Friday, January 13, 2012

राजनीति में आदर्श की कल्पना बेमानी


युद्घ और प्रेम में सबकुछ जायज है। चुनाव एक युद्घ ही है। यह युद्घ केवल कतिपय प्रत्याशियों के बीच ही नहीं बल्कि कई बार दलों,दलों के सिद्घांत और नीतियों के बीच भी होता है। इस युद्घ में जहां लोकतंत्र का वजूद दांव पर होता है वहीं कई बार तो जनता के भरोसा के साथ ही राजनीतिक बिरादरी की विश्वसनीयता और स्वयं राजनीति भी दांव पर होता है। चुनावी विजय के लिए प्रतिद्वंद्वी को नष्ट करने की सीमा तक जाने वाले हमारे राजनीतिक तंत्र से विवेकशीलता, नैतिकता एवं आदर्श की कल्पना बेमानी है। चाल,चेहरे और चरित्र की दुहाई देने वाली अकेले भाजपा की ऐसी दशा नहीं बल्कि कमोबेश सभी दलों की स्थिति ऐसी ही है। दरअसल यह संकट वैचारिक विश्वास का भी है। इसलिए तत्काल भ्रष्टïाचार के प्रतीक स्वरूप बाबू सिंह कुशवाहा एवं बादशाह सिंह प्रकरण को आधार बना कर भाजपा के खिलाफ जितना बड़ा बवंडर खड़ा करने की कोशिश की जाए , यह प्याले में उफान से तूफान का अहसास से आगे कुछ और नहीं है।
बाबू सिंह कुशवाहा द्वारा पत्र लिखकर अपनी सदस्यता स्थगित रखने के अनुरोध की पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की स्वीकृति के बावजूद भाजपा की आंतरिक खलबली पूरी तरह थमी नहीं है। भाजपा युवा मोर्चा के पूर्व अध्यक्ष रामाशीष राय का ताजा आरोप इसका प्रमाण है। जब अंदर ही हलचल नहीं थमी तो दूसरी पार्टियां इस मामले को चुनाव तक गरमाए रखने से क्यों हिचकेंगी। लेकिन क्या यह वाकई इतना बड़ा और वैसा ही मामला था जैसा यह बना रहा। सच कहा जाए तो मीडिया एवं अन्य पार्टियों ने कुशवाहा प्रकरण पर जो बवण्डर पैदा करने की कोशिश की उसकी सीमाएं वर्तमान राजनीतिक परिवेश में प्याले में तूफान से आगे नहीं जा सकती। भाजपा के कुछ केन्द्रीय नेताओं ने भी इस पर सार्वजनिक बयानबाजी करके केवल अपनी खाल बचाने की कवायद भर की। इनमें गोरखपुर के सांसद स्वामी आदित्यनाथ अपवाद हो सकते हैं। लेकिन ज्यादातर के कारण अलग हैं। सतह पर जो तस्वीर बनी थी उसके आधार पर विचार करें तो निष्कर्ष आएगा कि भाजपा ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लिया है।
लेकिन भाजपा के कई चुनावी रणनीतिकारों की नजर में स्थिति ठीक उल्टी थी। पूर्व मंत्री बाबू भाई कुशवाहा एवं बादशाह सिंह को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही एवं वरिष्ठ नेता विनय कटियार ने 3 जनवरी को भाजपा मुख्यालय में बाजाब्ता संवाददाता सम्मेलन में फूलों का गुलदस्ता भेंटकर पार्टी में स्वागत यूं ही नहीं किया। दोनों नेताओं तथा इसके लिए हरि झंडी देने वाले राष्ट्रीय अध्यक्ष नितीन गडकरी को भी कुशवाहा के खिलाफ सीबीआई जांच की जानकारी थी तथा अपनी पार्टी द्वारा उनके विरुद्ध चलाए गए अभियान के तो ये भागीदार ही थे। बावजूद इसके ऐसा किया तो उसके पीछे काफी सोच विचार हुआ होगा। वे चाहते तो बिना हंगामे के जिस तरह बसपा के दो पूर्व मंत्रियों अवधेश वर्मा एवं ददन मिश्र को पार्टी में शामिल कर टिकट दिया वैसा ही इन दोनों के मामले में भी कर सकते थे। वस्तुत: इन दोनों के पार्टी