बिहार-2020 से पहले नीतीश कुमार को फिर से बड़ा ऑफर मिला है. ये ऑफर महागठबंधन को लेकर आरजेडी की तरफ से है - और वो भी नेतृत्व करने के लिए. देखा जाये तो आम चुनाव से पहले महागठबंधन में शामिल होने को लेकर नीतीश कुमार खुद ही खूब कोशिश कर रहे थे. जेडीयू उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर को लेकर उन दिनों मीडिया की सुर्खियां भी बनी थीं.
आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी ने नीतीश कुमार को महागठबंधन की अगुवाई करने का न्योता दिया है. सवाल ये है कि क्या मौजूदा हालात में नीतीश कुमार ये स्वीकार करेंगे?
एकबारगी तो आम चुनाव के बाद नीतीश कुमार को RJD की तरफ से मिले ऑफर का कोई मतलब नहीं है. बीजेपी के पक्ष में जो माहौल बना है, विरोधी दलों के लिए टकराना तो दूर उनके अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है. बगैर विपक्ष के लोक तंत्र का कोई मतलब तो होता नहीं, इसलिए स्कोप तो हमेशा बना रहेगा. ज्यादा कुछ न सही, सत्ता पक्ष को बुनियादी चीजें याद दिलाने की जिम्मेदारी भी तो विपक्ष की ही होती है.
राष्ट्रीय जनता दल के उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी का मानना है कि नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बन सकते हैं. लगे हाथ, शिवानंद तिवारी ने नीतीश कुमार को चेतावनी भी दे डाली है - अगर ऐसे समय की वो अनदेखी करते हैं तो इतिहास कभी उन्हें माफ नहीं करेगा.
नीतीश को ऑफर देने के साथ ही शिवानंद तिवारी ने बिहार की राजनीतिक स्थिति की एक साफ तस्वीर भी खींची है, बकौल आरजेडी नेता -
1. बिहार में महागठबंधन पूरी तरह बिखर गया है. शिवानंद तिवारी के हिसाब से इसकी बड़ी वजह आरजेडी में नेतृत्व की निष्क्रियता है.
2. शिवानंद तिवारी की राय में देश के मौजूदा हालात में नीतीश कुमार जैसे नेता को आगे आकर राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए.
3. आरजेडी नेता मानते हैं कि नीतीश कुमार एक ऐसे नेता हैं, जो एनडीए में रहने के बावजूद धर्मनिरपेक्ष चेहरा हैं.
4. शिवानंद तिवारी का दावा है कि मौजूदा स्थिति में एक व्यवहारिक किस्म का गठबंधन हो सकता है और राष्ट्रीय राजनीति में गठबंधन की अहम भूमिका हो सकती है.
नीतीश कुमार के सामने ये मौका ऐसे दौर में आया है जब वो BJP के साथ 'कभी नरम तो कभी गरम' वाले खेल खेल रहे हैं. शिवानंद तिवारी की नजर में भले ही राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश कुमार महत्वपूर्ण हो सकते हों, लेकिन फिलहाल तो उनके सामने आने वाली चुनौती बिहार विधानसभा का चुनाव है. समझने वाली बात ये है कि नीतीश कुमार अगर अभी NDA छोड़ कर महागठबंधन की तरफ जाने की सोचते हैं, तो क्या फायदा और नुकसान हो सकता है? अभी तो ऐसा लग रहा है कि महागठबंधन में गये बगैर ही नीतीश कुमार इस ऑफर का ज्यादा फायदा उठा सकते हैं. हालांकि, नीतीश कुमार को ये फायदा तभी मिल सकता है जब बीजेपी की नजर में नीतीश कुमार की अहमियत बनी रहे.
बेशक, भारी बहुमत के साथ आम चुनाव जीत कर आयी बीजेपी के पक्ष में एक जनमत नजर आ रहा है, खासकर जम्मू-कश्मीर से जुड़ी धारा 370 खत्म कर दिये जाने के बाद. निश्चित तौर पर बीजेपी ने अपने वोटर को मैसेज भेजा है कि जो चुनावी वादे वो करके सत्ता में लौटी है - पूरा भी करती है. लेकिन क्या बगैर नीतीश कुमार के बीजेपी बिहार में भी सरकार बना सकती है? तब भी जब शिवानंद तिवारी और आम चुनाव के नतीजों के हिसाब से महागठबंधन जीरो बैलेंस की स्थिति में आ चुका हो?
