Monday, February 17, 2014

मीडिया की विश्वसनीयता और स्वायत्तता



मीडिया की क्षमता, उपादेयता या सफलता बहुत कुछ उसकी विश्वसनीयता पर निर्भर करती है। जन-संवाद या संचार के माध्यमों का स्वामित्व या तो निजी क्षेत्र के पूंजीपतियों के हाथ में है या सरकार के हाथ में। दोनों ही स्वामित्व अपनी सीमाओं में कार्य करते हैं। यद्यपि संविधान में विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता है तथा हर नागरिक को सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। लेकिन इस आदर्श स्थिति को प्राप्त करने के रास्ते उतने आसान नहीं हैं। यद्यपि प्रेस की स्वतंत्राता का उल्लेख अलग से संविधान में नहीं है लेकिन संविधान की धारा 19/1 (अ) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार में शामिल किया गया है। 1951 में इस अधिकार को सीमित करने के लिए केन्द्र सरकार ने एक संशोधन स्वीकार किया तथा 1963 में पुनः संविधान में संशोधन द्वारा इस अधिकार को सीमित किया गया। 1975 में आपातकाल में मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था। 1975 में संविधान के 44 वें संशोधन में नागरिकों के लिए 10 कत्र्तव्यों की व्यवस्था की गई। आपातकाल के पश्चात पुनः मौलिक अधिकारों को बहाल कर दिया गया। 1965 में प्रेस काउंसिल की स्थापना प्रेस की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए की गई।
प्रेस की स्वतंत्रता तथा विश्वसनीयता में सीधा संबंध है। यदि व्यक्ति सत्य तथा तथ्य को कहने के लिए स्वतंत्र है तब उसकी विश्वसनीयता पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। विश्वसनीयता तभी खंडित होती है जब जन साधारण को यह ज्ञात हो कि मीडिया अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र नहीं है या फिर वह जो कुछ भी कह रहा है उसमें उसका स्वार्थ है। अतः वे जो भी कहते है वह या तो पूरा सच नहीं है या आधा सच है। आपात स्थिति में या असाधारण परिस्थिति जैसे युद्ध, महामारी, भुखमरी आदि के समय संचार या संवाद साधनों के ऊपर सेंसरशिप लागू की जाती है तथा उसी समाचार को प्रकाशित किया जाता है जो जनता के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव न डाले। निजी स्वामित्व के साधन तथा सरकारी स्वामित्व के माध्यमों में दृष्टिकोण संबंधी अंतर होने के कारण विश्वसनीयता पर शंका की जाती है।
भारतीय प्रेस निजी स्वामित्व में होने के कारण अधिक स्वतंत्र है। अतः उसकी विश्वसनीयता अधिक आंकी जाती है, लेकिन कभी-कभी स्वतंत्रता का स्तर व्यक्तिगत चरित्र हनन तक पहुंच जाता है तथा पत्रकारिता को एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया जाता है या अपने निहित स्वार्थ में सूचनाओं को छुपाया या तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है। ऐसी स्थिति में तब यह प्रश्न उठता है कि क्या प्रेस जनता का उपयोग अपने हित के लिए कर रहा है या जनता प्रेस का उपयोग अपने हितों के लिए कर रही है। दोनों के बीच विभाजन रेखा खींचना कठिन है फिर भी अशिक्षित जन समुदाय का प्रायः सूचना के स्रोतों पर सीधा अधिकार नहीं होता और सार्वजनिक प्रतिष्ठान तथा शासन सही जानकारी सही समय पर उपलब्ध नहीं कराता है। अतः समाचारों में अटकलबाजी, अनुमान या कल्पना का सहारा लिया जाता है तथा अविश्वसनीय सूचना को विश्वसनीय सूत्रों से प्राप्त समाचार कह कर पाठकों को भ्रम में डाला जाता है। समाचार पत्र अब बड़े व्यवसाय या उद्योग का रूप ले चुके हैं, वे केवल सूचना माध्यम नहीं रह गए हैं। जनमत को प्रभावित करना तथा समाज में परिवर्तन लाने में समाचार पत्रों