Tuesday, September 3, 2019

बिहार में मुस्लिम नेताओं की मजबूरी


इन दिनों बिहार की राजनीति में इस बात पर सबसे ज़्यादा बहस होती है कि क्या बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षी दलों के मुस्लिम नेताओं की पसंद के साथ मजबूरी बनते जा रहे हैं? दरअसल विपक्षी राजद और कांग्रेस के नेताओं के बीच सार्वजनिक रूप से नीतीश कुमार के कामकाज की तारीफ और फिर उनकी पार्टी में शामिल होने की होड़ लगी है. ऐसे में यह सवाल और भी ज्यादा पूछा जाने लगा है कि भले ही नीतीश कुमार बीजेपी के साथ सरकार चला रहे हैं लेकिन वे क्या बिहार की राजनीति में सक्रिय मुस्लिम नेताओं की पहली पसंद हैं?
इसका एक उदाहरण रविवार को देखने को मिला जब चार बार राजद से सांसद मोहम्मद अली अशरफ़ फ़ातमी ने जनता दल यूनाइटेड विधिवत रूप से ज्वाइन किया. उनसे पहले राजद के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दिकी सदन के अंदर और बाहर बार-बार यह संदेश दे चुके हैं कि अब उन लोगों की राजनीति के तारणहार नीतीश ही हो सकते हैं.
अब राजनीतिक गलियारे में यह भी चर्चा है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शकील अहमद भी देर सबेर जनता दल यूनाइटेड का रुख कर लें तो आश्चर्य की बात नहीं होगी. कांग्रेस के विधायक शकील अहमद खान ने भी बार-बार संकेत दिया है कि बिहार में नीतीश कुमार से अच्छा कोई प्रशासक नहीं है और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का अब कोई सवाल नहीं है. अधिकांश मुस्लिम नेताओं का मानना है कि अगर अगले विधानसभा चुनाव में राजद के साथ गठबंधन करके चुनाव मैदान में जाएंगे तो हार मिलना निश्चित है. लेकिन अगर नीतीश का साथ हो जाते हैं तो उन्हें कोई पराजित भी नहीं कर सकता.
मुस्लिम नेताओं का यह भी कहना है कि नीतीश भले ही बीजेपी के साथ हैं लेकिन मुस्लिम समुदाय के लिए उन्होंने अलग-अलग योजनाओं के अंतर्गत जो काम शुरू किए हैं उनका असर जमीन पर भी दिखता है. उसे नज़रअंदाज़ कर केवल धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कब तक वोट मांगे जा सकते हैं.
इन नेताओं का मानना है कि जब तक नीतीश कुमार का नेतृत्व है तब तक बीजेपी एक सीमा से ज़्यादा अपने एजेंडा को लागू नहीं कर सकती. इसका उदाहरण पिछले साल रामनवमी के बाद तब देखने को मिला जब दंगा भड़काने के आरोप में केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे को भी जेल की हवा खिलाने में नीतीश कुमार ने देर नहीं की.

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