उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव पर न केवल देश की प्रमुख सियासी पार्टियों बल्कि आम जनता की नजरें भी लगी हुई हैं। माना जा रहा है कि यह चुनाव न केवल आगामी दिनों के लिए प्रदेश का भविष्य और भाग्य तय करेगा बल्कि साल 2014 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव की दशा-दिशा भी निर्धारित करेगा। ऐसे मेंं यहां क्षेत्रीय व राष्टï्रीय राजनीतिक दलों की सक्रियता बढऩा लाजिमी है। इस बार यहां सपा और बसपा जहां चुनाव मैदान के मुख्य खिलाड़ी हैं वहीं कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्टï्रीय पार्टियों को भी अपनी निर्णायक भूमिका अदा करने का मौका है।
इन सभी राजनीतिक पार्टियों ने इस बार के विधान सभा चुनाव को केन्द्र की सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी मान कर अपने को दांव पर लगाया है। कहा यह भी जा रहा है कि इस बार जो दल यहां से जितना बल हासिल करेगा आगामी 2014 के लोकसभा के चुनाव मेंं वह उतना ही बलशाली साबित होगा। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपने कार्यकर्ताओं और पार्टीनेताओं को सम्बोधित करते हुए इसका संकेत भी दे दिया है। बसपा प्रमुख मायावती को भी यही चिन्ता सता रही है कि अगर इस बार सत्ता हाथ से चली गयी तो फिर आगामी लोकसभा चुनाव में भी किसी करिश्में की उम्मीद नहीं रहेगी। वहीं कांग्रेस और भाजपा का ध्यान भी उत्तर प्रदेश विधान सभा मेंं कोई धमाल करने से कहीं ज्यादा लोकसभा चुनाव पर ही है। स्वभाविक भी है 75 जिलों और 20 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश जहां से देश के संसद के लिए करीब 16 प्रतिशत प्रतिनिधि चुन कर जाते हैं कि अनदेखी किसी के लिए भी आसान नहीं है। कहा तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की सारी कवायदें दरअसल लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास ही है।
वैसे जिस तरह से बिना संगठन के मजबूत ढांचे के कांग्रेस ने अपने नायक राहुल गांधी के भरोसे यूपी मेंं जिस तरह से दांव लगाया है वह काबिलेगौर है। यूपी मिशन की कमान संभाले राहुल गांधी भी यह मानते हैं की बिना जनता में सीधे जाए कुछ नहीं होने वाला। आज प्रदेश में कांग्रेस के प्रत्याशी ये मानकर चल रहे हैं की जब और जिस भी विधान सभा क्षेत्र में राहुल या सोनिया गांधी आ जायेंगी बस सारे वोट उसे ही मिल जायेंगे। मगर राहुल गांधी को अहसास है कि ऐसा नहीं होने वाला है। इसी लिए अब तक अपने सभी दौरे में उन्होंने प्रदेश के कांग्रेसियों को जनता से जुडऩे का सबक देते रहे हैं। जनता से बढ़ी दूरी आज यूपी में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी समस्या है। इससे उबरने का मंत्र शायद राहुल गाध्ंाी के पास भी नहीं है। देशव्यापी बढ़ती महँगाई, काला धन वापसी की मांग और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का प्रभाव इस बार के विधान सभा चुनाव में जरूर पड़ेगा ही। राष्टï्रीय स्तर पर हो रही कांग्रेस और उसके नेताओं की बदनामी तथा जनता के बीच दिनोंदिन बढ़ती अलोकप्रियता के बाद यह सवाल तो स्वाभाविक है कि आखिर जनता कांग्रेस को क्यों वोट दें। इसका जवाब न केवल कांग्रेसी उम्मीदवारों को बल्कि उसके स्टार प्रचारकों को भी इस चुनाव के दौरान देना होगा।
