उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए अब तक चार चरणों का मतदान हो चुका है लेकिन राज्य में काबिज बसपा को विरोधी दल उखाड़ सकेंगे यह तो 6 मार्च को ही तय होगा। फिलहाल सबके अपने-अपने दावे हैं। यह बात तय है कि उत्तर प्रदेश में लोकदल-कांग्रेस गठबंधन हो, समाजवादी पार्टी हो या फिर भाजपा सभी के निशाने पर बसपा ही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार माहौल बदला हुआ है। वोटों के जहां नए समीकरण बने हैं वही जातीय गोलबंदी भी पिछली बार से कुछ अलग है। आम धारणा है कि इस बार जाट वोट बंटेंगे। ऐसे में यह देखना लाजिमी होगा कि इसका फायदा किसे हो रहा है।
असल में बसपा के पास 20 फीसदी दलित वोटों के साथ एक मजबूत आधार है। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को 30 फीसदी वोट मिले थे और उसके जरिए पार्टी ने 206 सीटें हासिल की थी, लेकिन इस बार स्थिति ऐसी नहीं है क्योंकि मुस्लिम मतदाता उससे दूर हो रहा है। कथित नायाब सामाजिक समीकरण भी दरक चुका है। इसके मुकाबले में सबसे मजबूत सपा खड़ी है। सपा के पास यादव वोटों के रूप में 10 फीसदी आधार वोट है। उसे करीब 18 फीसदी मुसलमानों का साथ भी मिल रहा है। अन्य पिछड़ी जातियों की गोलबंदी भी सपा के पक्ष में होने की चर्चा है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि करीब 30 फीसदी वोट के साथ इस बार सपा पूरे प्रदेश में अन्य सभी से आगे है।
जहां तक कांग्रेस की बात है तो वह किसी भी जाति में पहली पसंद नहीं दिख रही है। उच्च जातियों में ब्राह्मण, बनिया, राजपूत और कायस्थ की पहली पसंद इस बार भाजपा होने का दावा कर रही है। यह भी कहा जा रहा है कि अगर उसे कहीं भाजपा का उम्मीदवार पसंद नहीं है तो उसके बाद ही वह कांग्रेस को वोट करने की सोचेगा। मुसलमानों की पहली पसंद सपा है और सपा के मजबूत न होने की स्थिति में ही वह कांग्रेस के बारे में सोच रहा है। दलितों की पहली पसंद बसपा है और अगर उसे बसपा की बजाय किसी दूसरे को वोट देना है तो तब वह कांग्रेस के बारे में सोच रहा है। जहां तक टिकटों का सवाल है तो भाजपा ने 150 टिकट उच्च जातियों को दिए हैं, जबकि कांग्रेस ने 85 टिकट ऊंची जातियों को दिए हैं।
बसपा ने जाटों को मिलाने के बाद 125 टिकट उसने ऊंची जातियों को दिए हैं। इसलिए यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बसपा किस तरह 20 फीसदी में दूसरी जातियों को जोड़कर 25 फीसदी तक ले जाती है। वैसे 2009 के लोकसभा चुनावों में उसे 27 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन यह बात भी सच है कि सपा के लिए 10 फीसदी पर 20 फीसदी जोडऩा बसपा से मुश्किल काम है। इसके अलावा स्थानीय मुद्ïदे काफी हद तक हावी हैं और उसमें भी उम्मीदवार का चयन काफी अहम है। पश्चिमी उतर प्रदेश की राजनीतिक नब्ज पहचानने वाले एक विश्लेषक का कहना है कि लोकदल का गढ़ समझने जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत, मेरठ, मुजफ्फरनगर और बिजनौर जिलों में पार्टी की स्थिति को देखें तो उसमें उम्मीदवारों की व्यक्तिगत छवि काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाली है। स्थानीय स्तर पर लोकदल के उम्मीदवारों के चयन को सही नहीं माना जा रहा है। बागपत, बड़ौत, सिवालखास, फतेहपुर सीकरी और सादाबाद सभी जगह पार्टी के बागी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं। वहीं सरधना हाजी याकूब कुरैशी और शाहनवाज राणा जैसे लोगों को पार्टी में शामिल कर मुसलमानों को अपनी ओर खींचने की कोशिश लोकदल को महंगी पड़ सकती है। इन दोनों उम्मीदवारों की छवि आम जनता में बहुत अच्छी नहीं है। इसके चलते कम से कम सिवालखास, सरधना और बिजनौर में तो जाट वोट पूरी तरह लोकदल को मिलने वाला नहीं है। वैसे भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकदल और कांग्रेस का गठबंधन बहुत सहज नहीं है।
धुर कांग्रेस विरोधी रहा जाट वोट बैंक बहुत आसानी से कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए एकमुश्त वोट नहीं करेगा और वह भाजपा व सपा में बंट सकता है। जहां बसपा उम्मीदवार जाट है तो उसे भी जाट वोट मिल रहा है। इसके अलावा स्थानीय मुद्ïदे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं और कई जगह बसपा को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। मसलन मुजफ्फरनगर की चरथावल सीट पर पार्टी के सांसद कादिर राणा के परिवार के उम्मीदवार को हराने के लिए माहौल बन रहा है। लेकिन एक बात जरूर साफ होती दिख रही है कि इस बार मुस्लिम मतदाता बसपा से दूर हो रहा है और यही वजह है कि मायावती कांग्रेस पर ज्यादा प्रहार कर रही है ताकि कई जगह सपा की जगह कांग्रेस मुकाबले में दिखे और उसके चलते मुस्लिम वोट सपा व कांग्रेस में बंटे। जिसका फायदा मायावती को मिल सकता है।
No comments:
Post a Comment