Thursday, July 19, 2012

बिहार में युटोपीयाई पत्रकारिता


चारों तरफ एक अजीब सा माहौल बना हुआ हैं. स्वयं निर्मित यूटोपिया में हम सब घिरे हुए है.सब कुछ अच्छा हो रहा है, केवल अच्छा,कही कुछ बुरा नहीं, यह सुशासन का फीलगुड है. मानो अचानक हमारा गौरवशाली अतीत वाला बिहार लन्दन और पेरिस बन गया है. मीडिया से भूख,गरीबी, अशिक्षा,शोषण, उत्पीडन, दुराचार, अनाचार,अपराध, लूट-पाट, छिना-झपटी की खबरें गायब है. मुझे नहीं लगता की यह अघोषित सेंसरशिप सत्ताजनित है, बल्कि हमने खुद अपने ऊपर अधिरोपित कर ली है. हम खुश है, कुछ करना नहीं पड़  रहा है.सरकारी विज्ञप्तियो, राजा के बयानों, प्रेस नोट्स और साहबों के डिक्टेशन से कम चल जा रहा है. गाँधी जी को भले ही हम विस्मृत कर दिए हो, मगर उनके तीन बन्दर आज हमारे आदर्श बने हुए हैं, हमने तय कर रखी है कि- हम बुरा देखेंगे, सुनेगे और बोलेंगे.यह हमारी कार्पोरेट पत्रकारिता है.
इस पत्रकारिता ने हमे हमारे सरोकारों से, अपनों से, कर्तव्यों और दायित्वों से  काट दिया है.यह एक गहरी साजिश है, पत्रकारिता के मूल उद्देश्यों और सामाजिक दायित्वों को विलोपित करने का. मीडिया के कार्पोरेट घरानों को इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली है. तीन बाई चार फुट के शीशे से घिरे तथाकथित केबिन में दीवार की तरफ मुंह करके बैठने वाला हमारा पत्रकार साथी केवल अपने आप से ही नहीं बल्कि अपने आजू-बाजु से भी कट गया है, कई बार तो बगल में बैठे अपने सहयोगी से बात किये उसे कई-कई दिन हो जाते हैं. घर-परिवार, नाते-रिश्ते, अडोस -पड़ोस की भी उसे सुध नहीं रहती है. इसे परिणामी पत्रकारिता(Result orientet journalism) का नाम दिया गया है. हम ख़ुशी से स्वीकार भी कर लिए हैं.
सबसे गलीज स्तिथि हमारे उन पत्रकार बंधुओं कि है जो जिलो में, अनुमंडलों में और प्रखंडों में कलम के जरिये अलख जगाने कि जिद लेकर पत्रकारिता में उतरे हैं. बेचारे पत्रकार तो रहे नहीं विज्ञापन कलेक्टर और दलाल जैसी भूमिका में सिमट कर रह गए है. इस टिप्पणी पर एतराज हो सकता है, थोड़े सुधार के साथ मैं यह कह सकता हूं कि भले ही सभी नहीं, मगर अधिकाश की तो यही स्थिति है. ऐसे पत्रकार मित्रों को मनरेगा कि लूट-खसोट, चोरी-बेईमानी, आम और गरीब लोगो की हकमारी नहीं दिखती, दिखेगी भी कैसे? होली, दीवाली, दशहरा और १५ अगस्त, २६ जनवरी को इन्हें उन्ही बी डी , सी , मुखिया, प्रमुख और वार्ड सदस्य से हज़ार-पांच सौ के विज्ञापन जो वसूलने है. यह वसूली उन कार्पोरेट मीडिया घरानों के लिए उन्हें करनी पड़ती है, जो अपनी सालन शुद्ध आय ३०० से ५०० करोड़  घोषित करते है. 
वैसे इन सब के लिए केवल डेस्क पर बैठे और फिल्ड में काम कर रहे पत्रकारों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. उस सिस्टम पर भी गौर करने कि जरूरत है, जिसके तहत इस पूरे कारोबार को संचालित किया जा रहा है. लाखो रुपए का तनख्वाह लेने वाले चमचमाती कारों में काले शीशे लगा कर विचारने वाले संपादक रुपी संस्था पर ग्रहण लगा हुआ है. अब अख़बारों में लिखने-पढने और सामाजिक सरोकार रखने वाले संपादको की जरूरत नहीं है. संपादकों की भूमिका प्रबंधकीय कौशल और मालिको के हितों के संरक्षण तक सीमित हो गई है. जो जितना राजस्व उगाही करता है वह उतना ही सफल माना जाता है.आज किसी संपादक से पूछिए की आपकी पत्रकारीय उपलब्धि क्या है? तो वह बड़े गर्व से कहेगा कि पटना और दिल्ली में फ्लैट ले लिया हू. बेटी को सिम्बोसिस में पढ़ा रहा हूं, बेटा को पढने के लिए डोनेशन  देकर विदेश भेज दिया हू, लाइफ शेटल है, और क्या चाहिए.लिखने-पढने कि बात करें तो टका सा जवाब मिलेगा, यार समय कहा मिलता है. यानी  जो जितना बड़ा  दलाल वह उतना सफल संपादक.  
अखबारी दफ्तरों में अब अख़बार को अख़बार या समाचार पत्र नहीं कहा जाता है. कार्पोरेट संस्कृति ने इसे प्रोडक्ट बना दिया है. मूर्धन्य पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी ने अपने एक भाषण में इस पर तल्ख़ मगर सामयिक टिप्पणी की थी.उनका साफ कहना था कि कि अगर यह समाचार पत्र और अख़बार नहीं है और साबुन सर्फ़. शैम्पू तथा सौन्दर्य प्रसाधनो की तरह महज एक प्रोडक्ट है तो फिर इसे मीडिया का नाम क्यों दिया जा रहा हैं, अगर सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और वैधानिक तौर पर उसकी डिब्बिओं पर यह लिखना जरूरी है कि ' सिगरेट स्मोकिंग इज इन्जुरिओस टू हेल्थ' तो अख़बारों के मास्क हेड पर भी यह लिखा जाना चाहिए कि ' न्यूज पेपर रीडिंग इज इन्जुरिओस टू सोसायटी' और सरकार को भी  इस उद्योग और इससे जुड़े लोगो के साथ वैसा ही व्यव्हार करना चाहिए जैसे अन्य उधोयोगो के साथ होता है.मीडिया के नाम पर इन्हें वे तमाम रियायते और सहुलियते भी नहीं मिलनी चाहिए.
युटोपीआई पत्रकारिता की कई वजहों में से एक पत्रकारीय मूल्यों का क्षरण भी है. क्रांति और सजगता के  प्रतीक बिहार की धरती पर इसे शिद्दत से महसूस किया जा सकता है.अगर आप सहमत है तो अपनी टिपण्णी जरूर दें.वैसे सच कहना और सच का साथ देना बहुत सहज और सरल नहीं होता है. मैं आपकी दुविधा को समझ सकता हूं...