Monday, August 26, 2019

वामपंथी इतिहासकारों का कुकृत्य



वामपंथी इतिहासकारों का कुकृत्य
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क्या यह सच नहीं है कि राणा प्रताप,शिवाजी,वीर सावरकर ही नहीं, भारतीय स्वाधीनता संग्राम तक के इतिहास को जानबूझ कर वामपंथी-कांग्रेस के नेहरू-गांधी परस्त इतिहासकारों द्वारा आधे-अधूरे तथ्यों के साथ सत्ता की सुविधा के अनुसार लिखा और स्वातंत्र्योत्तर पीढ़ी को पढ़ाया गया। बाद के दिनों में तो सब कुछ एक परिवार तक केंद्रित कर दिया गया।
भारत विभाजन व 70 वर्षों तक नासूर बनी रही कश्मीर समस्या के जिम्मेवार पंडित नेहरू को महिमामण्डित कर लौह पुरुष सरदार पटेल,संविधान निर्माण में अमूल्य योगदान देने वाले बाबा साहेब अंबेडकर तक को पार्श्व में धकेल दिया गया। सादगी की प्रतिमूर्ति देशरत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद को अनेक अवसरों पर पंडित नेहरू द्वारा नजरअंदाज/अपमानित करने की परिघटना को भी वामपंथी इतिहासकारों ने दबाया/छुपाया। वंशवादी कांग्रेस की परिवार केंद्रित राजनीति की ही परिणीति रही कि राष्ट्रपति के तौर पर लगातार दो कार्यकाल पूरा करने के बाद आस्थमा से पीड़ित राजेन्द्र बाबू को पटना के एक छोटे से सीलन भरे कमरे में अपना आखिरी दिन गुजरना पड़ा। देश के सभी बड़े और प्रमुख शहरों की सड़कों, भवनों व महत्वपूर्ण स्थलों पर नेहरू-गांधी परिवार की नाम पट्टिका चस्पा की गई और यहीं से व्यक्ति पूजा की संस्कृति विकसित हुई।
वामपंथी इतिहासकारों ने एक बड़ी साजिश के तहत हिंदुत्व और राष्ट्रहित के चिंतन-मनन करने वाले अध्येताओं-मनीषियों को भी गुमनाम या बदनाम करने का कुत्सित प्रयास जारी रखा। कांग्रेसी सत्ता की पालकी के कहरियाँ बने इन वामपंथियों को इसके एवज में बौद्धिक-शैक्षणिक अकादमियों में प्रसाद स्वरूप पद-संरक्षण और अन्य प्रसादों से उपकृत किया जाता रहा।
ये वही लोग हैं, जब इनकी पहचान हुई और ये बेपर्द हुए तो "इनटॉलरेंस मूवमेंट" और अवार्ड वापसी गैंग के रूप में सामने आए।इनका मकसद किसी दल विशेष,सरकार की नीतियों,कार्यकलापोंआदि का विरोध/आलोचना करना नहीं, देश का विरोध करना, वैश्विक पटल पर भारत को बदनाम कर विदेशी पुरस्कार/अवार्ड और अपनी एन्टी नेशनल गतिविधियों के लिए फंड हासिल करना है।
भारतीय लोकतंत्र के दामन पर "इमरजेंसी" का काला दाग लगाने और देश में तानाशाही अधिरोपित करने वालों का समर्थन करने वाले वामपंथियों को आज अचानक "संविधान" खतरे में और सरकार का हर काम "असंवैधानिक" दिखने लगा है।
अब वामपंथियों के इतिहास सामने लाने की सख्त जरूरत है। देश की युवा पीढ़ी को यह बताने की जरूरत है कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर 1974 के जे पी की सम्पूर्ण क्रांति (छात्र आंदोलन) तक में वामपंथियों की क्या भूमिका रही है? 1962 में चीनी आक्रमण के दौरान वामपंथियों की भारत विरोधी करतूतों पर वामपंथी इतिहासकारों की कलम कुंद क्यों हो गई?
आज "भारत तेरे टुकड़े होंगे", "कश्मीर मांगे आजादी" जैसे नारे लगाने और इसका समर्थन करने वाले कौन लोग है? संसद को दहलाने की साजिश करने वाले दुर्दांत आतंकी अफजल गुरु की फांसी को शहादत की संज्ञा देने वाले कौन लोग है? देशद्रोह का जयकारा लगाने वालों को समर्थन देने जेएनयू कैंपस में कौन जाता है?
वामवाद और आतंकवाद एक-दूसरे के पूरक है। अस्थिरता, हिंसा,उपद्रव,आतंक इन दोनों की सहज स्वाभाविक प्रवृति है। चरमपंथी,अतिवादी उग्रवादी संगठन हो या आतंकवादी, इनका मकसद हिंसा और विनाश है। अस्थिरता पैदा कर लोकतंत्र को खत्म करना इनका एकमात्र उद्देश्य है।
ऐसे में आतंकवाद पर कथित वामपंथी इतिहासकारों/ विचारकों की नरमी का राज समझा जा सकता है। इसीलिए अराजकता पसन्द कांग्रेसियों व उनके साथियों को जब तक हितों का टकराव नहीं हो,वामपंथी रास आते हैं।
राज सुख के लिए देश का विभाजन स्वीकार करने वालों की मानसिकता आज भी नहीं बदली है। पाकिस्तान परस्ती, चीन की चाटुकारिता करने वाले ये वही लोग हैं जिनके पूर्वजों ने दोस्ती निभाने की खातिर कश्मीर में धारा 370 अधिरोपित करा कर शेख परिवार को तुष्ट किया और यू एन एस सी में भारत को मिलने वाली स्थायी सदस्यता को पंचशील की तश्तरी में परोस कर चीन को भेंट की।
इतिहास वामपंथी इतिहासकारों के कुकृत्यों को कभी माफ नहीं करेगा।

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