Monday, February 17, 2014

सवाल हमेशा खड़ा रहा है!

आश्चर्यजनक है कि जब निठारी में छोटे-छोटे बच्चों के शोषण, हत्या और निर्मम मानव भक्षण के चित्र टेलीविजन पर दिखाये गये, तो एक त्वरित प्रतिक्रिया समाज में हुई और फिर शांत हो गई। उफ!  अब हम ऐसे समाज में रहते हैं, जहां 70 फीसदी बच्चों का शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण होता है। कहां हैं ये बच्चे? क्या बहुत दूर कहीं? बच्चों की स्थिति के बारे में हम लगातार निश्चित समयांतराल पर कोई न कोई रिपोर्ट पढ़ते या देखते रहते हैं। ऐसे में एक पाठक या एक दर्शक के रूप में हम क्या सोचते है? .................¬?
शायद यहीं कि अच्छा, बच्ची का बलात्कार करके हत्या कर दी गई!! ..................? यह तो होता ही रहता है। और फिर हम अपने काम में जुट जाते हैं। वह काम, जो शायद हमारे जीवन का लक्ष्य तो नहीं ही है। एक अघ्ययन बताता है कि अमेरिका में जब एक बच्चा 18 वर्ष का होता है तब तक वह जनमाध्यमों के जरिये 64000 हत्यायें देख चुका होता है। ऐसे में यदि हम यह मानते हैं कि मीडिया का प्रभाव मन पर पड़ता है, तो सवाल यह है कि 64000 हत्याओं के दृष्य बच्चों के मन का क्या रूप बनाते होंगे? सवाल यह भी है कि यदि समाज में इतनी हत्यायें होती हैं तो क्या मीडिया को उन्हें छिपाने का दायित्व निभाना चाहिए... शायद नहीं। किन्तु क्या मीडिया आज अपराध से जुड़े सवालों को सजगता के साथ न्यायपूर्ण तरीके से पेश कर रहा है? क्या बलात्कार या हत्या से जुड़ी घटनाओं का नाटय रूपान्तरण करना जरूरी है। यदि ऐसा किया जाता रहा तो बालीवुड की फिल्मों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के चरित्र के बीच भेद करने वाली महीन सी दीवार भी टूट नहीं जायेगी।

बच्चे!! कौन बच्चे!! बच्चे वे जीव होते हैं जो वोट नहीं देते हैं इसलिये इनके ऊपर सरकार खर्च करने में रुचि नहीं रखती है। देश की 16 प्रतिशत आबादी 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की है और इतनी बड़ी आबादी के लिये सरकार अपने बजट का कुल जमा 0.88 प्रतिशत (वर्ष 2006-07) ही खर्च करती है। बच्चे ऊंट गाड़ी से जुते हुये हैं जिन पर प्रतिस्पर्धा के कोड़े बरसाये जा रहे हैं ताकि वे बाजार के चरित्र को अच्छे से समझ सकें, खासतौर पर इसके आतंकी चरित्र को। बाजार सिखाता है कि जब तक प्रतिस्पर्धा की भावना पालते हुये लड़ना नहीं सीखोगे तब तक तुम्हारे बचे रहने की कोई संभावना नहीं होगी। क्या आज का मीडिया इसके लिए हमें तैयार नहीं कर रहा है?

आमतौर पर अखबारों में काम करना व्यावसायिक रूप से आखिरी विकल्प रहा है, किन्तु अब यह अतीत की बात है। आज यह क्षेत्र बाजार का सबसे बड़ा खिलाड़ी है जो न केवल सूचनाओं का प्रसारण करता है बल्कि लाभ का भी विस्तार कर रहा है। बहरहाल दो बाते महत्वपूर्ण हैं - पहली तो यह कि इस लाभ का हितग्राही एक खास वर्ग है। ताजा अध्ययन बताते हैं कि बाजार के अनैतिक विस्तार से भारत में 4 करोड़ 37 लाख लोगों को फायदा हुआ है किन्तु दूसरी तरफ 30 करोड़ लोगों के जीवन, आजीविका और कौशल पर आघात हुआ है। अकेले फुटकर बाजार में संगठित बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रवेश के फलस्वरूप चार करोड़ लोगों की आजीविका छिनती नजर आ रही है।