का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। इस स्थिति में समाचार पत्रों की विश्वसनीयता अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। यदि यहां विश्वसनीयता खंडित होती है तब समाज में अराजकता उत्पन्न हो सकती है क्योंकि समाज परस्पर विश्वास पर ही आधारित है। यदि व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति या व्यवस्था में अविश्वास या अनास्था प्रकट करने लगे तब निराशा के वातावरण में किसी का जीवन सुरक्षित नहीं रह सकता है। समाज में व्यापक हिंसा का मुख्य कारण यह परस्पर अविश्वास ही है। समाचार पत्र समाज में परस्पर विश्वास और आस्था बनाए रखने में सहायक होते हैं तथा उन तत्वों को उजागर करते हैं जो इस विश्वास को खंडित करने में लगे रहते है। अमेरिका के प्रेस के संबंध मंे जेम्स रेस्टन ने लिखा है- ‘मूल प्रश्न विश्वास का है।’ अमेरिका में वर्तमान समस्या इस बात को लेकर है कि यहां जनता में अपने नेता तथा संस्थाओं के प्रति अविश्वास है। व्हाइट हाउस से निकलने वाले बयानों पर अब पहले से अधिक शंका की जाती है। कांग्रेस के प्रति विश्वास भी लड़खड़ाने लगा है। प्रेस में अविश्वास रखना अब राष्ट्रीय व्यंग्य बन गया है। आजकल जनता में परस्पर विश्वास की भावना बहुत कम है।’
डेविड बूरडर’ का कहना है-‘‘ उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलता जो राजनेता, प्रेस या सरकारी अधिकारियों में विश्वास रखता हो जबकि ये तीनों ही व्यवस्था के प्रमुख अंग हैं।’’
कुछ पत्राकारों का कहना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सरकार प्रायः झूठे बयान देती है जबकि पत्रकार जानबूझ कर झूठ नहीं बोलता। अमेरिका में प्रेस के प्रति एक धारणा यह भी है कि ‘एक राजदूत गुणवान व्यक्ति होता है जो विदेशों में अपने देश के लिए झूठ बोलता है जबकि पत्रकार ऐसा अवगुणी प्राणी है जो अपने देश में अपने हितों के लिए झूठ बोलता है।’ अमेरिका में यह प्रश्न आमतौर पर पूछा जाता है-‘कौन सच कहता है? प्रेस या सरकार?
अमेरिका में प्रेस को अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता है। शायद इसीलिए वहां परस्पर अविश्वास की भी स्वतंत्रता है। अमेरिका के समान ही प्रजातंत्रवादी, विकासशील देशों में हालत खराब हो रही है। जनता का विश्वास प्रेस तथा सरकार दोनों पर से उठता जा रहा है। प्रेस अत्यधिक कटु आलोचना करता है जबकि सरकार आंकड़ों की जुगाली करने की आदी है। सरकार की आलोचना करने का एक कारण यह भी है कर्मचारीतंत्र के कार्य करने की गति बहुत धीमी होती है तथा अनेक उबाऊ प्रक्रिया से ओतप्रोत होने के कारण गतिशील नहीं हो पाती है। काम देर से होता है तथा इस देरी को दूर करने के लिए अनुचित तरीके अपनाए जाते हैं। प्रेस जब इस प्रकार की खबरों को उछालता है तब जनता का अविश्वास सरकारी तंत्र पर और बढ़ जाता हैं। वर्तमान माहौल में यही वजह है कि मीडिया की सूचनाओं और प्रकाशित-प्रसारित खबरों पर न्यायपालिका भी संज्ञान लेने लगी है तथा कार्यपालिका पर तीखी टिप्पणियां करने लगी हंै। चाहे वे सेवानिवृत्त कर्मचारियों के सेवानिवृत्ति लाभ न मिलने या मिलने में विलम्ब होने का मामला हो, सड़कों की बदहाली या फिर सरकारी अस्पतालों में आवश्यक सुविधाओं यथा दवाइयां, डाक्टर आदि की अनुपलब्धता के साथ ही सरकारी गोदामों में लाखों टन अनाजों के सड़ने की खबरें हो।
