चुनाव के दौरान जनभावनाओं को भड़का कर वोट हासिल करने का खेल खतरनाक दौर में पहुंच चुका है। यह नहीं कहा जा सकता है कि इस खेल में कोई एक या खास दल ही शामिल है। सभी राजनीतिक पार्टियों को मौके की तलाश रहती है। हां, यह दीगर है कि कभी जातीय उन्माद को हवा देकर राजनीति करने वाली बसपा इस खेल में आज सबसे आगे है। कभी जातिबोधक नारों से विद्वेष फैलाने वाली बसपा अब दलित स्वाभिमान की बात करते नहीं थकती है। बसपा की दलीलें भी इस मुतल्लिक काबिलेगौर है। बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी की बेशुमार मूर्तियों और पार्टी प्रमुख मायावती की प्रतिमाओं के निर्माण के पीछे भी बसपा का कुछ ऐसा ही तर्क है। पार्कों और फव्वारों को लेकर भी यही कहा जाता है कि इससे दलित स्वाभिमान और गौरव को बढ़ावा मिलता है। मायावती की मूर्तियों के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाने की ललक को इसी स्वाभिमान से जोड़ कर देखने की बात कही जाती है। गरीबी और पिछड़ेपन के दंश से अब तक नहीं उबरने वाले समाज के इस हिस्से को दरअसल भावनात्मक रूप से छलने के लिए ही इस तरह के प्रपंच रचे जाते हैं।
पिछले दिनों चुनाव आयोग ने सरकारी खर्च से सार्वजनिक स्थलों पर लगाई गई हाथियों और मायावती की मूर्तियों को राज्य में विधानसभा चुनाव संपन्न होने तक ढके जाने का निर्देश दिया। चुनाव आयोग के इस फैसले में भी बहुजन समाज पार्टी के नेताओं ने अपना हित तलाशने की कोशिश की और आयोग के इस फैसले को सीधे तौर पर दलितों के स्वाभिमान पर हमला बताने की कोशिश की। सोचने वाली बात है कि उत्तर प्रदेश में अरबों रुपये खर्च कर इस प्रकार के स्मारक बनाने से आखिर दलित समुदाय के विकास या उनके स्वाभिमान का क्या लेना-देना हो सकता है। मतदाताओं विशेषकर दलितों का इन बुतों से कोई वास्ता हो या न हो मगर मूर्तियां ढके जाने के इस प्रकरण को लेकर मु_ीभर बसपा नेताओं को तो राजनीति करने का मौका मिल ही जाता है। दरअसल ऐसे प्रसंग उन्हें दलित भावनाओं से खिलवाड़ करने, उन्हें उकसाने व भडक़ाने का मौका देता है। सोच यह भी रहती है भावनावश ऐसी गोलबंदी हो कि एक बार फिर सरकार को सत्ता में वापस लाने का मौका मिल जाए।
इसी प्रकार पिछले दिनों बसपा नेता सतीश मिश्र ने एक चुनावी सभा के दौरान राहुल गांधी के उस प्रश्न पर आक्रमण किया कि राहुल अक्सर उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार से यह पूछते रहते हैं कि केंद्र सरकार ने अमुक योजनाओं के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को इतने पैसे भेजे वह पैसे कहां गए? क्या हुए? राहुल के इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर देने के बजाए मायावती के मुख्य सलाहकार सतीश चन्द्र मिश्र ने राहुल पर जवाबी हमला करते हुए उनसे पूछा कि वे यह बताएं कि वह पैसा क्या इटली या जापान से आता है। आखिरकार वह पैसा भी तो हमारा ही पैसा है। मिश्र के इटली शब्द के प्रयोग का आशय आखिर क्या था? भारतीय राजस्व तथा वित्तीय व्यवस्था में धन का आवंटन भारतीय संविधान में दर्ज व्यवस्थाओं के अनुरूप ही किया गया है। निश्चित रूप से प्रत्येक राज्य, केंद्र सरकार को अपने-अपने हिस्से का धन देते हैं तथा आवश्यकता पडने पर वही धन जनता को राज्य के माध्यम से विकास कार्यों के लिए विभिन्न योजनाओं के लिए वापस किया जाता है। ऐसे में इटली या जापान से पैसे आने की बात कहना समझ में नहीं आता। श्री मिश्र से भी यह पूछा जा सकता है कि क्या केंद्र सरकार को या उनके किसी प्रतिनिधि अथवा सांसद को राज्य सरकार से यह पूछने का अधिकार भी नहीं है कि अमुक योजना के लिए भेजा गया धन उस योजना विशेष में लगने के बजाए कहां समा गया, क्या हाथी और मायावती की मूर्तियां स्थापित करने अथवा दलित स्मारकों के निर्माण के लिए ही प्रदेश या देश की जनता अपने खून-पसीने की कमाई टैक्स के रूप में देती है।
