Wednesday, May 9, 2012

...खैरात हुई जिंदगी


कहते हैं कि अस्पताल और श्मशान जिंदगी का सच बताते हैं। ऐसे ही एक सच का चेहरा है मछीन्द्रनाथ। किसी के हाल पूछते ही वह फूट पड़ता है-कोई बेटा नहीं, कोई बेटी नहीं। जब तक लोग बाप की कमाई खाते हैं, तभी तक प्यार व सम्मान दिखाते हैं। बाप की कमाई बंद होते ही घर से बाहर फेंक देते हैं। पांच बेटों और एक बेटी के पिता 75 वर्षीय मछींद्रनाथ का आज कोई नाथ (संरकषक)नहीं है। पीएमसीएच के इमरजेंसी वार्ड में लावारिस पड़े औरंगाबाद के (गंगपुर) निवासी मछींद्रनाथ कहते हैं- 45 साल तक कमा-कमा कर सबको पालता रहा, अब मुझे ही आंखें दिखाते हैं, मारने को दौड़ते हैं। मूल्य-मर्यादा से दूर जाती और पैक्टिल (व्यावहारिक नहीं, स्वार्थी) होती पीढ़ी ने अकेले मछींद्रनाथ को गहरे जख्म नहीं दिये हैं, अब तो यह जमाने का दस्तूर बन रहा है। हजारीबाग के रंगनाथ यादव, पगला बाबा, संतोष कुमार और इससे पहले न जाने कितने। मछींद्रनाथ ने बताया- मैंने 45 साल तक चीनी मिल में दिनरात एक कर कमाई संपत्ति बेटों पर भरोसा कर उनके नाम कर दी। इससे एक तरफ बेटी खफा हो गई, तो दूसरी तरफ पैसे मिलते ही बहुओं ने नजर फेर ली। जुलाई 2011 माह में घर छोड़ने को मजबूर हो गया। भीख, प्रसाद या खैरात के सहारे हरिद्वार, वृंदावन और गोकुल में जिंदगी कटने लगी। एक माह पूर्व ट्रेन से गिरा और पांव कट गया। तब से यहीं पड़ा हूं, जब तक हूं, ठीक है। 50 वर्षीय रंगनाथ यादव की पत्‍‌नी व बच्चे नहीं हैं, इसलिए जमशेदपुर से काम छोड़ भाई व भतीजों के पास हजारीबाग आया था। एक दिन भतीजा कच्चे मकान की छत में फंसा था। बचाने गया, तो गिर कर दोनों पांव तुड़ा बैठा। भाई लोग आकर यहां फेंक गए। इसी प्रकार संतोष कुमार, कुतुब, दीना तथा फिरोज जैसे मरीज हैं। सभी अपने ही लगाये गुलशन से बाहर हैं। एक शायर ने लिखा है- सींचा था जिसको, खूने-तमन्ना से रात-दिन, गुलशन में उस बहार के हकदार हम नहीं.. । शायरी का सच भी यही दिखता है।
 (पटना से कुमार दिनेश की फेसबुक पर पोस्ट )

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