पटना की एक घटना का जिक्र यहां प्रासंगिक है। केन्द्रीय आदर्श कारा बेउर में एक राजनेता ने कैदियों के संग रंगारंग पार्टी आयोजित की। रात भर वहां शराब का दौर चला। नाच-गाने का इंतजाम भी हुआ। जेल अधिकारियों और कर्मियों के सहयोग के बिना यह संभव नहीं था। दूसरे दिन एक समाचार पत्र में इस घटना की खबर छपी। पटना उच्च न्यायालय ने इसे अपने संज्ञान में लिया। इस पर राज्य के अलाधिकारियों को नोटिस दी गयी। कोर्ट में मामले की सुनवाई हुई। न्यायालय ने जेल आईजी को 36 घंटे के अंदर मामले की जांच कर रिपोर्ट कोर्ट में पेश करने को कहा। कोर्ट की इस बाबत टिप्पणी थी-‘अगर अखबार में छपी यह घटना सही है तो वहां के जेल अधिकारियों को एक मिनट भी वहां रहने का अधिकार नहीं है और सरकार को अविलम्ब उन्हें वहां से हटा देना चाहिए।’ यह महज एक उदाहरण है। ऐसी अनेक घटनाएं होती हैं जो अखबारों में छपती हंै। उन पर न्यायालय का ध्यान जाता है। न्यायालय अपने स्तर से कार्रवाई करती है। सरकार द्वारा दी गई सूचनाओं की जगह समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों को जनता ज्यादा सच मानती है। विकास के मामले से लेकर दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या और ऐसी ही अन्य सूचनाओं के मामले में यह स्थिति देखी जाती है। मगर इसके साथ ही प्रेस की जिम्मेवारी भी कही और ज्यादा बढ़ जाती है।
लेकिन इसके साथ ही एक संकट और भी गहराया है। कभी-कभी अखबारों व पत्रिकाओं में इस प्रकार की खबरें/कहानियां व्यक्तिगत लाभ या रंजिश में प्रकाशित होती है, जिसकी निंदा ‘पीत पत्रकारिता’ कह कर की जाती है। इस प्रकार दोनों पर शंका की जाती है तथा दोनों की विश्वसनीयता पर संकट है। कभी-कभी तो जनता यह विश्वास कर लेती है कि प्रेस और सरकार दोनों के बीच कोई गुप्त समझौता है जिसके कारण सही सूचना प्राप्त होना कठिन है। इन्हीं वजहों से आमतौर पर प्रिंट या इलेक्टाªॅनिक माध्यमों पर सरकारी या किसी खास राजनीतिक दल की पक्षधरता का आरोप भी जनता की ओर से लगता रहता है। विश्वास के संकट के कारण ही कुछ समाचार पत्रांे को सरकारी पत्र या सरकार का पिछलग्गू कह कर आलोचना की जाती है और यह आरोप लगाया जाता है कि सरकार कुछ गिने-चुने कृपापात्र पत्रों को अधिक सरकारी विज्ञापन तथा अखबारी कागज या अन्य मदद देती है जिससे वे सरकार की आलोचना करने या जनता को सही सूचना देने से बचने की कोशिश करते हैं।
अमेरिकी पे्रस के संदर्भ में स्टुवर्ट आलसोप का कथन है कि-‘जिस प्रकार प्यासे के लिए पानी का महत्व है उसी प्रकार पत्रकार के लिए सूचना का महत्व है लेकिन जब इस सूचना को देने वाला राजनेता या अधिकारी हो चाहे वह अपना मित्र ही क्यों न हो, तब वास्तविक सूचना प्राप्त करना कठिन हो जाता है।’ अनुभव भी यही कहता है कि सरकारी तंत्र या नौकरशाह एक ओर जहां सूचनाओं को छुपाने में लगे रहते हैं वहीं पत्रकार उन सूचनाओं को हासिल करने के लिए तरह-तरह की जुगत भिड़ाते रहता है। हां, कुछ-एक मामले ऐसे भी हो सकते हैं जब एक पत्रकार भी सरकारी नौकरशाहों या राजनेताओं के साथ मिलीभगत करके सूचनाओं को छुपाने या उसके मूल स्वरूप में छेड़छाड़ करने के खेल में शामिल हो जाता है। इसीलिए इधर के दिनों में अखबारों की खबरों पर भी जनता का अविश्वास बढ़ा है।
निष्पक्ष तथा वस्तुनिष्ठ होना उतना आसान कार्य है भी नहीं क्योंकि वस्तु स्वयं अपनी रिपोर्ट नहीं लिखती उसे समझने और लिखने वाला व्यक्ति होता है और व्यक्ति अपने व्यक्तिगत विचारों से प्रभावित होता है। वह पहले व्यक्ति है बाद में पत्रकार। वह अपनी आंखों से सत्य को देखता है, अतः उसका सत्य, निरपेक्ष सत्य नहीं होता है। निष्पक्ष और निरपेक्ष सत्य को प्रस्तुत करना लगभग असंभव है, अतः थोड़ा बहुत भावनात्मकता का होना स्वाभाविक है। फिर भी रिपोर्ट को तथ्यपरक बनाना संभव है। यदि रिपोर्टर या पत्रकार उसे अपने हित के लिए उपयोग में नहीं लाता। अमेरिका के पत्रकार वारेन के. एगी ने अपनी संपादित पुस्तक ‘मास मीडिया इन फ्री सोसायटी’ में लिखा है कि प्रेस की विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए इन बातों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए-