वैसे जनभावनाएं भडक़ाने का काम केवल बसपा ही नहीं कर रही, बल्कि सभी राजनीतिक दल इसी माध्यम को मतदाताओं से वोट ठगने का सबसे सुगम रास्ता समझने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी जिसने कि रामजन्म भूमि मुद्ïदे के नाम पर दो दशकों तक पूरे देश में नफरत और वैमनस्य का वातावरण बनाया तथा अपने आपको इसी मंदिर मुद्ïदे के द्वारा देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित किया, यहां तक कि केंद्र में राम मंदिर के नाम पर ही 6 वर्षों तक सत्ता का सुख भी भोगा एक बार फिर अब वह रामराज की चर्चा कर प्रदेश में भ्रष्टïाचारमुक्त सुशासन की बात कर रही है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश चुनावों में पार्टी ने प्रवक्ता के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को इस गरज से आगे कर दिया है शायद प्रदेश के अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने जैसा असंभव सा लगने वाला काम संभव हो सके। वैसे अपनी नीतियों,सिद्घांतों और आदर्शों की चर्चा करते नहीं थकने वाली भाजपा को जातीय वोट भी चाहिए। जातीय राजनीति को चमकाने के लिए ही भाजपा के रणनीतिकारों ने बाबू सिंह कुशवाहा जैसे दागी और बसपा से निकाले नेता तथा बादशाह सिंह जैसे हिस्ट्रीसिटर को गले लगा लिया। दूसरी ओर हिन्दुओं को आकर्षित करने की चाल से भी भाजपा बाज आने को तैयार नहीं है।
राज्य में हो रहे चुनावों के दौरान भाजपा ने पूरे राज्य में रैली, जनसभाएं आदि आयोजित करने का कार्यक्रम बनाया है वहीं आम लागों की धार्मिक भावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए पूरे राज्य में एक ही दिन व समय पर महाआरती जैसा गैर राजनीतिक आयोजन भी किए जाने का ऐलान किया गया है। मजे की बात तो यह है कि चुनावी बेला में महाआरती की यह घोषणा भी और किसी ने नहीं बल्कि नकवी ने ही की है।
कांग्रेस भी विकास की बात करते-करते अचाचन जातीय स्वाभिमान को जगाने का उपक्रम करने लगी है। देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद मुस्लिमों के आरक्षण प्रतिशत को बढ़ाने के बयान में जब घिरे तो उन्हें सच्चर कमिटी की अनुशंसाओं को लागू किए जाने की बात याद आ गयी। राहुल गांधी को भी अपनी जनसभाओं में यह बताने की जरूरत महसूस हुई कि सैम पित्रोदा की जाति बढ़ई है। जैसे कि इस खुलासे के बाद कोई बड़ा धमाका होगा और कांग्रेस की नैया पार हो जायेगी। छोटे दलों में शुमार पीस पार्टी को भी लगता है कि मुस्लिम दांव खेल कर वह मुसलमानों को अपने पक्ष में कर लेगी। पीस पार्टी मुस्लिम मुख्यमंत्री के जुमले को हवा देने में जुटी है। उसका तर्क है कि प्रदेश में अब तक एक भी मुसलमान मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाया है,जबकि यहां के मुसलमान ही सत्ता का खेल बनाते-बिगाड़ते रहे हैं। दरअसल यह मतदाताओं की भावनाओं के दोहन का खेल है।
पिछले दिनों चुनाव आयोग ने सरकारी खर्च से सार्वजनिक स्थलों पर लगाई गई हाथियों और मायावती की मूर्तियों को राज्य में विधानसभा चुनाव संपन्न होने तक ढके जाने का निर्देश दिया। चुनाव आयोग के इस फैसले में भी बहुजन समाज पार्टी के नेताओं ने अपना हित तलाशने की कोशिश की और आयोग के इस फैसले को सीधे तौर पर दलितों के स्वाभिमान पर हमला बताने की कोशिश की। सोचने वाली बात है कि उत्तर प्रदेश में अरबों रुपये खर्च कर इस प्रकार के स्मारक बनाने से आखिर दलित समुदाय के विकास या उनके स्वाभिमान का क्या लेना-देना हो सकता है। मतदाताओं विशेषकर दलितों का इन बुतों से कोई वास्ता हो या न हो मगर मूर्तियां ढके जाने के इस प्रकरण को लेकर मु_ीभर बसपा नेताओं को तो राजनीति करने का मौका मिल ही जाता है। दरअसल ऐसे प्रसंग उन्हें दलित भावनाओं से खिलवाड़ करने, उन्हें उकसाने व भडक़ाने का मौका देता है। सोच यह भी रहती है भावनावश ऐसी गोलबंदी हो कि एक बार फिर सरकार को सत्ता में वापस लाने का मौका मिल जाए।