में शामिल होने का भाजपा रणनीतिकार व्यापक प्रचार चाहते थे और इसमें उन्हें सफलता मिली। जरा सोचिए भाजपा के जिन नेताओं ने मीडिया द्वारा इसका विरोध किया उनका चुनावी रणनीति में कितनी भूमिका है। जिनके दबाव पर केन्द्रीय नेताओं की बैठक बुलाई गई उन्होंने इस पर कोई बयान नहीं दिया तथा चुनाव अभियान के प्रभारी मुख्तार अब्बास नकवी ने केवल यह कहा कि हम जिसे पार्टी में शामिल करते हैं उन्हें टिकट ही दे कोई आवश्यक नहीं है। यह प्रश्न तो उठता है कि पार्टी ने जिस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था, जिसे मायावती का वसूली एजेंट कहा था, जिन्हें किरीट सोमैया ने खनन ठेकों में हिस्सा लेने का आरोप लगाया था, वही अब पार्टी के लिए स्वीकार्य कैसे हो गया। निस्संदेह, यह नैतिक प्रश्न भाजपा के सामने सशक्तता से खड़ा है, लेकिन संसदीय जनतंत्र में जिस तरह चुनाव जाति और शक्ति तक सीमित हो रहा है उसमें सत्ता की राजनीति करने वाले दलों के लिए ऐसे नैतिक प्रश्नों की उपादेयता इस समय नि:शेष हो चुकी है। अगर जन प्रतिक्रिया दलों के ऐसे व्यवहार के विरुद्ध होता तभी नेता ऐसा करने से परहेज करते। लेकिन केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं देश भर के चुनावों में जाति और संपन्नता परिणामों के निर्धारक हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री मायावती तथा अन्य कई नेताओं पर ही आय से अधिक संपत्ति को लेकर जांच और मुकदमा चल रहा है। लेकिन वे चुनाव जीतते हैं और राजनीति में प्रभावी हैं। ऐसे अनेक उदारण हैं। तूफान खड़ा करने वाले  भाजपा के केन्द्रीय नेताओं का रवैया भी हास्यास्पद ही माना जाएगा। कहा जा रहा है कि पार्टी की बैठक में सुषमा स्वराज की आवाज कुशवाहा एवं बादशाह सिंह के विरुद्ध ज्यादा मुखर थी और अरुण जेटली का उन्हें समर्थन था। सुखराम जब इनकी पार्टी के सहयोगी बने थे तो उन पर भी आरोप था एवं सीबीआई जांच चल रही थी। जयललिता पर भ्रष्टाचार के आरोप थे एवं वे राजग की हिस्सा थीं। अगर जयललिता नहीं होतीं तो 1998 में वाजपेयी सरकार का गठन ही नहीं होता। 1997 में कल्याण सिंह के 93 सदस्यीय ऐतिहासिक मंत्रिमंडल के चेहरे को कौन भूल सकता है!
केवल भाजपा नहीं, अन्य पार्टियों के संदर्भ में भी ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं। कांग्रेस नेतृत्व वाले संप्रग में द्रमुक नेताओं से लेकर चारा घोटाले के आरोपी लालू प्रसाद यादव हैं। मायावती का सरकार को समर्थन है। अगर कोई पार्टी इस समय अपने साथी चुनने का आधार सदाचार, नैतिकता और सच्चाई को बना ले तो फिर गठबंधन के इस  दौर में न उसकी सरकार बन सकती है, न वह किसी गठबंधन का भाग हो सकता है। इसलिए जाति, संप्रदाय और संपन्नता टिकट देने से लेकर चुनाव प्रचार कार्यक्रम तक में मुख्य विचार का विषय होता है। अकेले भाजपा की ऐसी दशा नहीं, ज्यादातर दलों का आचरण ऐसा ही है। इसलिए विरोधी कुशवाहा एवं बादशाह प्रकरण को जितना बड़ा बनाने की कोशिश करें यह प्याले में उफान से तूफान के अहसास से ज्यादा कुछ नहीं है।



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