Sunday, January 15, 2012

भाजपा का यूपी विजन 2012

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में राष्टरीय पार्टी कहलाने वाली भाजपा विगत लोकसभा चुनाव के बाद चौथे पायदान पर आ गई है। उसे यदि दूसरे या तीसरे नंबर पर भी आना है तो उसके मतों में 9 से 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी चाहिए। अब पार्टी के पास अयोध्या आंदोलन के बाद जन आकर्षण का कोई ऐसा मुद्दा भी नहीं रहा जो उसके वोट प्रतिशत में एकाएक बढ़ोत्तरी कर दे। ऐसे में भाजपा के रणनीतिकारों के समक्ष अन्य पार्टियों की तरह ही नए जातीय समीकरण का संजाल बुनने के साथ ही भोथरे हो चुके मंदिर मुद्दे की जगह बिहार पैटर्न पर विकास को चुनावी नारा बनाने की विवशता है। ऐसे ही कतिपय रणनीतिकारों के प्रयास का हिस्सा है कि उत्तर प्रदेश चुनाव को ध्यान में रखते हुए विजन 2012 में धर्म आधारित राजनीति के इतर विकास को केन्द्रीय मुद्ïदा के रूप में उछाला जा रहा है। राष्टï्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की अगुवाई में 16 जनवरी को भाजपा उत्तर प्रदेश वासियों से न केवल विकास का वायदा करेगी बल्कि दलित और पिछड़ों की गोलबंदी के लिए अल्पसंख्यक आरक्षण की राजनीतिक चाल के काट के लिए रणनीति भी अख्तियार करेगी।
दरअसल भाजपा विजन पेपर 2012 का मूल स्वर यह भी है कि तमाम विवादों और हंगामों के बावजूद अगर बसपा से निकाले गए बाबू सिंह कुशवाहा एवं बादशाह सिंह जैसे दागी लोगों के आने से पार्टी को कल्याण सिंह द्वारा काटे जाने वाले पिछड़े मतों की भरपाई होती है तो पार्टी को उत्तर प्रदेश में बिना किसी का परवाह किए अपने कदम आगे बढ़ाना चाहिए। इसलिए तमाम आरोपों के बावजूद भाजपा नेतृत्व का एक बड़ा वर्ग बाबू  कुशवाहा को प्रदेश चुनाव तक साथ बनाए रखने के मूड में है। एक रणनीति के तहत ही भाजपा ने कुशवाहा के खिलाफ सीबीआई छापे व जांच को अति पिछड़ा वर्ग के उत्पीडऩ से जोड़ दिया है। इसका सीधा सा मतलब है कि कुशवाहा, मौर्य और सैनी समुदायों को लक्षित कर यह बताना कि यह सब उनके खिलाफ कांग्रेस और बसपा की साजिश है। दरअसल यहां भाजपा की चिन्ता के केन्द्र में बसपा नहीं बल्कि कांग्रेस है।
भाजपा रणनीतिकारों का मानना है कि इस प्रकरण को दूसरे नजरिए से भी देखने की आवश्यकता है। देश में एक अत्यंत खतरनाक प्रवृत्ति घर कर रही है। जिसके खिलाफ  सीबीआई, आयकर, प्रवर्तन निदेशालय या पुलिस द्वारा  छापेमारी हुई, जांच चली उसे बस खलनायक बना दिया जाता है। उसका पक्ष कोई सुनने को तैयार नहीं होता। जिस तरह से भाजपा में शामिल किए जाने के बाद कुशवाहा के घरों से लेकर उनसे जुड़े ठिकानों पर छापा मारा गया उस पर प्रश्न उठना लाजिमी है। कभी बाबू ङ्क्षसह कुशवाहा को कांसीराम का टेलीफोन ऑपरेटर भी कहा जाता था। आज यह भले ही उनका अतीत है मगर अब इन बातों का कोई मतलब नहीं है। अभी हाल तकइ मायावाती के खासमखास के रुप में उनकी छवि थी। मायावती ने अन्य मंत्रियों की तरह उन्हें मंत्रिमंडल से बरखास्त नहीं किया। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना में घोटाले का मामला प्रकाश में आने के बाद कुशवाहा का कहना है कि उन्होंने स्वयं त्यागपत्र दिया। दो जिला चिकित्सा अधीक्षकों की मृत्यु ने मामले को संगीन बना दिया। उक्त मामले में जांच और कानूनी कार्रवाई जारी है।  