इसी तरह बहुत ही पेचीदा मामला होता जा रहा है विकास का। आजीविका जीवन का अहम आधार है और इसके लिये राजनैतिक-सामाजिक जनसंघर्ष होते रहे हैं। तब जाकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी कानून बना और सरकार-गैर सरकारी संगठन इसके बेहतर क्रियान्वयन में जुट गये। ऐसे में ही आजीविका के सिक्के के दूसरे पक्ष पर किसानी एक जानलेवा सौदा बनती जा रही है। किसानों की आत्महत्या और बढ़ती भुखमरी के मामले एक स्थाई रूप लेते जा रहे हैं। यदि ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना और कृषि की स्थिति को ध्यान में रखें तो पता चलता है कि अलग-अलग स्तरों पर दोनों विषयों पर चर्चा चल रही है परन्तु दोनों के बीच परस्पर संबंध स्थापित नहीं हो पाये हैं। और यही परस्पर संबंध आज की सबसे बड़ी आर्थिक राजनीति को स्पष्ट करते हैं। रोजगार गारन्टी कानून तो स्पष्ट रूप से देश की बड़ी आबादी को मजदूर का दर्जा दे चुका है और कृषि क्षेत्र के बर्बाद हालात पर पर्दा डालने का जरिया यह कानून बनता जा रहा है। यह एक कड़वा सच है कि हम रोजगार और आजीविका के बीच के अंतर को मिटाने पर तुले हुये हैं। किसानों का मजदूर बनते जाना खतरनाक है और इस मसले पर मौन तोड़ना बहुत जरूरी है। मगर मीडिया में इसके लिए कोई स्पेष नहीं है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में अब शायद ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता है जिस दिन कोई सरकारी योजना की शुरुआत या समाप्ति न होती हो। और संभवतः  नई बीमारियों की खोज की खबरें प्रसारित करना मीडिया के कार्यदायित्वों का अहम अंग बन चुका है। बीमारी आती है और सरकार कहती है कि एक नई योजना इसके लिये लागू की जायेगी परन्तु यह सवाल नहीं उभरता कि ये बीमारियां पैदा कहां से और क्यों हो रही हैं? यह जानकारी बहुत महत्वपूर्ण मानी जा रही है कि हर सरकार एक साल में एड्स पर दो हजार करोड़ रूपये खर्च करती है, क्या यही सबसे महत्वपूर्ण जानकारी है जो देश के लोगों को जानना चाहिये। एड्स पर बहुत काम हो रहा है परन्तु तपेदिक (जो कि गरीबी और पोषण असुरक्षा से जुड़ी हुई बीमारी है) बीमारी न केवल बजट की कमी से जुझ रही है बल्कि भारत सरकार और राजनैतिक हलकों में बहुत महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखती है। बावजूद इसके कि हर साल 1 लाख लोगों की मौत का कारण यह बीमारी बनती है।

पोषण और स्वास्थ्य के मानकों के अनुसार हर व्यक्ति को अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिये 2400 कैलोरी की ऊर्जा भोजन से मिलना चाहिये। परन्तु क्या आपको पता है कि 76 प्रतिशत जनसंख्या यानी लगभग 85 करोड़ लोगों की अलग-अलग कारणों से इतनी न्यूनतम जरूरत पूरी नहीं होती है। अगर भोजन और पोषण को गरीबी का आधार माना जाये तो 76 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं।

परन्तु सरकार अपने अध्ययनों के आधार पर कहती है कि 26 प्रतिशत यानी 30 करोड़ लोग ही गरीबी की रेखा के नीचे है और गरीबी की रेखा का मतलब है 11 रूपये या उससे कम प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन खर्च करने वाले लोग। आज के दौर में जब सब कुछ मुद्रा स्फीती (इन्फ्लेशन) दर से मापा जाता है वहां केवल गरीबी की रेखा से इसका कोई संबंध नहीं रखा गया है। पिछले 17 सालों में एक कोशिश भरपूर ढंग से हुई है और वह कोशिश है गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या (न की वास्तविक गरीबी) को कम करने की। उद्देश्य साफ है कि यदि कागजों में गरीब परिवारों की संख्या कम होगी तो सरकार को गरीबी मिटाने वाले कार्यक्रमों पर अपना खर्च (सब्सिडी और जनकल्याण कार्यक्रम चलाने के लिये होने वाला व्यय) कम करने का अवसर मिलेगा और इस राशि का उपयोग बाजार को विकसित करने में किया जा सकेगा।