दूसरी राष्ट्रीय पार्टी भाजपा है जिसमें हताश, निराश और गुटबाज नेताओं का जमावड़ा है। आज कोई भी नेता अपने दल के प्रति समर्पित नहीं दिख रहा है। सबकों अपनी-अपनी पड़ी है। किसी को अपने कुनबे की चिन्ता है तो कोई स्वजातीय हितलाभ के लिए दुबला हो रहा है। शेष बचे नेता अपना प्रोफाइल ठीक-ठाक रखने के लिए बड़े नेताओं की परिक्रमा कर रहे हैं। पार्टी हित कहीं पीछे छुट गया है। प्रत्याशियों के चयन और उनकी सूची की घोषणा में हुई देरी और खींचतान से यह साफ हो गया है कि भाजपा नेतृत्व या तो विधान सभा चुनाव को लेकर गंभीर नहीं है या फिर उसके शीर्ष नेताओं की यूपी में जारी खींचतान के बीच चल नहीं रही है। भारी-भरकम शब्दों की जुगाली करते भाजपा के स्थानीय नेता भी जनता और उसकी समस्याओं से कट चुके हैं। भाजपा के पास इस प्रदेश में ऐसा कोई मुद्ïदा भी नहीं है जिसके आधार पर वह जनता को अपने पक्ष में गोलबंद कर सके। दूसरी ओर बार-बार बसपा से की गयी गलबहिया का भूत भी उसका पीछा छोडऩे के लिए तैयार नहीं है। आखिर ऐसे में बसपा से ऊबी जनता भाजपा पर क्यों भरोसा करे।
बहुजन समाज पार्टी के लिए यह चुनाव अपने अस्तित्व और अस्मिता का सवाल है। घर में हारे तो जग से हारे वाली स्थिति में बसपा फंस गयी है। बिना किसी विचार और नीति के केवल सत्ता पर काबिज रहने की बसपा सुप्रीमो की मानसिकता ने जनता की निगाह में इस दल कों सबसे अलोकप्रिय बना दिया है। सरकारी अधिकारियों की दम पर वसूली करती सरकार अपनी प्रासंगिकता खो बैठी है। ऐने चुनाव के मौके पर पार्टी क्लीन का अभियान भी लफ्फाजी ही साबित हो रहा है। लूट के जिम्मेदार मंत्री रणक्षेत्र में बागी बन कर कूद पड़े हैं तो उसके हिस्सेदार अफसर तेजी से पाला बदल रहे हैं। पार्टी का हर तीसरा विधायक और दूसरा मंत्री लोकायुक्त की जांच के दायरे में है। विगत चुनाव में कारगर रहा जातीय समीकरण पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। जनाधार तेजी से खिसका है। इस दल का यह इतिहास भी रहा है कि सत्ताविमुख होते ही टूट का शिकार भी होता रहा है। इस बार भी इतिहास अपने को दोहरायेगा नहीं ऐसा नहीं कहा जा सकता है। बसपा सुप्रीमो भी इस तथ्य से अनजान नहीं है। लूट की पर्याय बनी सरकार और दल पर एक बार फिर जनता क्यों भरोसा करे? दरअसल बसपा के साथ सवाल अब भरोसा का भी नहीं है। जनता से ज्यादा अब पूर्व बसपाई ही बसपा की मिट्ïटी पलीद करेंगे।
सत्ता के खेल में सबसे बड़ी संभावनाओं वाली पार्टी फिलहाल सपा ही साबित हो रही है। बदलाव कीउम्मीद पाले जनता की नजरें सपा की ओर लगी है। सपा की यह बड़ी जिम्मेवारी भी है कि वह अपनी संगठनात्मक खामियों को बिना किसी देरी दूर करते हुए जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरी उतरे। समाजवादी पार्टी की पिछले विधान सभा के चुनाव में पिछड़ा जातियों के महासमूह के निर्माण की अति महत्वाकांक्षी योजना के तहत कल्याण सिंह को साथ लेने से बिदके मुसलमान आज परिस्थिति बस एक बार फिर पूरी तरह से साथ है। पिछड़ों की गोलबंदी भी पहले से कहीं बेहतर दिख रही है। सत्ता परिवर्तन की आम लोगों की बेचैनी सपा के पक्ष में माहौल बना रहा है। तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस अब तक मुसलमानों को लुभाने और पिछड़ोंं को तोडऩे में कामयाब नहीं हो सकी है। पश्चिमांचल में जहां सपा का जनाधार बढ़ा है और कई पूर्व की हारी सीटों पर भी जीत की संभावनाएं बढ़ी है वहीं पूर्वांचल में भी पकड़ मजबूत हुई है। अमर सिंह जैसे नेताओं की सपा से मुक्ति भी इस बार पक्ष में है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि सपा इस बार न केवल बड़ी उपलब्धि की ओर है बल्कि जनता की उम्मीदें भी उससे जुड़ी है।