1. प्रेस को उसी सत्य निष्ठा का परिचय देना चाहिए जिसकी आशा अधिकारियों या राजनेताओं से की जाती है। यह सही है कि संपूर्ण सत्य को खोज लेना आसान नहीं है, अतः पूर्णता की केवल कल्पना ही की जा सकती है। यह भी संभव नहीं है कि हम अधिकारी या राजनेता से पूरी निष्ठा, ईमानदारी, श्रेष्ठता की आशा करें और अपने व्यवहार में इन गुणों पर ध्यान न दें। पत्रकार को भी सत्यनिष्ठ एवं ईमानदार होना चाहिए तथा व्यक्तिगत जीवन को चरित्रहनन के लिए प्रेस में नहीं उछालना चाहिए। केवल जनहित को ध्यान में रखकर ही रिपोर्टिंग करनी चाहिए। रिपोर्ट का परीक्षण अवश्य कर लेना चाहिए।
2. पत्रकार को राजनेता या सरकारी अधिकारी के साथ किसी प्रकार का समझौता या गठबंधन नहीं करना चाहिए, क्योंकि एक-दूसरे के विरुद्ध होने के कारण यह गठबंधन सत्य को छुपा सकता है। निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी भी प्रकार की सांठगांठ विश्वसनीयता के लिए घातक है। दोनों पक्षों के विचारों को स्थान देना चाहिए।
3. रिपोर्ट या संवाद लिखते समय सावधानी बरतनी चाहिए अन्यथा बाद में राजनेता या अधिकारी यह कहते हुए उद्ध्ृत किए जाते हैं कि उनके वक्तव्य को तोड़मोड़ कर प्रकाशित किया गया। इस प्रकार विश्वसनीयता खंडित होती है। संवाद के लिए पर्याप्त प्रमाण होने चाहिए। आजकल प्रेस कांफ्रेंस में ‘प्रिंटेड संवाद’ प्रेस के लिए वितरित किया जाता है। यह निर्विवाद तो रहता है लेकिन इससे पत्रकारिता नष्ट हो जाती है।
4. पत्रकार सम्मेलनों में ‘प्लान्टेड’ सवालों से बचना चाहिए तथा अपनी ओर से नए प्रश्न-प्रतिप्रश्न पूछने चाहिए ताकि कहानी के भीतर की कहानी सामने आ सके। प्रेस सम्मेलनों में प्रायः सरकारी अधिकारी या सार्वजनिक प्रतिष्ठान के मैनेजर अपने विभाग के हित संबंधी जानकारी ही देते हैं तथा अप्रिय जानकारी या सत्य को ओझल कर देते हैं। इस स्थिति से भी विश्वसनीयता नष्ट होती है, क्योंकि जनता को यह ज्ञात है कि सार्वजनिक क्षेत्र कभी भी तस्वीर का दूसरा पहलू प्रस्तुत नहीं करेगा। उपलब्धियों की चर्चा के साथ असफलताओं पर भी प्रकाश डालना चाहिए।
5. बैकग्राउण्ड सामग्री का ज्यों का त्यों उपयोग नहीं करना चाहिए। इस संबंध में कतिपय एहतियात बरतने की जरूरत होती है मसलन, आधारभूत सामग्री में नीति संबंधी बातों की चर्चा होनी चाहिए न कि नीति की, नीति की व्याख्या अधिक होनी चाहिए। आधारभूत सामग्री केवल राष्ट्रीय सुरक्षा या अति गंभीर मामलों में ही स्वीकार करनी चाहिए, आधारभूत सामग्री के संबंध में प्रश्न-प्रतिप्रश्न पूछ कर उनके भीतर छुपी कहानी को निकालना चाहिए। आधारभूत सामग्री प्रसारित करने वाले अधिकारी का नाम देना चाहिए।
निजी स्वामित्व के माध्यमों के लिए ये निर्देश जितने उपयोगी हो सकते ही उतने ही सरकारी माध्यमों के लिए भी ये महत्वपूर्ण हो सकते हंै, मगर सरकारी माध्यमों को इसके अलावा अन्य कई बातों को ध्यान में रखना चाहिए जिससे कि उसकी विश्वसनीयता आम जनता में बनी रहे। सरकारी माध्यमों के लिए यह कहा जाता है कि यदि उसके पास सही जानकारी नहीं है तब चुप रहना ही अधिक उचित है। गलत सूचना या जानकारी देने से बचना चाहिए। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि सत्य को छुपाना चाहिए। कभी-कभी जल्दीबाजी में गलत सूचना दे दी जाती है और बाद में खेद प्रगट किया जाता है। उसे तथ्य को बिना तोड़े-मोड़े देना चाहिए तथा उचित या अनुचित ठहराने का प्रयास स्वयं करने की अपेक्षा जनता को करने देना चाहिए। व्यक्तिगत मामलों को सूचना या समाचार का भाग नहीं बनाना चाहिए। आम आदमी के सामान्य हित की सूचना को ही प्रमुखता देनी चाहिए तथा निष्पक्षता एक ऐसा गुण है जिसकी रक्षा हर स्थिति में होनी चाहिए। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जनहित को सर्वोपरि मानदंड मानना चाहिए।