इसी प्रकार पिछले दिनों बसपा नेता सतीश मिश्र ने एक चुनावी सभा के दौरान राहुल गांधी के उस प्रश्न पर आक्रमण किया कि राहुल अक्सर उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार से यह पूछते रहते हैं कि केंद्र सरकार ने अमुक योजनाओं के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को इतने पैसे भेजे वह पैसे कहां गए? क्या हुए? राहुल के इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर देने के बजाए मायावती के मुख्य सलाहकार सतीश चन्द्र मिश्र ने राहुल पर जवाबी हमला करते हुए उनसे पूछा कि वे यह बताएं कि वह पैसा क्या इटली या जापान से आता है। आखिरकार वह पैसा भी तो हमारा ही पैसा है। मिश्र के इटली शब्द के प्रयोग का आशय आखिर क्या था? भारतीय राजस्व तथा वित्तीय व्यवस्था में धन का आवंटन भारतीय संविधान में दर्ज व्यवस्थाओं के अनुरूप ही किया गया है। निश्चित रूप से प्रत्येक राज्य, केंद्र सरकार को अपने-अपने हिस्से का धन देते हैं तथा आवश्यकता पडने पर वही धन जनता को राज्य के माध्यम से विकास कार्यों के लिए विभिन्न योजनाओं के लिए वापस किया जाता है। ऐसे में इटली या जापान से पैसे आने की बात कहना समझ में नहीं आता। श्री मिश्र से भी यह पूछा जा सकता है कि क्या केंद्र सरकार को या उनके किसी प्रतिनिधि अथवा सांसद को राज्य सरकार से यह पूछने का अधिकार भी नहीं है कि अमुक योजना के लिए भेजा गया धन उस योजना विशेष में लगने के बजाए कहां समा गया, क्या हाथी और मायावती की मूर्तियां स्थापित करने अथवा दलित स्मारकों के निर्माण के लिए ही प्रदेश या देश की जनता अपने खून-पसीने की कमाई टैक्स के रूप में देती है।
वैसे जनभावनाएं भडक़ाने का काम केवल बसपा ही नहीं कर रही, बल्कि सभी राजनीतिक दल इसी माध्यम को मतदाताओं से वोट ठगने का सबसे सुगम रास्ता समझने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी जिसने कि रामजन्म भूमि मुद्ïदे के नाम पर दो दशकों तक पूरे देश में नफरत और वैमनस्य का वातावरण बनाया तथा अपने आपको इसी मंदिर मुद्ïदे के द्वारा देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित किया, यहां तक कि केंद्र में राम मंदिर के नाम पर ही 6 वर्षों तक सत्ता का सुख भी भोगा एक बार फिर अब वह रामराज की चर्चा कर प्रदेश में भ्रष्टïाचारमुक्त सुशासन की बात कर रही है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश चुनावों में पार्टी ने प्रवक्ता के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को इस गरज से आगे कर दिया है शायद प्रदेश के अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने जैसा असंभव सा लगने वाला काम संभव हो सके। वैसे अपनी नीतियों,सिद्घांतों और आदर्शों की चर्चा करते नहीं थकने वाली भाजपा को जातीय वोट भी चाहिए। जातीय राजनीति को चमकाने के लिए ही भाजपा के रणनीतिकारों ने बाबू सिंह कुशवाहा जैसे दागी और बसपा से निकाले नेता तथा बादशाह सिंह जैसे हिस्ट्रीसिटर को गले लगा लिया। दूसरी ओर हिन्दुओं को आकर्षित करने की चाल से भी भाजपा बाज आने को तैयार नहीं है।
राज्य में हो रहे चुनावों के दौरान भाजपा ने पूरे राज्य में रैली, जनसभाएं आदि आयोजित करने का कार्यक्रम बनाया है वहीं आम लागों की धार्मिक भावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए पूरे राज्य में एक ही दिन व समय पर महाआरती जैसा गैर राजनीतिक आयोजन भी किए जाने का ऐलान किया गया है। मजे की बात तो यह है कि चुनावी बेला में महाआरती की यह घोषणा भी और किसी ने नहीं बल्कि नकवी ने ही की है।
कांग्रेस भी विकास की बात करते-करते अचाचन जातीय स्वाभिमान को जगाने का उपक्रम करने लगी है। देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद मुस्लिमों के आरक्षण प्रतिशत को बढ़ाने के बयान में जब घिरे तो उन्हें सच्चर कमिटी की अनुशंसाओं को लागू किए जाने की बात याद आ गयी। राहुल गांधी को भी अपनी जनसभाओं में यह बताने की जरूरत महसूस हुई कि सैम पित्रोदा की जाति बढ़ई है। जैसे कि इस खुलासे के बाद कोई बड़ा धमाका होगा और कांग्रेस की नैया पार हो जायेगी। छोटे दलों में शुमार पीस पार्टी को भी लगता है कि मुस्लिम दांव खेल कर वह मुसलमानों को अपने पक्ष में कर लेगी। पीस पार्टी मुस्लिम मुख्यमंत्री के जुमले को हवा देने में जुटी है। उसका तर्क है कि प्रदेश में अब तक एक भी मुसलमान मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाया है,जबकि यहां के मुसलमान ही सत्ता का खेल बनाते-बिगाड़ते रहे हैं। दरअसल यह मतदाताओं की भावनाओं के दोहन का खेल है।
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