कुछ ही दिनों पहले कुशवाहा ने सरकार के शीर्ष लोगों द्वारा अपनी हत्या की आशंका जताते हुए एक पत्र मायावती को लिखा था। उसके बाद ही मायावती ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। कुशवाहा एनआरएचएम घोटाले में शामिल थे या नहीं, अगर थे तो उनकी सहभागिता कितनी थी आदि का उत्तर आने में अभी समय लगेगा लेकिन सीबीआई जिस चयनात्मक तरीके से जांच कर रही है उससे उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध बनी हुई है। मुकदमा जीतने में सीबीआई का रिकॉर्ड अत्यंत खराब रहा है। हत्या मामलों के उद्ïभेदन तो उसका ट्रैक रिकार्ड और भी खत्म है। मगर इन सबके बावजूद यह भी एक कड़वा सच है कि न तो राजनीति में बाबू सिंह कुशवाहा अकेले हैं और न ही भाजपा ने जो की है वह पहली बार हुई है। वस्तुत: उम्मीवारों के रिकार्ड खंगालने वाली संस्थाएं बता रहीं हैं कि सभी पार्टियों ने भ्रष्टाचार एवं अपराध के आरोपियों को उम्मीदवार बनाए हैं। इनमें बसपा सबसे आगे है। मीडिया एवं आंकड़ों की क्रांति करने वाले एनजीओ के लिए उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि अपने पेशे के लिए जितनी महत्वपूर्ण है उतनी अगर मतदाताओं के लिए होती तो चुनाव परिणाम दूसरे प्रकार के आते। मान लीजिए बाबू सिंह कुशवाहा और बादशाह सिंह महाभ्रष्ट हैं। गांवों के गरीब लोगों के जीवन बचाने के लिए आई राशि को इन्होंने निगला। लेकिन अगर बसपा इनको टिकट दे देती तो क्या जनता इन्हें पूरी तरह नकार देती, ये जीतते या हारते इसका आकलन भले नहीं किया जा सकता किंतु इन्हें मत भारी संख्या में मिलता यह तो तय है। तो फिर ऐसे में एकबारगी किसी के सम्पूर्ण चरित्र का मूल्यांकन किसी एक आरोप या घटना के आधार पर कर लेना और फतवा की तर्ज पर फैसला सुना देना किसी भी दृष्टिï से उचित नहीं कहा जा सकता है। चारा घोटाले में फंसे लालू प्रसाद हाथी पर चढ़कर जेल गए थे। तब वे हजार करोड़ के चारा घोटाले के आरोपी थे। मगर उनकी राजनीति पर रातोरात इसका कोई असर नहीं पड़ा था। 1996 की घटना है। सन 2000 में हुए बिहार विधान सभा चुनाव में उनका दल सफल रहा और राबड़ी देवी एक बार फिर बिहार की मुख्यमंत्री बन गयीं। फिलवक्त वे बिहार की सत्ता से बेदखल जरूर हो गए हैं,मगर ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि उनका जनाधार बिल्कुल समाप्त हो गया है। लालू प्रसाद आज भी बिहार के किसी भी हिस्से में जाकर पांच हजार लोगों की भीड़ जुटाने की कूबत रखते हैं। इसलिए भाजपा के अंदर या बाहर उसकी विगत की कई कार्रवाइयों को लेकर चाहे जितना हंगामा हो, यह सच है कि इस समय कुशवाहा एवं बादशाह दोनों में भाजपा को चुनावी लाभ की संभावना दिखी है और प्रतिद्वंद्वी पार्टियों को भी इसका आभास है।
निश्चित रुप से यह लोकतंत्र के वर्तमान एवं भविष्य को लेकर भयभीत करने वाला प्रसंग है। भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाने वाली पार्टी द्वारा उन आरोपियों को पार्टी में शामिल करना जिनके खिलाफ  उसने आवाज उठाई थी,सामान्य राजनीतिक स्थिति का परिचायक नहीं हो सकता। किंतु भ्रष्टाचार के विरोध में क्या इस सीमा तक जाना उचित है कि नीर-क्षीर विवेक का परित्याग कर लिया जाए। हमारे देश में अब चुनाव केवल सामान्य शह मात के खेल तक सीमित नहीं रहा। हर हाल में जीतने के लिए युद्ध एवं प्यार में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता जैसे वाक्य अब राजनीति की परिधि में भी सिद्घांत के तौर पर उभर आया है। चुनावी विजय के लिए प्रतिद्वंद्वी को हर हाल में परास्त करने और इसके लिए किसी भी सीमा तक जाने वाले हमारे राजनीतिक तंत्र से इससे इत्तर कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए है। अकेले भाजपा की ऐसी दशा नहीं, ज्यादातर दलों या एक तरह से सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

No comments:

Post a Comment