ऐसे ही कई सवाल हैं जो सतह पर नजर नहीं आते किन्तु जड़ों के साथ चिपटे पड़े हैं। कुछ घुन की तरह जड़ों को खोखला कर रहे हैं तो कुछ विष फैला रहे हैं। यह सच है कि हम राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था को एक अलग नजरिये से देखते है। हमारे लिये केवल लाभ महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उसमें शुभ का तत्व भी महत्वपूर्ण है। शुभ लोकाधिकारों की मान्यता और उसकी राजनैतिक स्वीकार्यता से जुड़ा हुआ है। यह दौर विरोधाभासों का भी दौर है जहां हमारे मूल्यों और व्यवहारों में व्यापक अंतर नजर आता है पर करते क्या हैं, यह सवाल हमेशा खड़ा रहा है!!
अक्सर जब हम कुछ शुद्धात्म पत्रकारों (ये वे पत्रकार हैं जिन्होंने अपनी सार्थक भूमिका तलाशने की खूब कोशिशें की हैं) के साथ मीडिया पर गंभीर चर्चा पर आगे बढ़ते हैं तो वे बेहद संजीदगी से उस चर्चा पर यह कहकर विराम लगा देते हैं कि यार, बस अब मीडिया के मूल चरित्र पर कोई बात मत करो!! गुस्सा आता है। यह प्रतिक्रिया अनायास ही नहीं होती है। वे पत्रकार साथी बड़े ही सजग होते हैं कि जब भी कोई ऐसी चर्चा होंगी तो वे उसे रोक देंगे। उनका मंतव्य दूषित नहीं है, उनके भीतर एक किस्म की उदासी आ गई है, वे उस उदासी को उधेड़ना नहीं चाहते हैं, उस पर परतें डाल देन चाहते हैं। अब अखबार संजीदा और गंभीर नहीं होते हैं, वे बड़े होते हैं और बड़े होने का पैमाना बेहद बेतरतीब है- प्रतियों और पाठकों की संख्या, न कि उसका संजीदापन, गंभीरता और प्रभावोत्पादकता। हम उस मीडिया से क्या अपेक्षा रख सकते हैं जिसकी मूल मान्यता आज यह है कि पाठकों के पास अब समय नहीं है। अखबारी संस्थानों के भीतर अखबार बेचने ( जिसे मार्केटिंग और प्रसार कहा जाता है) वाले विभाग ज्यादातर संपादकों की क्लास लेते हैं और बताते हैं कि मार्केटिंग अध्ययनों के अनुसार अब पाठक ढाई या साढ़े तीन मिनट में अखबार पढ़ने का दायित्व पूरा कर लेना चाहते हैं इसलिये आप भी अपना दायरा उन्हीं साढ़े तीन मिनटों तक सीमित रखें। कुल मिलाकर बात यह होती है कि लोग अखबार देखें, न कि उसे पढ़ें। ऐसा चलन अब चल पड़ा है। विचारों को खत्म कर देने की एक सुनियोजित प्रक्रिया चल रही है। जब अखबार में काम करने वाला संजीदा पत्रकार एक माह तक किसी गंभीर विषय पर शोध करके, अपनी खबर तैयार करके संपादक को सौंपता है तो उसे बताया जाता है कि आपकी खबर ढाई सौ शब्दों से ज्यादा न हो।

