Monday, February 17, 2014

जन सरोकार से विमुख पत्रकारिता


जन-सामान्य पत्रकारिता के नाम पर जो कुछ भी बाहर से देखता-समझता है, वह असलियत नहीं है, वह तो एक ‘सम्मोहन’ है, वास्तविकता इससे परे है। आम तौर पर पत्रकारिता दिशाहीन हो गई है। इसके लिए पत्रकारों को जिम्मेवार ठहराया जाता है। यह ठीक है कि व्यक्ति से समाज प्रभावित होता है। पत्रकार भी इसी समाज का अंग है। समाज का प्रभाव भी उस पर पड़ना स्वाभाविक है। तर्क दिया जा सकता है पत्रकार तो समाज को प्रभावित करने के लिए यानी दिशा देने के लिए होता है, अगर वह प्रभावित हो जाएगा तो फिर समाज का क्या होगा? यह सवाल लाख टके का है। ऐसा तर्क देने वालों का कहना है कि पहले का पत्रकार देता था, लेता नहीं था। वह एक मिशन के तहत काम करता था। समाज और जन सेवा उसका उद्देश्य हुआ करता था। मगर आज की पत्रकारिता उद्देश्यविहीन तथा दिशाहीन इस लिए हो गई है कि पत्रकार समुदाय अपने चरित्र और आदर्श को बचा कर रखने में सक्षम नहीं रह गये हैं। यह समुदाय भी सुविधाभोगी हो गया है। उसे वही दिखता है जो निहित स्वार्थ में वह समाज को दिखाना चाहता है। इसीलिए आज का पत्रकार अपने कार्य और जीवन में पारदर्शिता लाने का पक्षधर नहीं है।
आरोप यह भी लगता है कि आज के अधिकांश पत्रकार रूप-रुपया-रुतबा के दीवाने हैं, जो सहजता और सुगमता से प्राप्य हैं। एक पत्रकार बनने से पूर्व उसके अपने माप और मानदण्ड होते हैं,उसके पास ऐसी आदर्श और नीति होती है,जिसकी सराहना की जा सकती है, किन्तु तथाकथित पत्रकारों के आभामंडल से विस्मित होकर विस्फारित नेत्रों से चकित होकर अथवा यों कहें दिग्भ्रमित होकर वह उन्हीं का अनुयायी बन जाता है, क्योंकि वैसा करके उसे भांति-भांति के भौतिक सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार पत्रकारों का एक समूह तैयार हो जाता है, जो कतिपय लोभ और स्वार्थ में पत्रकारिता का उपयोग करता है। पत्रकारों का एक दूसरा वर्ग भी है,जो पत्रकारिता करने के लिए नहीं, बल्कि नौकरी करने के लिए इस पेषे को आधे-अधूरे मन या बेमन से स्वीकार करता है। एक तरह से विभिन्न क्षेत्रों मे हाथ अजमाने के बाद वह थका-हारा होता है। पत्रकारिता की नीतियों और सिद्धांतों से उसका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं होता है। ऐसे लोग अपनी नौकरी बचाने की चिन्ता में रहते हैं। इसलिए संपादक और प्रबंधक के अक्सर दबाव में रहते है और बड़े आसानी से गैरपत्रकारीय कार्यों में प्रवृत हो जाते हैं। पत्रकारिता के बहाने प्रबंधन को राजस्व उगाही में सहयोग करना, संपादकों और अन्य वरीय सहयोगियों के खुषामद करके उन्हें खुष करना नौकरी बचाए रखने के लिए इनकी मजबूरी होती है। इस श्रेणी के पत्रकार प्रबंधन के इषारे पर जहां स्थानीय थाना से लेकर प्रषासन के आलाधिकारियों की जी-हुजूरी करते फिरतें हैं, वहीं संपादक के लिए रेल टिकट आरक्षित कराने से लेकर उनके हवाई टिकट का इंतजाम भी खुषी-खुषी करते हैं। षासन से मिलीभगत कर संस्थान के बिजली बिल में कटौती कराना, समय पर भुगतान न होने की वजह से कटे हुए टेलीफोन कनेक्षन का पुनस्र्थापित कराना,न्यूज प्रिंट लदे ट्रकों को नो इंट्री जोन में प्रवेष कराना,सरकारी विज्ञापनों के लिए सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के अधिकारियों व कर्मियों से सम्पर्क साधे रखना तथा अन्य नियम प्रतिकूल कार्यों में प्रबंधन को सहयोग करना इस श्रेणी के पत्रकारों की अतिरिक्त योग्यता होती है। अपनी इसी योग्यता से ऐसे पत्रकार प्रबंधन और संपादक के ‘प्रिय’ भी होते हैं।