इन स्थितियों में सत्ता में अधिकतम हिस्सेदारी पाने के लिए अजीत सिंह का लोकदलए डाण् अयूब की पीस पार्टीए कृष्णा पटेल की अपना दलए अमर सिंह की राष्ट्रीय लोक.मंच और राजा बुन्देला की बुदेलखण्ड कांग्रेस ने भी अपनी बिसातें बिछा रखी हैंण् प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य बहुत स्पष्ट नहीं हैण् पर इतना सभी दल मानते हैं की दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता हैण् सभी की निगाहें 2014 के लोक सभा चुनावों पर गड़ी हैंण् सारे राजनीतिक दल इस चुनाव को सत्ता के खेल का सेमी फाइनल मान रहे हैं तों हर्ज भी क्या हैघ्
इन सभी राजनीतिक पार्टियों ने इस बार के विधान सभा चुनाव को केन्द्र की सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी मान कर अपने को दांव पर लगाया है। कहा यह भी जा रहा है कि इस बार जो दल यहां से जितना बल हासिल करेगा आगामी 2014 के लोकसभा के चुनाव मेंं वह उतना ही बलशाली साबित होगा। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपने कार्यकर्ताओं और पार्टीनेताओं को सम्बोधित करते हुए इसका संकेत भी दे दिया है। बसपा प्रमुख मायावती को भी यही चिन्ता सता रही है कि अगर इस बार सत्ता हाथ से चली गयी तो फिर आगामी लोकसभा चुनाव में भी किसी करिश्में की उम्मीद नहीं रहेगी। वहीं कांग्रेस और भाजपा का ध्यान भी उत्तर प्रदेश विधान सभा मेंं कोई धमाल करने से कहीं ज्यादा लोकसभा चुनाव पर ही है। स्वभाविक भी है 75 जिलों और 20 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश जहां से देश के संसद के लिए करीब 16 प्रतिशत प्रतिनिधि चुन कर जाते हैं कि अनदेखी किसी के लिए भी आसान नहीं है। कहा तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की सारी कवायदें दरअसल लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास ही है।
वैसे जिस तरह से बिना संगठन के मजबूत ढांचे के कांग्रेस ने अपने नायक राहुल गांधी के भरोसे यूपी मेंं जिस तरह से दांव लगाया है वह काबिलेगौर है। यूपी मिशन की कमान संभाले राहुल गांधी भी यह मानते हैं की बिना जनता में सीधे जाए कुछ नहीं होने वाला। आज प्रदेश में कांग्रेस के प्रत्याशी ये मानकर चल रहे हैं की जब और जिस भी विधान सभा क्षेत्र में राहुल या सोनिया गांधी आ जायेंगी बस सारे वोट उसे ही मिल जायेंगे। मगर राहुल गांधी को अहसास है कि ऐसा नहीं होने वाला है। इसी लिए अब तक अपने सभी दौरे में उन्होंने प्रदेश के कांग्रेसियों को जनता से जुडऩे का सबक देते रहे हैं। जनता से बढ़ी दूरी आज यूपी में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी समस्या है। इससे उबरने का मंत्र शायद राहुल गाध्ंाी के पास भी नहीं है। देशव्यापी बढ़ती महँगाई, काला धन वापसी की मांग और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का प्रभाव इस बार के विधान सभा चुनाव में जरूर पड़ेगा ही। राष्टï्रीय स्तर पर हो रही कांग्रेस और उसके नेताओं की बदनामी तथा जनता के बीच दिनोंदिन बढ़ती अलोकप्रियता के बाद यह सवाल तो स्वाभाविक है कि आखिर जनता कांग्रेस को क्यों वोट दें। इसका जवाब न केवल कांग्रेसी उम्मीदवारों को बल्कि उसके स्टार प्रचारकों को भी इस चुनाव के दौरान देना होगा।
दूसरी राष्ट्रीय पार्टी भाजपा है जिसमें हताश, निराश और गुटबाज नेताओं का जमावड़ा है। आज कोई भी नेता अपने दल के प्रति समर्पित नहीं दिख रहा है। सबकों अपनी-अपनी पड़ी है। किसी को अपने कुनबे की चिन्ता है तो कोई स्वजातीय हितलाभ के लिए दुबला हो रहा है। शेष बचे नेता अपना प्रोफाइल ठीक-ठाक रखने के लिए बड़े नेताओं की परिक्रमा कर रहे हैं। पार्टी हित कहीं पीछे छुट गया है। प्रत्याशियों के चयन और उनकी सूची की घोषणा में हुई देरी और खींचतान से यह साफ हो गया है कि भाजपा नेतृत्व या तो विधान सभा चुनाव को लेकर गंभीर नहीं है या फिर उसके शीर्ष नेताओं की यूपी में जारी खींचतान के बीच चल नहीं रही है। भारी-भरकम शब्दों की जुगाली करते भाजपा के स्थानीय नेता भी जनता और उसकी समस्याओं से कट चुके हैं। भाजपा के पास इस प्रदेश में ऐसा कोई मुद्ïदा भी नहीं है जिसके आधार पर वह जनता को अपने पक्ष में गोलबंद कर सके। दूसरी ओर बार-बार बसपा से की गयी गलबहिया का भूत भी उसका पीछा छोडऩे के लिए तैयार नहीं है। आखिर ऐसे में बसपा से ऊबी जनता भाजपा पर क्यों भरोसा करे।
