Monday, January 16, 2012

जातिवाद चुनावी राजनीति की तल्ख सच्चाई


जातिवाद चुनावी राजनीति की एक तल्ख सच्चाई है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता है। अगर कहीं इसका विरोध दिखता भी है तो वह महज दिखावे के लिए ही होता है। खास कर चुनावी राजनीति में अनिवार्य रूप से स्वीकार ली गई इस हकीकत के राजनीतिक निहितार्थ भी है। तोहमत कांग्रेस पर लगता है। माना जाता है कि वोटबैंक की राजनीति उसने ही शुरू की। फिर बाद के दिनों में अन्य मध्यवर्ती एवं मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी इस परिपाटी को अंगीकार कर लिया। दरअसल मुद्ïदाविहीन राजनीति की कोख से ही जातिवादी राजनीति का जन्म हुई। रोटी और बेटी जात को के जुमले में फंसे समाज को बड़ी आसानी से यह समझा दिया गया कि अब वोट भी गैर को नहीं अपनों को दो। यहां अपनों का सीधा सा मतलब अपनी जाति को इंगित करना था। आम लोगों को रास भी आया। जातीय स्वाभिमान के उफान में गोलबंदी पुख्ता होने लगी। राजनीति की भाषा में इसे वोट बैंक की संज्ञा दे दी गई। जाति के नाम पर वोट देने वालों का भले भला हुआ या नहीं मगर लेने वाले सत्ता की मलाई काटने लगे। सत्ता सुख भोगने का यह सबसे आसान जरिया बन गया। जाति की अफीमी नशा हर चुनाव के मौके पर और गहरा जाता है। अनदेखे-अचिन्हे लोग भी जातीय उम्मीदवार के पक्ष में गोलबंद हो जाते हैं।
गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टïाचार और देश,प्रांत व क्षेत्र के विकास की बातें जातिवाद की आंधी में उड़ जाति है। भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्ïदे से भले प्रभावित सभी हो मगर तमाम कयासों के बावजूद चुनाव के मौके पर जातीय लामबंदी इन्हें कहीं दूर पीछे धकेल कर खुद आगे आ जाती है। इसीलिए रोटी-बेटी जाति को वाले जुमले में भी तब्दीली आई है। अब कहा जाने लगा है कि वोट-बेटी जाति को...।  ऐसे में मूल मुद्ïदों का भटकाव जारी है। भ्रष्टïाचार को देशव्यापी मुद्ïदा बनाने का सपना पालने वाली अन्ना टीम भी आज देश में हो रहे पांच राज्योंं के चुनाव के मौके पर खुद को लाचार-विवश महसूस कर रही है। राजनीतिक चालों में पहले ही उलझा दी गयी अन्ना टीम को यह सूझ ही नहीं रहा है कि भ्रष्टïाचार जैसे मुद्ïदों को लेकर चुनाव में वह कैसे माहौल बनाए। यह दीगर है कि टीम अन्ना की इस घोषणा के बाद कि वह भ्रष्टïाचार के मुद्ïदे पर मतदाता जागरण अभियान चलायेंगे से राजनीतिक दलों को परेशानी महसूस हो रही थी। लोकपाल को लेकर जिस तरह से राज्यसभा में राजनेताओं ने अपनी खुन्नस निकाली उससे संभावनाओं की रही-सही कसर भी पूरी हो गयी। यहीं वजह है कि वे केन्द्रीय मुद्ïदे जो आज चुनाव के दौरान मुखर होने चाहिए,पीछे छुट गए हंै।
जिस समय दिल्ली केरामलीला मैदान में अन्ना हजारे भ्रष्टïाचार को केन्द्र में रखकर सशक्त जन लोकपाल की मांग के लिए अनशन कर रहे थे, उसी दौरान देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश में राष्टï्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करीब दस हजार करोड़ के घोटाले का भंडाफोड़ हो रहा था। सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के नाम पर बनी बसपा की बहुमत वाली सरकार के एक-एक कर कई मंत्री इस घोटाले की भेंट चढ़ गए। बाद के दिनों में मनरेगा घोटाले और बुंदेलखंड पैकेज की भारी-भरकम राशि की लूट-खसोट को लेकर भी बसपा सरकार के खिलाफ हाय-तौब्बा मचा। विधान सभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा प्रदेश में एकबारगी ऐसा लगा कि भ्रष्टïाचार ही वह केन्द्रीय मुद्ïदा होगा जिसके आधार पर प्रदेश की जनता अपना फैसला सुनायेगी। शुरूआती दिनों में सरकार भी थरथराई। प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती ने ऑपरेशन क्लीन का आगाज किया। लोकायुक्त की जांच में आरोप प्रमाणित होते ही मंत्रियों की विदाई शुरू हो गयी। आरोपितों और दागियों को चुनाव में उम्मीदवार नहीं बनाने का निर्णय किया गया। अपवादस्वरूप कतिपय खास लोगों को छोड़कर बसपा ने वाकई आरोपितों और दागियों को टिकट नहीं दिया। मगर भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिरी मायावती सरकार और बसपा को सबसे ज्यादा राहत तब मिली जब एनआरएचएम के किंगपिन और बसपा व सरकार से निकाले गए उस पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा ने गले लगा लिया। भाजपा ने ऐसा क्यों किया या इसके पीछे उसकी मंशा क्या थी यह तो अब भी पूरी तरह से साफ नहीं हो पाई है, मगर जो बातें उभर कर सामने आई है उससे इतना स्पष्टï हो गया है कि बाबू सिंह कुशवाहा के जरिए भाजपा पिछड़े मतदाताओं को साधना चाहती है। भाजपा के रणनीतिकारों की यह समझ थी कि बाबू सिंह कुशवाहा भले ही भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिरे हुए हों, अगर उनके आने से भाजपा को पिछड़े वर्ग का वोट मिलता है तो उन्हें साथ रखना चाहिए। जातिगत वोट के लिए यह उस भाजपा की सोच थी जिसके नेता किरिट सोमैया ने बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा में शामिल कराये जाने के थोड़े दिन पहले ही कुशवाहा को भ्रष्टïाचारी बताते हुए कई खुलासे किए थे। जब चाल,चरित्र और चेहरे की बात करने वाली पार्टी की यह हाल है तो इससे साफ हो जाता है कि जातिवाद आज की चुनावी राजनीति की एक अनिवार्य सच्चाई है,जिससे मुंह मोडऩा किसी भी दल के लिए मुश्किल है।






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