 मगर यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि आखिर ऐसा क्यों होता है? इसके पहले आपसे हिन्दी पत्रकारिता के सन्दर्भ में अखबार मालिकों की नीतियों और संपादकों के चरित्र पर बातें हो चुकी हैं। यह रोग केवल हिन्दी पत्रकारिता में हो और मीडिया के अन्य स्वरूप इससे अछूता हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के आने के बाद से निर्विवाद रूप से पत्रकारिता में चमक-दमक बढ़ी है। रुपया और रुतबा की दृष्टि से इलेक्ट्राॅनिक मीडिया प्रिंट से काफी आगे निकल चुका है। तिल को ताड़ और ताड़ को तिल बनाने का करिश्मा आप इस मीडिया में आसानी से देख सकते है। विश्वसनीयता के स्तर पर भी पत्रकारों में स्खलन हुआ है। आम ख्याल में प्रिंट मीडिया आज भी इलेक्ट्राॅनिक मीडिया से ज्यादा जवाबदेह और विश्वसनीय है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो आज की यह तल्ख हकीकत है कि जल्दी शोहरत और धन कमाने की लालच में तथ्यों से परे सनसनी फैलाने वाली सूचनाओं को देने में आज के मीडिया को कोई परहेज नहीं है।
अक्सर यह कहा जाता है कि मीडिया को पहले अपने दायित्वों पर ध्यान देना चाहिए। समस्या के केवल एक पहलू पर विचार करने से काम नहीं चलेगा और समसामयिक जीवन के किसी भी पक्ष पर आवेश में आकर विचार करने से कोई लाभ नहीं हो सकता है। समाचारपत्रों या मीडिया के किसी भी स्वरूप की स्वतंत्रता का प्रश्न देश की अन्य समस्याओं से जुदा नहीं है। इसलिए इस प्रश्न को वास्तविक सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। समाचार का अभिप्राय कुछ नए से है, लेकिन अधिकांश पत्रकारों ने सनसनीखेज को ही नयेपन का पर्याय मान लिया है। हमारा यहां अभिप्राय पत्रकारिता के क्षरण के पक्ष में खड़ा होकर तर्क गढ़ना नहीं है, बल्कि उन खामियों को उजागर करना है जिनके कारण से यह सवाल उठता है कि आज की पत्रकारिता और पत्रकार दिशाहीन है।
संवाद और संवाददाता को अलग नहीं किया जा सकता है। हिन्दी फिल्म निर्माताओं की तरह इस तर्क को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि दर्शक जो देखना चाहते हैं वही हम दिखाते है। लेकिन बाजारवाद के बढ़ते दबाव से पत्रकारिता को कैसे बचाया जाय इस पर अभी तक गौर किया ही नहीं गया है। आज की धारणा है कि जो बिके वही खबर है। यानी सूचना कमोडिटी की श्रेणी में शुमार है। स्वाभाविक है कि सस्ती और भड़काऊ सूचनाओं या खबरों को माध्यमों में तरजीह मिलने लगी हैं। इसके कारण पत्रकारीय दायित्व का भी क्षरण होने लगा है। आपसी होड़ और आगे निकलने की प्रतिद्वन्द्विता में स्थिति और बुरी होती चली गई है।

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