेश में सर्वत्र स्वागत हुआ और 2007 के चुनाव में जो परिणाम सामने आए उसने बहुजन समाज पार्टी को विधानसभा में पूर्ण बहुमत दे दिया था। बहुजन समाज पार्टी में लागू हुए सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले का नुकसान कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी को उठाना पड़ा था। भारी संख्या में ब्राह्मण, मुसलमान और पिछड़े वर्ग के लोग जो कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी से जुड़े हुए थे, टूटकर बहुजन समाज पार्टी में चले गए थे। मगर, इन सबके बावजूद बहुजन समाज पार्टी के ऊपरी ढांचा में ही बदलाव दिखा, संगठन में आंतरिक रूप से अनुसूचित जाति के लोगों का ही दखल कायम रहा है। सर्व समाज के नाम पर सवर्णों को पार्टी और सरकार में दिए गये महत्व सेे पार्टी से जुड़े पिछड़े, दलितों  में काफी समय तक असंतोष भी फैला रहा। कई बार उनकी यह पीड़ा पार्टी सुप्रीमो तक पहुंचाई गई पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
अब उत्तर प्रदेश का किला फतह करने के लिए 125 वर्ष पुरानी कांग्रेस ने अपने युवराज राहुल गांधी को चुनाव मैदान में उतारा है। श्री गांधी उत्तर प्रदेश में कई दौर के जनसम्पर्क अभियान चला चुके हैं। पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों के प्रति उनकी सहानुभूति से मायावती परेशान है। मायावती को यह अच्छी तरह से मालूम है कि उनकी असली चुनावी जंग यहां कांग्रेस से नहीं बल्कि सपा से होने वाली है, इसके बावजूद वह राहुल गांधी से जुबानी जंग कर लड़ाई को छोटे दायरे में समेटने की बार-बार कोशिश करती रही हैं। कांग्रेस से मायावती को एक भय जरूर सता रहा है कि कहीं कांग्रेस उनके दलित वोट बैंक में सेंधमारी न कर लें। इसके पीछे वजह राहुल गांधी के अभियान के साथ ही अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा.पी.एल.पुनिया के उत्तर प्रदेश में किए गए प्रयास को भी बताया जा रहा है। दूसरी ओर प्रदेश के कतिपय प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवारों के हाल ही में कांग्रेस के साथ फिर से खड़े होने की सूचना भी बसपा सुप्रीमो के लिए परेशानी का सबब है।  इटावा, एटा, मैनपुरी, फतेहपुर और कानपुर देहात ब्राह्मणों की पट्टी के रूप में जाना जाता है। कांग्रेस अब कन्नौज को केंद्र में रखकर ब्राह्मणों को नए सिरे से जोडऩे की मुहिम चलाने जा रही है। कांग्रेस अगर इसमें सफल रहती है तो इसका सीधा नुकसान बसपा को ही होगा।
बताया जाता है कि बसपा में सतीश मिश्र की भी अब स्थिति पहले जैसी नहीं रही। कुछ समय पहले मायावती ने दलितों को संदेश देने के लिए सतीश मिश्र को हाशिये पर धकेला था। पिछले महीने हुए ब्राह्मïण समाज के सम्मेलन में एक बार फिर श्री मिश्र को सक्रिय किया गया। इस सम्मेलन में मायावती ने सतीश मिश्रा और उनके परिवार को सर्वाधिक महत्व दिये जाने पर अपनी लम्बी-चौड़ी सफाई भी पेश की थी। जानकारों की मानें तो सतीश मिश्रा और उनके परिजनोंं को अन्य ब्राह्मण नेताओं को दरकिनार कर महत्व दिये जाने को लेकर ब्राह्मïणों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। भाजपा ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है। भाजपा के कथित आरोप के अनुसार विभिन्न फर्जी कम्पनियों में निवेशित दस हजार करोड़ से ज्यादा के काले धन में सतीश मिश्रा के परिजन भी हिस्सेदार हैं।
कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग में जुटे एक नेता का कहना है कि आजादी से काफी पहले से प्रदेश के ढाई सौ से अधिक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार जो कांग्रेस से जुड़े हुए थे और किन्हीं कारणों से उन्होंने पार्टी से मुंह मोड़ लिया था अब फिर से कांग्रेस के साथ जुड़ रहे हैं। बुंदेलखंड, रुहेलखंड, अवध और पूर्वांचल में यही ब्राह्मण बिरादरी कभी कांग्रेस की रीढ़ रही थी। अन्य कई विश्लेषकों का भी मानना है कि इस बार प्रदेश में समीकरण बदलते नजर आ रहे हैं। विधानसभा चुनाव का ऊंट किस करवट बैठेगा यह बहुत कुछ बदले हालात और जातीय समीकरण पर ही निर्भर करेगा। वैसे बसपा को पटखनी देने में जुटी सपा भी यादवों और मुसलमानों के साथ ही अन्य पिछड़े वर्ग के वोटरोंं को भी गोलबंद करने में लगी हुई हैं। ऐसे में दलितों में बिखराव और ब्राह्मणों का बिदकना बसपा के लिए  भारी पड़ सकता है।