डा. अहलूवालिया मितव्ययिता को खुद पर लागू करते हैं इस बात की पुष्टि दो आरटीआई प्रश्नों से हो जाती है। दोनों ही आरटीआई-आधारित पत्रकारिता के बेहतरीन उदाहरण हैं, परन्तु उन्हें उतनी तवज्जो नहीं मिल पायी जिसके वे हकदार हैं। उनमें से एक श्यामलाल यादव द्वारा दी गयी इंडिया टुडे (जिसमें जून 2004 से जनवरी 2011 के बीच डा. अहलूवालिया की विदेश यात्राओं का ब्यौरा है) की खबर है. यह पत्रकार (जो अब इंडियन एक्सप्रेस में काम करते हैं) पहले भी आरटीआई-आधारित बेहतरीन खबरें दे चुके हैं।
दूसरी खबर, इस 2012 फरवरी में, द स्टेट्समेन न्यूज सर्विस में प्रकाशित हुई (पत्रकार का नाम नहीं दिया गया है)। इसमें मई और अक्टूबर 2011 के बीच में डा. अहलूवालिया की विदेश यात्राओं का ब्यौरा है। एसएनएस की रिपोर्ट कहती है कि ”इस अवधि में, 18 रातों के दौरान चार यात्राओं के लिये राजकोष को कुल 36,40,140 रुपये कीमत चुकानी पड़ी, जो औसतन 2.02 लाख रुपये प्रतिदिन बैठती है।”
जिस दौरान यह सब हुआ, उस समय के हिसाब से 2.02 लाख रुपये 4,000 डॉलर प्रतिदिन के बराबर बैठते हैं. (अहा! हमारी खुशकिस्मती है कि मोंटेक मितव्ययी हैं अन्यथा कल्पना करें कि उनके खर्चे कितने अधिक होते)। प्रतिदिन का यह खर्चा उस 45 सेंट की अधिकतम सीमा से 9,000 गुना ज्यादा है जितने पर उनके अनुसार एक ग्रामीण भारतीय ठीक-ठाक जी ले रहा है, या उस शहरी भारतीय के लिये 55 सेंट की अधिकतम सीमा से 7,000 गुना ज्यादा है जिसे डा. अहलूवालिया “सामान्य तौर पर पर्याप्त” मानते हैं।
यहां हो सकता है कि 18 दिनों में खर्च किये गये 36 लाख रूपये (या 72,000 डॉलर) उस साल विश्व पर्यटन के लिये दिया गया उनका निजी प्रोत्साहन हो. आखिरकार, 2010 में पर्यटन उद्योग अभी भी 2008-09 के विनाश से उभर ही रहा था, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन ध्यान दिलाता है. दूसरी तरफ, यू.एन. संस्था ने पाया कि 2010 में वैश्विक यात्राओं पर वार्षिक आय 1,000 अरब डॉलर तक पहुँच गयी. वार्षिक आय में सबसे ज्यादा बढ़त अमेरिका और यूरोप में देखी गयी (जहाँ उन 18 दिनों में से ज्यादातर दिन व्यतीत किये गये)। भारतीय जनता इस बात पर खुशी मना सकती है कि उन देशों के स्वास्थ्य लाभ में उन्होंने भी एक सादगीपूर्ण भूमिका निभायी, तब भी जबकि वे घर पर खर्चों में कटौती की मार झेल रहे थे।
श्यामलाल यादव की आरटीआई में दिये गये आकड़े बेहद दिलचस्प हैं. शुरुआत के लिये, उनकी जाँच दिखाती है कि अपने सात साल के कार्यकाल में डा. अहलूवालिया ने 42 आधिकारिक विदेश यात्रायें की और विदेशों में 274 दिन बिताए। इस तरह यह “हर नौ में से एक दिन” विदेश में पड़ता है और इसमें यात्रा करने में लगे दिन शामिल नहीं हैं। इंडिया टुडे की खबर ने पाया कि उनके इस भ्रमण के लिये राजकोष से 2.43 करोड़ रूपये खर्च किये गये, यह बताया गया है कि उनकी यात्राओं के संबंध में उन्हें तीन अलग- अलग अनुमान प्राप्त हुए थे और उदारतापूर्वक उन्होंने अपनी खबर के लिये सबसे कम खर्च वाले अनुमान को चुना। साथ ही, इंडिया टुडे की खबर कहती है, “यह स्पष्ट नहीं है कि इन आकड़ों में भारतीय दूतावास के द्वारा विदेश में किये गये अतिरिक्त खर्चे, जैसे-लिमोसिन को किराये पर लेना शामिल हैं या नहीं. वास्तविक खर्चे काफी ज्यादा हो सकते हैं। ”
चूँकि जिस पद पर वह हैं उसके लिये ज्यादा विदेश यात्राओं की आवश्यकता नहीं है, हालाँकि, यह सब “प्रधानमंत्री की इजाजत” से किया गया है, यह काफी दुविधा में डाल देने वाला है। 42 यात्राओं में से 23 अमेरिका के लिये थी, जो योजना में विश्वास नहीं करता ( योजना में तो, शायद डॉ. अहलूवालिया भी विश्वास नहीं करते), तब यह और भी ज्यादा दुविधा में डाल देने वाली बात है. ये यात्रायें किस बारे में थी? मितव्ययिता के बारे में वैश्विक जागरूकता का प्रसार करने के लिए? यदि ऐसा है तो, हमें उनकी यात्राओं पर ओर ज्यादा खर्च करना होगा, एथेन्स की सड़कों पर इस ध्येय का कत्ल करते हुए विद्रोही ग्रीसवासियों पर ध्यान दें, और उससे भी ज्यादा उनकी अमरीका यात्राओं पर जहाँ अमीरों की मितव्ययिता असाधारण है। यहां तक उस देश के मैनेजरों ने 2008 में भी करोड़ों रुपए बोनस लिए, जिस साल वाल स्ट्रीट ने विश्व अर्थव्यवस्था का भट्टा बिठा दिया था। इस साल, अमरीका में बेहद-अमीर मीडिया अखबार भी लिख रहे हैं कि ये मैनेजर ही कम्पनियों, नौकरियों और तमाम चीजों का विनाश कर रहे हैं और इस सबसे व्यक्तिगत लाभ उठा रहे हैं। लाखों अमरीकावासी, जिनमे वे भी शामिल है जो बंधक घरों की नीलामी का शिकार हुए हैं, वे अलग तरह की मितव्ययिता भुगत रहे हैं। उस तरह की, जिससे फ्रांसीसी घबराये हुए थे और जिसके खिलाफ उन्होंने वोट दिया।
2009 में जब प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने खर्चों में कटौती का अनुरोध किया, तब उनके मंत्रिमंडल ने इस आह्वान का शानदार जवाब दिया। अगले 27 महीनों के दौरान, हर सदस्य ने औसतन, कुछ लाख रूपये प्रति महीने अपनी सम्पति में जोड़े। यह सब उस दौरान, जब वे मंत्रियों के तौर पर कठिन मेहनत कर रहे थे। प्रफुल पटेल इनमे सबसे आगे रहे, जिन्होंने इस दौरान अपनी सम्पति में हर 24 घंटे में, औसतन पांच लाख रुपये जोड़े। तब जब एयर इंडिया के कर्मचारी, जिस मंत्रालय का ज्यादातर समय वह मंत्री थे, हफ्तों तक अपनी तनख्वाह पाने के लिये संघर्ष कर रहे थे।
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