खोजपरक खबर के लिये ढाई सौ शब्दों का स्थान! कितने पत्रकार जिन्दा रह पायेंगे इस वातावरण में। पत्रकार आता है अपनी खबर जमा करके आश्वासन पाता है कि अगले दिन के अखबार में उसे बेहतरीन जगह मिलेगी। रात उम्मीदों के सहारे खुशगवार गुजरती है, किन्तु सुबह पूरी दुनिया सूनी हो जाती है और लगता है कि खून का बहाव रुक गया है। बाद में पता चलता है कि विज्ञापन आ गया था, कोई दूसरी खबर आ गई थी या फिर प्रतिस्पर्धा की चैसर में कोई दूसरा अपनी चाल चल गया। अब तो जनमाध्यमों के भीतर भी हिंसक प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई और यहां तलवारें नहीं बल्कि खबरों पर डीलिट (गायब) बटन से वार किया जाता है। कहीं खून भी नहीं दिखता और दुश्मन लहुलूहान हो जाता है। लोग निराश होते हैं और फिर एक नई कोशिश में जुट जाते हैं परन्तु इस गुत्थी को नही सुलझा पाते हैं कि विज्ञापन के कारण हमेशा खबरें अपना रूप, रंग, आकार और अस्तित्व खोती रही है। कभी भी खबर के कारण विज्ञापनों के सामने बैरिकेट्स लगे क्या? शायद नहीं। इसका मतलब यह है कि आज खबरों के अपने आप में कोई मायने नहीं हैं। खबरों को केवल विज्ञापन के बदले में बिकने वाली सामग्री माना जाना चाहिये। अब हर रोज जन माध्यमों की मंडी में दुकानें इस खोज के साथ खुलती है कि क्या बिकेगा? ऐसी खबर कौन सी होगी जिसके साथ कोई न कोई प्रायोजक नहीं जुड़ा होगा। इतना ही नहीं अब तो संवेदनाओं का भी व्यापार होता है और एमएमएस के जरिये फायदा कमाया जा रहा है।

अखबार अब सकारात्मक और आकर्षक दिखने चाहिये, इसके लिये छायाचित्रों का उपयोग बढ़ा है। स्वाभाविक है कि गरीबी, कुपोषिण, महिला हिंसा और घास की रोटी के छायाचित्र तो सकारात्मक माने ही नहीं जाएंगे (भले ही एक बड़ी आबादी का यह सच्चा चित्र हो) इसलिये उन्हें स्थान नहीं मिलेगा। बहरहाल नई मोटर बाईक, नई कार और हीरों के जेवरात की प्रदर्शनी को जरूर स्थान मिलेगा, क्योंकि वह स्थान विज्ञापन के रूप में खरीदा जाता हैं। अब गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी के लिये कौन स्थान खरीदेगा? मीडिया का ताजा सिद्धांत यह है कि अखबार हर रोज सुबह पढ़ा जाता है, और सुबह-सुबह पाठक के सामने कुछ नकारात्मक नहीं जाना चाहिये। वह कुछ ऐसा देखना चाहता है जिससे ताजगी का अहसास हो। परन्तु क्या यह सही सोच है। वस्तुतः हर सुबह हर पाठक या दर्शक के सामने यह सच पेष किया जाना चाहिये कि समाज में भूख और गरीबी का जाल कितना व्यापक स्तर पर बिछा हुआ है और हिंसा केवल कुछ लोगों का जीवन नहीं बल्कि हमसे इंसानी चरित्र छीन रही है। इस सच्चाई को छिपाने का काम मीडिया न ही करे, तो बेहतर है क्योंकि इसका असर परमाणु बम से ज्यादा घातक और गहरा होगा। पत्रकार भले ही सामाजिक कार्यकर्ता का आवरण न ओढ़े किन्तु उसकी भूमिका कहीं न कहीं जन मुद्दों के पक्ष में खड़े होने की होगी, अन्यथा उसकी फिर कोई विश्वसनीयता शेष न रहेगी ?

