Monday, February 17, 2014

विलासी पत्रकारिता का दौर


भारतीय मीडिया परिदृश्य में पत्राकारिता की एक नई धारा उभर कर आई है। इसके लिए और भी बेहतर शब्द संभव हो सकते हैं, लेकिन हम फिलहाल इसे ‘विलासी पत्रकारिता’ यानी (स्नगंतल श्रवनतदंसपेउ) के नाम से ही संबोधित करेंगे। पिछले कुछ वर्षों में यह पत्रकारिता अखबार के व्यापार वाले पन्नों या विशेष विज्ञापन परिशिष्टों के भीतर से रंेगती हुई सामान्य रिपोर्टिंग वाले पन्नों में प्रवेश कर गयी है। मुख्य पृष्ठ पर भी दीख जाती है और इसने किसी तरह खुद को खबरों की श्रेणी में शामिल करवा ही लिया है। यह व्यापार पत्रकारिता कतई नहीं है। जो उभरते हुए बाजारु ब्रांडों व आईपीओ की कवरेज में होने वाले परिवर्तनों की बात करे अथवा आपके पैसों को और उत्पादक बनाने के लिए सीईओ से टिप्स दिलवाये। नहीं यह कोई ऐसी पत्राकारिता है जहां एक रिपोर्टर वित्तीय सलाहकार बन जाए। इसे अमीरों के मूल्यांकन से काफी प्रेम होता है। सीईओ के उच्च वेतन-भत्तों के बारे में बात करना रास आता है। यह नियम से एमबीए छात्रों के संभावित वेतनमान का भी ब्योरा पेश करती है। यह अतिसम्पन्न लोगों की आय,उनके सामाजिक हैसियत को प्रकाशित करती है। इसमें दौलत कैसे पैदा होती है इसकी चिंता नहीं होती बल्कि होता है पैसे का व्यय। मसलन सभी खबरिया संस्थानों ने मुख्य पृष्ठ पर इस खबर को स्थान दिया कि भारत के सबसे अमीर उद्योगपति रिलायंस के मुकेश अंबानी ने अपनी पत्नी को उसकी 44वीं सालगिरह पर 240 करोड़ की एयरबस उपहार में दी या यह कि अमिताभ बच्चन ने अपने बेटे को दो करोड़ की बेन्टले की कार उपहार में दी थी। कर्नाटक के मशहूर उद्योगपति विजय माल्या ने अपने बेटे की 18वीं सालगिरह पर उसे एक नई विमान सेवा ही दे डाली। इसके लिए शादियां एक किस्म के चुबंक का काम करती है। माई बिग फैट वेडिंग जैसे टीवी शो अब इतने आम हो चले है कि एक फार्मूले से कम नहीं लगते और इस पत्रकारिता का उत्साह तब देखते बनता है। धन कूबेर स्टील के बादशाह लक्ष्मी मित्तल की बेटी की शादी होती है जो विवाह के लिए उपयुक्त स्थल न मिल पाने से इतने असंतुष्ट थे कि एक महल ही किराये पर ले डाला और अमेरिका स्थित एनआरआई चटवाल के बेटे के उदयपुर में हुए विवाह की घंटे दर घंटे रिपोर्ट तीन दिनों तक एक टीवी चैनल के प्राइम टाइम पर चलती रही थी। ऐसा नहीं है कि अतिसंपन्न लोग ही विलासी पत्राकारों द्वारा कवर किए जाते हैं। यहीं सम्मान कुछ कम अमीरों को भी मिलता है। संभव है कि छोटे अमीर बेन्टले न खरीद सकते होे लेकिन अपने क्रेडिट कार्ड से या किस्त पर महंगे सामान तो खरीद सकते हैं। आप ‘वाॅट्स हाॅट,वाॅट्स नाॅट’ नाम का कोई भी स्तंभ किसी व्यक्ति के नाम से उठा कर देख लीजिए आपकों जवाब में एक महंगा उत्पाद ही नजर आएगा।
विलासी पत्रकारिता के इस दौर पर क्षोभ व्यक्त करते हुए ग्रामीण पत्रकारिता के सषक्त हस्ताक्षर पी. साईनाथ कहते हैं कि- ‘ हिन्दुस्तान में हर 3 घंटे में 513 बच्चे भुखमरी से मरते हैं, छह किसान आत्महत्या कर लेते हैं, जबकि 40 से ज्यादा किसान आत्महत्या की असफल कोषिष करते हैं और 275 किसान खेती करना छोड़ देते हैं। इन्हीं 3 घंटों में सरकार 175 करोड़ रुपए उद्योग-धंधों को आयात-निर्यात पर कर की छूट देती है, लेकिन यह सब मीडिया को देख कर भी नजर नहीं आता है। लक्मे फैषन वीक या विल्स फैषन वीक को कवर करने के लिए जहां 600 पत्रकार इकट्ठे हो जाते हैं वहीं विदर्भ के किसानों की सुध लेने छह किसान भी नहीं जाते हैं।’ दरअसल यह पेज थ्री की पत्रकारिता की वजह से उत्पन्न संकट है। पत्रकारिता को इस चुनौती को स्वीकार करनी चाहिए।
रैमन मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त पी साईनाथ की तल्ख टिप्पणी है-‘ मैं ऐसा नहीं कहूंगा कि मीडिया में आज समर्पित पत्रकारों की कमी है, लेकिन वह अपने अपने मीडिया हाउसों की व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं के आगे बेबस हैं। मीडिया लीडरषीप के अभाव में जर्नलिज्म आम जनता से कटता जा रहा है। उसके सामने विष्वसनीयता का संकट आ खड़ा हुआ है। पिछले लोकसभा चुनावों में सभी मीडिया हाउसों के चुनाव पूर्व विष्लेषणों का धरा रह जाना इसका सबसे बड़ा सबूत है कि मीडिया जनता की नब्ज पहचानने में कितना नाकाम है।’ इसी के साथ उनका यह भी कहना है कि मीडिया को कारपोरेट घराना प्रभावित कर रहा है। विदर्भ में किसानों की आत्महत्या की खबरों के लिए अखबारों में जगह नहीं है मगर किसी व्यक्ति द्वारा 15 लाख रुपए महज एक मोबाइल नम्बर के लिए उड़ा देने की खबरें पहले पन्ने की बैनर खबर बन जाती है। यह चलन जनता को गुमराह कर रहा है। सच्चाई तो यह है कि आज भी देष के अगड़े ग्रामीण का प्रतिमाह व्यय महज 503 रुपए हैं। इसमें 80 प्रतिषत से अधिक भोजन में व्यय करने के बाद वह षिक्षा पर केवल 17 रुपए और स्वास्थ्य पर मात्र 34 रुपए प्रतिमाह खर्च कर पा रहा है। ऐसे में पिछड़े और भूमिहीन गरीब की तो बात ही मत कीजिए। उसके पास तो स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए पैसा ही नहीं है। मीडिया इन तल्ख हकीकतों को नहीं देख पाता है। इसकी वजह से एक ओर उसका विस्तार तो हो रहा है, मगर विष्वसनीयता घट रही है।

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