बहुजन समाज पार्टी के लिए यह चुनाव अपने अस्तित्व और अस्मिता का सवाल है। घर में हारे तो जग से हारे वाली स्थिति में बसपा फंस गयी है। बिना किसी विचार और नीति के केवल सत्ता पर काबिज रहने की बसपा सुप्रीमो की मानसिकता ने जनता की निगाह में इस दल कों सबसे अलोकप्रिय बना दिया है। सरकारी अधिकारियों की दम पर वसूली करती सरकार अपनी प्रासंगिकता खो बैठी है। ऐने चुनाव के मौके पर पार्टी क्लीन का अभियान भी लफ्फाजी ही साबित हो रहा है। लूट के जिम्मेदार मंत्री रणक्षेत्र में बागी बन कर कूद पड़े हैं तो उसके हिस्सेदार अफसर तेजी से पाला बदल रहे हैं। पार्टी का हर तीसरा विधायक और दूसरा मंत्री लोकायुक्त की जांच के दायरे में है। विगत चुनाव में कारगर रहा जातीय समीकरण पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। जनाधार तेजी से खिसका है। इस दल का यह इतिहास भी रहा है कि सत्ताविमुख होते ही टूट का शिकार भी होता रहा है। इस बार भी इतिहास अपने को दोहरायेगा नहीं ऐसा नहीं कहा जा सकता है। बसपा सुप्रीमो भी इस तथ्य से अनजान नहीं है। लूट की पर्याय बनी सरकार और दल पर एक बार फिर जनता क्यों भरोसा करे? दरअसल बसपा के साथ सवाल अब भरोसा का भी नहीं है। जनता से ज्यादा अब पूर्व बसपाई ही बसपा की मिट्ïटी पलीद करेंगे।
सत्ता के खेल में सबसे बड़ी संभावनाओं वाली पार्टी फिलहाल सपा ही साबित हो रही है। बदलाव कीउम्मीद पाले जनता की नजरें सपा की ओर लगी है। सपा की यह बड़ी जिम्मेवारी भी है कि वह अपनी संगठनात्मक खामियों को बिना किसी देरी दूर करते हुए जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरी उतरे। समाजवादी पार्टी की पिछले विधान सभा के चुनाव में पिछड़ा जातियों के महासमूह के निर्माण की अति महत्वाकांक्षी योजना के तहत कल्याण सिंह को साथ लेने से बिदके मुसलमान आज परिस्थिति बस एक बार फिर पूरी तरह से साथ है। पिछड़ों की गोलबंदी भी पहले से कहीं बेहतर दिख रही है। सत्ता परिवर्तन की आम लोगों की बेचैनी सपा के पक्ष में माहौल बना रहा है। तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस अब तक मुसलमानों को लुभाने और पिछड़ोंं को तोडऩे में कामयाब नहीं हो सकी है। पश्चिमांचल में जहां सपा का जनाधार बढ़ा है और कई पूर्व की हारी सीटों पर भी जीत की संभावनाएं बढ़ी है वहीं पूर्वांचल में भी पकड़ मजबूत हुई है। अमर सिंह जैसे नेताओं की सपा से मुक्ति भी इस बार पक्ष में है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि सपा इस बार न केवल बड़ी उपलब्धि की ओर है बल्कि जनता की उम्मीदें भी उससे जुड़ी है।
इन स्थितियों में सत्ता में अधिकतम हिस्सेदारी पाने के लिए अजीत सिंह का लोकदलए डाण् अयूब की पीस पार्टीए कृष्णा पटेल की अपना दलए अमर सिंह की राष्ट्रीय लोक.मंच और राजा बुन्देला की बुदेलखण्ड कांग्रेस ने भी अपनी बिसातें बिछा रखी हैंण् प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य बहुत स्पष्ट नहीं हैण् पर इतना सभी दल मानते हैं की दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता हैण् सभी की निगाहें 2014 के लोक सभा चुनावों पर गड़ी हैंण् सारे राजनीतिक दल इस चुनाव को सत्ता के खेल का सेमी फाइनल मान रहे हैं तों हर्ज भी क्या हैघ्
No comments:
Post a Comment