हमारा अनुभव यह बताता है कि अब पत्रकार भी जब किसी खबर पर काम करता है तो वह यह नहीं देखता कि इससे कितने जन सरोकार जुड़े हुये हैं, बल्कि उसके भीतर रोप दी गई ‘उत्पादक खबर’ बनाने वाली ग्रंथी यह मापती है कि यह खबर बिकेगी या नहीं। और यह तय हो जाने के बाद ही कि खबर बाजार में टिक पायेगी, उस पर कोई श्रममूलक प्रक्रिया शुरू होती है। कुछ पत्रकार अब भी जिंदा हैं जो सरोकारों की खबरें करते हैं और स्थान पाते हैं, पर कोई उनसे पूछे कि क्या कोई ऐसा दिन है जब वे अपने इस सरोकारी काम के लिये लड़ते-झगड़ते नहीं हैं। ऐसे ही पत्रकारों को खोजकर उनके दिलो-दिमाग को खोलकर रख देने की जरूरत है ताकि उनकी पीड़ा मर न जाये, उनकी तड़प को सब देख सके और जान सके कि सरोकारी संघर्ष अभी भी पूरी तरह से मरा नहीं है। वह लहूलुहान है। एक दिन वह उठ खड़ा होगा और बाजारवादी मीडिया के सामने इतनी चुनौतियाँ खड़ी कर देगा कि तमाम फायदे के सिद्धांत ध्वस्त हो जाएंगे।

व्यक्तिगत रूप से हम बहुत से पत्रकार-लेखक साथियों को जानते हैं, उनसे चर्चा करते रहे हैं पर एक मौके पर आकर हमें लगा कि बहुत से पत्रकार-लेखक साथी जनमुद्दों पर लगातार सोच-विचार करने के साथ ही लेखन करते रहे हैं तो फिर हालात सुधर क्यों नहीं रहे हैं? दरअसल हर क्षेत्र का एक ढांचा होता है, मीडिया का भी एक ढांचा है जहां हर रोज सूचनाओं को संजोकर विश्लेषण रचा जाता है, बिना किसी नागे के। अब सामग्री की कमी नहीं है बल्कि सामग्री के ढेर में से क्या उपयोग में आयेगा यह तय करने में सबसे ज्यादा ऊर्जा लग रही है। इसका मतलब है कि जो यह तय कर रहे हैं कि क्या सामग्री प्रसारित होगी उनके नजरिये पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह तो स्वीकार करना ही होगा कि मीडिया-जनमाध्यमों को एक मूल्यगत विश्लेषण की दरकार है, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि वह(मीडिया) आज भी एक स्वतंत्र रचनात्मक भूमिका निभाने वाला स्तंभ है या फिर वह ज्यादातर राजनीति और अर्थ व्यवस्था के प्रवक्ता की भूमिका निभा कर समाजनीति के मूल्यों को दरकिनार कर रहा है। यह कठिन दौर है फिर भी जन माध्यमों में सक्रिय ऐसे कई संवादकर्मी हैं, जो वास्तव में स्थान और प्रोत्साहन का अभाव होने से बावजूद कहीं न कहीं से रास्ते निकाल रहे हैं क्योंकि अब भी उनके जीवन में ऐसे मूल्य बचे हुए हैं, जिनका समझौता करने के लिए वे तैयार नहीं हैं और संभवतः यह हमारी सबसे बड़ी संभावना भी है। सोषल मीडिया ने यह विष्वास और पुख्ता किया है।

इन्हीं कतिपय जलते सवालों और मुद्दों को लेकर इस पुस्तक का तानाबाना तैयार हुआ है।  सात अध्यायों में इन तमाम सवालों को समेटने का एक छोटा सा यह प्रयास रहा है। ऐसा नहीं है कि ये सारे सवाल हमारे और आपके जेहन में पहले से नहीं रहे हैं या इन सवालों से इत्तर अब कोई सवाल षेष नहीं है। इसीलिए मेरे इस लघु प्रयास में आप सब का संबल मिले, इसकी कामना रहेगी। पत्रकारिता में रूचि रखने वालेपाठकों और पत्रकारिता के अध्ययनार्थियों की संतुष्टि ही इस पुस्तक की सार्थकता और हमारी सफलता होगी। अपने तमाम षुभेच्छुओं, मित्रों जिन्होंने चाहे जिस भी रूप में अपना सहयोग दिया है,उनके प्रति मैं हृदय से आभारी हूं।

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