सरकारी तथा गैर सरकारी माध्यम एक-दूसरे के विरोधी के रूप में कार्य करते हैं, अतः सूचनाओं की जांच होती रहती है। यदि प्रेस या अन्य सरकारी माध्यम लगातार गलती करते हैं या तथ्य को छुपाए रखते हंै तब विश्वसनीयता में कमी होगी, अतः दोनों ही प्रकार के माध्यमों को संतुलन में रखना चाहिए। प्रेस को आलोचना करने का स्वाभाविक अधिकार है क्योंकि सार्वजनिक धन को सरकार व्यय करती है। अतः व्यय से सामाजिक कल्याण हो रहा है या नहीं इसकी निगहबानी प्रेस ही करता है। सरकार की गतिविधियों पर प्रतिपक्षी दल अंकुश रखते है। प्रेस भी प्रतिपक्ष की ही भूमिका निभाता है। लेकिन आलोचना तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए तथा सकारात्मक भी होनी चाहिए। विरोध के नाम पर विरोध या लाभ एठने के लिए पीत पत्रकारिता से विश्वसनीयता घटती है।
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि विश्वसनीयता का सीधा संबंध किसी वस्तु या विचार की स्वीकृति से है। यदि किसी माध्यम की विश्वसनीयता कम है तब उसका प्रभाव भी कम ही होगा तथा समाज में वांछित परिवर्तन संभव नहीं होगा। विज्ञापनों के संबंध मंे यही हो रहा है। प्रायः लोग विज्ञापनों पर विश्वास नहीं करते हैं क्योंकि जैसा गुण या किस्म का विवरण दिया जाता है वैसा वस्तु से प्राप्त नहीं होता। वस्तु की घटिया किस्म को छुपाने के लिए विज्ञापन में सुंदर लड़की द्वारा उस वस्तु की सिफारिश की जाती है या फिर उसके बारे में कोई स्टार या बड़ी हस्ती बताते हैं। मगर वस्तु की घटिया किस्म की क्षतिपूर्ति लड़की का सौंदर्य या स्टार का व्यक्तित्व भी नहीं करता, अतः लम्बे समय के बाद ऐसी वस्तुएं अधिक ग्राहक नहीं जुटा पाती। प्रायः लोग विज्ञापनों की चमक-दमक को मनोरंजन के लिए ही स्वीकार करते हंै और वस्तु खरीदते समय ठोक-बजा कर ही सौदा करते हैं। लोगों को आसानी से मूर्ख नहीं बनाया जा सकता और सदैव ऐसा संभव भी नहीं है। अतः विश्वसनीयता को माध्यम की पहली शर्त मान कर चलना चाहिए। कुछ बड़े घरानांे के समाचार पत्र आज पाठकों को लुभाने के लिए तरह-तरह की इनामी योजनाओं का सहारा लेते हैं। कार, मोटरसाइकिल से लेकर फ्रीज,टी.वी. और न जाने क्या-क्या बांटते हैं। कभी-कभी कीमत में कमी या निःशुल्क वितरण का चारा भी पाठकों के बीच डाला जाता है। इसके बावजूद अखबार की विश्वसनीयता ही पाठकों को सर्वाधिक प्रभावित करती है।
विश्वसनीयता के लिए पहली शर्त है कि माध्यम को स्वतंत्र कार्य करने की सुविधा होनी चाहिए। स्वतंत्रता के बिना विश्वसनीयता को कायम रखना मुश्किल है। यदि तथ्य को किसी उद्देश्य के लिए तोड़ा जाता है तब चाहे सरकारी माध्यम हो या गैर सरकारी माध्यम, विश्वसनीयता को बनाए रखना कठिन होगा। प्रेस की स्वतंत्रता तथा अन्य सरकारी माध्यमों की स्वायत्तता का प्रश्न वर्षों से उठाया जाता रहा है। उसके पीछे यही भावना है कि संवाद सेवा के हितों की रक्षा हो सके तथा कोई संस्था संवाद सेवा का दुरुपयोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए न कर सके।

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