अभी तो मुश्किल है. अभी बिहार में बीजेपी का कोई भी नेता नीतीश कुमार जैसा तो नहीं ही बन पाया है - आगे की बात और है. यही वो सबसे अहम पहलू है जो बीजेपी नेतृत्व के सामने नीतीश कुमार का कद बढ़ा देता है. इसी कारण नीतीश कुमार बारगेन की पोजीशन में पहुंच जाते हैं. महागठबंधन के नाम पर नीतीश कुमार चाहें तो बीजेपी से विधानसभा सीटों के बंटवारे में सौदेबाजी की कोशिश कर सकते हैं. फिलहाल तो नीतीश कुमार के लिए महागठबंधन के ऑफर की इतनी ही अहमियत है.
'दोनों हाथों में लड्डू' जैसा 'फील गुड'?
मोदी कैबिनेट 2.0 के गठन के वक्त नीतीश कुमार ने अपने मन मुताबिक न होने से दूरी बना ली थी, लेकिन कुछ ही दिन बाद जब बिहार मंत्रिमंडल का विस्तार किया तो गठबंधन पार्टनर को ही झटका दे दिया. नीतीश कुमार के इस कदम को बीजेपी नेतृत्व - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को सख्त संदेश के दौर पर देखा गया.
जब संसद में तीन तलाक बिल आया तो रास्ते से हटकर जेडीयू ने सत्ताधारी बीजेपी की मदद कर दी - लेकिन धारा 370 का विरोध किया और बाद में पलट गये. एक जेडीयू नेता ने कुछ ऐसे समझाया कि जब कानून बन ही गया तो विरोध का क्या फायदा.
नीतीश कुमार ने एक बार फिर बीजेपी नेतृत्व को कड़ा तेवर दिखाया है. नीतीश कुमार ने 3C फॉर्मूला पेश किया है - Crime, Corruption and Communalism यानी अपराध, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता. सांप्रदायिकता ही वो मुद्दा है है जिसे लेकर नीतीश कुमार, बीजेपी के साथ एनडीए में रहते हुए भी दूरी बनाने की कोशिश करते हैं और खुद को अपनी शर्तों पर अलग दिखाने की कोशिश करते हैं.
ध्यान देने वाली बात ये है कि बिहार से पहले कुछ और विधानसभाओं के साथ झारखंड में भी चुनाव होने जा रहे हैं और नीतीश कुमार ने मैदान में अकेले उतरने का ऐलान कर दिया है. नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू झारखंड की सभी 81 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है. बीजेपी के लिए संदेश ये है कि गठबंधन सिर्फ बिहार में है, बाहर नहीं.
नीतीश कुमार ने लोक सभा चुनाव में तो सीटों की बराबरी पर समझौता कर लिया - क्या विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही होगा?
लोक सभा में कम ज्यादा होने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला था, लेकिन विधान सभा में इसका सीधा फायदा और नुकसान हो सकता है. अगर नीतीश कुमार ने कम सीटें जीती तो बीजेपी के विधायक कब नीतीश कुमार को हटाने की मांग करने लगें, कहा नहीं जा सकता. वैसे ही जैसे कर्नाटक में बीजेपी को सत्ता झटकने में सिर्फ सवा साल लगे - क्या मालूम बिहार के लिए क्या प्लान बना रखा हो?
जैसा कि शिवानंद तिवारी बता रहे हैं कि बिहार में महागठबंधन मृतप्राय है. दरअसल, महागठबंधन ने तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था और वो पूरी तरह नाकाम रहे. चुनाव में हार के बाद भी तेजस्वी यादव की कोई दिलचस्पी नजर नहीं आ रही है. चर्चा है कि तेजस्वी यादव तब तक सक्रिय भागीदारी से दूर रहना चाहते हैं जब तक पार्टी में मीसा भारती और तेज प्रताप यादव की दखल पर अंकुश लगने का आश्वासन नहीं मिलता.
वैसे बहुत कुछ बिहार चुनाव से पहले होने जा रहे विधान परिषद चुनावों के नतीजे आने के बाद मालूम होगा. नतीजे ही बताएंगे कि नीतीश कुमार और बीजेपी दोनों ही आगे की रणनीति किस तरीके से तैयार करते हैं? अभी तो ऐसा ही लग रहा है जैसे नीतीश कुमार के दोनों हाथों में लड्डू आया हुआ है - और वो ज्यादा फायदे के हिसाब से फैसला कर सकते हैं.
बिहार में प्रचलित एक भोजपुरी कहावत है, 'दोनों हाथ में लड्डू और सिर कड़ाही में', ज्यादा लंबा न सही, मगर कुछ देर के लिए तो नीतीश कुमार ऐसा फील गुड कर ही सकते हैं.
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