बसपा का पिछला कथित नायाब सोशल इंजीनियरिंग इस बार ध्वस्त है। दलितों के साथ ब्राह्ïमणों का गठजोड़ इस बार दरक चुका है। मगर सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर बसपा से हटे ब्राह्मण इस बार किस तरफ है। क्या कांग्रेस की ओर या भाजपा की ओर। वैसे भाजपा-कांग्रेस दोनों के नेताओं का दावा है कि ब्राह्ïमणों का इस बार आशीर्वाद उसे ही मिल रहा है। मगर यह मात्र चुनावी दावे हैं। हकीकत यही है, यह कोई जरूरी नहीं है। इस प्रदेश में ब्राह्ïमण एक बड़ी सियासी ताकत है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे में इस सवाल का जवाब ढूंढना वाजिब है कि आखिर ब्राह्ïमण जा किधर रहे हैं?
भारतीय जनता पार्टी कभी ब्राह्मणों और बनियों की पार्टी कही जाती थी लेकिन पिछले कुछ वर्षो में ब्राह्मण उससे ऐसे रूठे कि वह बनियों की पार्टी होकर रह गई। ऐसे में जबकि जाति आधारित राजनीति की प्रयोगशाला बने देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में चुनाव है, भाजपा ने रूठे ब्राह्मणों को फिर साथ लाने की कवायद पुरजोर तरीके से की है और इसके लिए उसने सहारा लिया है चाणक्य के नाम का। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा,विष्णु,महेश है... का नारा देकर दलितों और ब्राह्मणों की नई सोशल इंजीनियरिंग तैयार की और इसके सहारे सत्ता पर काबिज हुई। इस बार भी उसकी यही कोशिश है लेकिन नारा बदलकर ब्राह्मण भाईचारा हो गया है। अपने इस समीकरण को बनाए रखने के लिए बसपा ने फिर से अपने महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा को आगे किया है। ब्राह्मणों को खोने की चिंता के मद्देनजर वह जगह-जगह ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन की है और इस बार नारा दिया गया है-ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा...।
ब्राह्मणों के बसपा से हुए कथित मोहभंग को देखते हुए भाजपा एक बार फिर से अपने इस पुराने वोट बैंक को पाने की कोशिशों में जुट गई है। पार्टी ने इसके लिए चाणक्य का सहारा लिया है और ब्राह्मण शंख बजाएगा... हाथी जंगल जाएगा का नारा बुलंद किया जा रहा है। भाजपा चाणक्य जनस्वाभिमान मंच के बैनर तले प्रदेश भर में ब्राह्मणों का सम्मेलन कर रही है। अब तक ऐसे 29 सम्मेलनों का आयोजन किया जा चुका है। वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी, अनंत कुमार, संजय जोशी, करूणा शुक्ला और विनोद पांडेय जैसे ब्राह्मण नेता इस प्रकार के आयोजनों में शिरकत कर चुके हैं। बिहार से भी हरेन्द्र प्रताप और राजा राम पांडेय जैसे नेताओं को यूपी के ब्राह्ïमणों के बीच पैठ बनाने की जिम्मेदारी दी गयी है। मंच के संयोजक के. के. शुक्ला कहते है कि बसपा ब्राह्मणों का स्वाभिमान बढ़ाने का दावा करती है लेकिन सच्चाई यह है कि उसने ब्राह्मणों का स्वाभिमान गिराया है। बसपा अध्यक्ष मायावती ने नोएडा से लखनऊ तक दलित महापुरुषों की मूर्तियां लगवाईं और पार्क बनवाए लेकिन उन्होंने एक भी ब्राह्मण महापुरुष के लिए ऐसा कुछ नहीं किया।उ न्होंने कहा, बसपा आज ब्राह्मण भाईचारे की बात कर रही है लेकिन यह कैसा भाईचारा है कि चाणक्य, परशुराम, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे ब्राह्मण महापुरुष उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। पिछले चुनाव में ब्राह्मण बसपा के साथ भले हो लिए थे लेकिन इस दफे प्रदेश का ब्राह्मण मतदाता खामोश है। ब्राह्मणों का आशीर्वाद पाने के लिए भाजपा जहां जहां उनके बीच पैठ बना रही है वहीं कांग्रेस भी रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी और मोहन प्रकाश जैसे ब्राह्मण नेताओं को सामने कर उसकी ओर टकटकी लगाए देख रही है। उत्तर प्रदेश के मौजूदा विधानसभा चुनाव में हर दल अपनी जीत मुकम्मल करने के लिए जातीय समीकरण गढ़ रहा है। माना जा रहा है कि समाजवादी पार्टी के साथ मुसलमानों और यादवों यानी एमवाई का मजबूत वोट बैंक इस बार है, जो एक तरह से सपा का अपना पुराना समीकरण भी रहा है तो बसपा फिर से ब्राह्मणों को जोडऩे के लिए तमाम तरह की मशक्कत कर रही है। मगर कहा जा रहा है कि इस बार उसका पिछला समीकरण ध्वस्त हो चुका है। भाजपा अगड़े और अन्य पिछड़ा वर्ग को साथ जोड़कर चुनावी वैतरणी पार करने में लगी है। बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कराने से लेकर उमा भारती को यूपी का प्रभारी बनाने और फिर चरखारी से चुनाव लड़ाने के पीछे भाजपा की मंशा एक और जहां पिछड़े लोघ समुदाय के मतों की गोलबंदी करना रहा है वहीं अपने परम्परागत वोट बैंक ब्राह्ïमणों की ओर भी उसकी नजर लगी रही है। वैसे उत्तर प्रदेश की जातिगत राजनीति की इस प्रयोगशाला में ब्राह्मण किसे अपना आशीर्वाद देगा यह स्पष्ट नहीं दिख रहा है, लेकिन इतना तो दिख रहा है कि जिसके साथ उसका आशीर्वाद जाएगा ऊंट उसी करवट बैठेगा।
एक अनुमान के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 16 फीसदी वोट अगड़ी जातियों के हैं। इसमें आठ फीसदी ब्राह्मण, पांच फीसदी राजपूत और तीन फीसदी अन्य हैं। 35 फीसदी पिछड़ी जातियों में 13 प्रतिशत यादव, 12 प्रतिशत कुर्मी और 10 प्रतिशत अन्य हैं। इसके अलावा 25 फीसदी दलित, 18 फीसदी मुसलमान, 5 फीसदी जाट मतदाता हैं।
मायावती ने पिछले चुनाव में 20 फीसदी दलित और आठ फीसदी ब्राह्मणों को जोड़कर सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला तैयार किया था और पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। आमतौर पर यह माना जाता है कि 28 से 30 प्रतिशत वोट जिसने साध लिया उसकी यहां बल्ले-बल्ले हो सकती है।
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