Saturday, September 28, 2013

रघुराम राजन समिति की रिपोर्ट: राजनीतिक हितों का पुलिंदा


रघुराम राजन समिति ने अपनी रिपोर्ट में राज्यों के दर्जों को लेकर चाहे जो भी मापदंड अपनाए हों किन्तु गुजरात के साथ भेदभाव और सूची में उसका १७वां स्थान संप्रग सरकार की नीयत पर शक करता है। रिपोर्ट को गौर से देखें तो इसके राजनीतिक निहितार्थ को अच्छी तरह समझा जा सकता है। दरअसल इस रिपोर्ट का मजमून है कि कांग्रेस शासित राज्य गैर-कांग्रेसी राज्यों के मुकाबले ज्यादा विकास कर रहे हैं और गुजरात कम विकसित राज्यों की सूची में १७वें स्थान पर है। समिति के आधार पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस दावे की हवा निकालने की कोशिश की गई है जिसमें उन्होंने हर सियासी मंच से गुजरात की प्रगति को कांग्रेस शासित राज्यों से बेहतर बताया है। हालांकि समिति से इतर केंद्र ने भी कई मोर्चों पर गुजरात की तरक्की को सराहा है। ऐसे में रिपोर्ट में गुजरात को कम विकसित राज्यों की श्रेणी में रखना और इसे राष्ट्रीय स्तर पर १७वां स्थान देना सरकार की सोची-समझी साजिश लगता है। दरअसल जबसे नरेन्द्र मोदी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया है, कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर होना पड़ा है। कांग्रेसी रणनीतिकार मोदी की लाख कमियां गिनाएं किन्तु उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नकारने का साहस किसी में नहीं है। कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक उम्मीदवार राहुल गांधी को भी मोदी से संभावित टकराव से बचाने के जतन होने लगे हैं। ऐसे में यदि सरकार मोदी को नीचा दिखाने के लिए इस तरह की समितियों का सहारा ले रही है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस तरह की कवायद से अव्वल तो सरकार का मोदी से सीधा टकराव बचता है, दूसरा मोदी और उनकी टीम भी अन्य मुद्दों पर सरकार को घेरने की बजाए समितियों से उलझी रहेंगी। यानी सरकार ने मोदी और भाजपा को घेरने के लिए अब कूटनीति का सहारा लेना शुरू कर दिया है और कांग्रेस का इतिहास बताता है कि वह इस खेल में माहिर ही नहीं, बल्कि सिद्ध्हस्त है। जहां तक बिहार, ओडिशा और उत्तरप्रदेश जैसे सबसे पिछड़े राज्यों का सवाल है तो कांग्रेस की मंशा है कि यहां के क्षेत्रीय क्षत्रपों को यथासंभव अपनी ओर मिलाकर रखा जाए ताकि गठबंधन की राजनीति के इस संक्रमण काल में अधिक से अधिक पार्टियों का समर्थन प्राप्त हो सके। इसके अलावा इन राज्यों की जनता में भी यह संदेश देने की कोशिश होगी कि संप्रग सरकार के अथक प्रयासों ने ही उन्हें पिछड़े राज्यों की श्रेणी से निकालने हेतु यथोचित कदम उठाए हैं। फिर नीतीश का भाजपा से मोहभंग और नवीन पटनायक को संप्रग का हिस्सा बनाने की पहल, दोनों ही कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में फायदा पहुंचा सकते हैं। कुछ यही रणनीति उत्तरप्रदेश में भी अपनाई जा सकती है, जहां कांग्रेस संगठनात्मक रूप से लगभग खत्म हो चुकी है। कुल मिलाकर रघुराम राजन समिति की यह रिपोर्ट राजनीतिक हितों का पुलिंदा मात्र जान पड़ती है। वे या सरकार लाख दावे करें की रिपोर्ट से पिछड़े राज्यों का भला होगा किन्तु राजनीति के वर्तमान दौर को देखते हुए इसकी संभावना नगण्य ही है।

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